संस्कारशाला ::: अन्य भाषाओं और सांस्कृतियों का ज्ञान बढ़ाए सद्भाव दिलाए सम्मान
किसी भी सभ्यता में मां की भाषा उस सभ्यता की जनक होती है। यह मां ही है जो किसी भी भाषा में अपने शिशु को उसके जीवन में रंग दिखाती है।
गौरवांवित होने से पहले रखें भाषा व संस्कृति का ज्ञान
किसी भी सभ्यता में मां की भाषा उस सभ्यता की जनक होती है। यह मां ही है जो किसी भी भाषा में अपने शिशु को उसके जीवन में रंग दिखाती है। संपूर्ण विश्व में मां के गुण एवं धर्म तो नियत हो सकते हैं पर संवेदनाओं को हस्तांतरित करने की उसकी शैली, प्यार को व्यक्त करने के उसके शब्द, संस्कृति से सरोकार करने का उसका ज्ञान उसके वाहक शब्दों पर निर्भर है। बड़े होते हुए हम शाब्दिक मर्म को आत्मसात करते हैं और शुरू होता है जिज्ञासु का एक सैलाब। जो इस तरह के लेखन व संगोष्ठी के रूप में मूर्त होता है। कबीरदास का कथन सार सार को गाहि करे थोथा देय उड़ाए, पर चलकर आपसी सौहार्द और मातृत्व को नवजीवन में रोपकर समृद्ध हुआ है और पारस्पर भाइचारे की भावना का प्रबल पक्षधार है। हमें सभी भाषा व संस्कृतियों का सम्मान करना चाहिए। जिसे समाज में सद्भाव उत्पन्न होगा।
- वेद प्रकाश राठौर, प्रधानाचार्य विज्ञानानंद इंटर कॉलेज। लंबे समय बाद विकसित होती है संस्कृति
भाषा का महत्व वह साधन है जिसके द्वारा हम अपने विचारों को व्यक्त करते हैं और इसके लिए वाचिक ध्वनियों का प्रयोग करते हैं। भाषा मुख से उच्चारित होने वाले शब्दों, वाक्य आदि का वह समूह है जिसके माध्यम से अपने विचार व्यक्त कर सकते हैं। संस्कृति किसी समाज में गहराई तक व्याप्त उन गुणों का समग्र नाम है जो उस समाज के सोचने, विचारने व कार्य करने के ढंग से व्यक्त होता है। अर्थात संस्कृति उस विधि का प्रतीक है जिसके आधार पर हम सोचते और आगे का कार्य करते हैं। भारतीयों की यह विशिष्टता रही है कि दुनिया की प्रथम वैज्ञानिक एवं समृद्ध संस्कृत भाषा हमने दी है। विभिन्न भाषा व संस्कृति वाले हमारे देश में जो भी आता है यहां के विचार व परंपराओं से आत्मसात होकर जाता है। आज के समय जरूरत है कि विद्यार्थियों को हमारी संस्कृति के बारे में विस्तार से बताया जाए।
- पुष्पदेव भारद्वाज, प्रधानाचार्य, मुन्ना लाल इंटर कॉलेज वजीरगंज। पाश्चात्य से दूर होकर जानें संस्कृति व ज्ञान
भारतीय संस्कृति ही है जो सभी देशवासियों को एक सूत्र में पिरोती है। जिसके चलते पूरा विश्व भारतीय संस्कृति के दर्शन करना चाहता है। लेकिन आज की भागदौड़ भरी जिदगी में लोग संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। सोशल साइट्स व गेम्स में पूरा समय लगे रहने की वजह से युवा पाश्चात्य संस्कृति की ओर जाते जा रहे हैं। अपनी संस्कृति को भूलने वाले लोगों को वापस संस्कृति की ओर लौटाने की शुरूआत स्कूल-कॉलेजों से ही करनी होगी। जहां छात्र-छात्राओं को वेदों, रामायण, महाभारत आदि की गाथाएं सुनाई जाएं। उन्हें बताया जाए कि किस प्रकार हमारा देश विविधताओं का देश बना है। स्नातन, बौद्ध, जैन धर्म का प्रवर्तक देश होने के साथ-साथ मानव धर्म का माड्यूल देने वाला भी यही देश है। परंपरा का निवर्हन करते हुए युवा पीढ़ी को चाहिए कि अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त अन्य भाषा व संस्कृति को जानें और देश को गौरवांवित करें।
- मुहम्मद इरशाद, प्रधानाचार्य, राजकीय हाईस्कूल, जगत।