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फलाहार नहीं, यहां मां को चढ़ता है पूरा आहार

आजमगढ़ दुर्गा पूजा को लेकर हर तरफ तैयारियां पूरी हो चुकी हैं दर्शन के लिए पट भी खुल गए हैं लेकिन एक स्थान ऐसा है जहां पहुंचने के बाद कुछ अलग दिखता है। आम आदमी की जिज्ञासा भी बढ़ जाती है यह जानने की कि आखिर यह कौन सी परंपरा है। हम बात कर रहे हैं बंग सोसायटी के तीन दिवसीय दुर्गा पूजा समारोह की।

By JagranEdited By: Published: Sun, 06 Oct 2019 06:37 PM (IST)Updated: Sun, 06 Oct 2019 06:37 PM (IST)
फलाहार नहीं, यहां मां को चढ़ता है पूरा आहार
फलाहार नहीं, यहां मां को चढ़ता है पूरा आहार

शक्ति शरण पंत

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आजमगढ़ : दुर्गा पूजा को लेकर हर तरफ तैयारियां पूरी हो चुकी हैं, दर्शन के लिए पट भी खुल गए हैं लेकिन एक स्थान ऐसा है जहां पहुंचने के बाद कुछ अलग दिखता है। आम आदमी की जिज्ञासा भी बढ़ जाती है यह जानने की कि आखिर यह कौन सी परंपरा है। हम बात कर रहे हैं बंग सोसायटी के तीन दिवसीय दुर्गा पूजा समारोह की।

आम तौर पर नवरात्र में मां को फलाहार का भोग लगाया जाता है लेकिन यहां प्रतिमा स्थापना के बाद मां को पूरा भोजन अर्पित किया जाता है। इसमें चार किस्म की दाल मिश्रित खिचड़ी के साथ कोहड़ा-चना और आलू-गोभी की सब्जी होती है। साथ में टमाटर की चटनी और पापड़ भी होता है। मां को भोग अर्पित करने के बाद सभी लोग उसी को प्रसाद स्वरूप ग्रहण करते हैं। शहर में बंग समाज के लगभग डेढ़ सौ परिवार के लोग रहते हैं और सप्तमी से लेकर नवमी तक पूजा स्थल पर ही एक साथ जमीन पर बैठकर भोजन ग्रहण करते हैं। इसमें न कोई छोटा होता है और न ही कोई बड़ा। भोजन के बाद अपना पत्तल लोग स्वयं फेंकते हैं।

माता को अर्पित होने वाले शाम के भोग में फलाहार चढ़ता है। यानी दिन का भोजन सभी लोग माता जी के साथ करते हैं और रात का अपने-अपने घर। इस परंपरा के बारे में समाज के लोगों की स्पष्ट धारणा भी है। सोसायटी के सदस्य अधीर कुमार दत्ता बताते हैं कि मां की ही कृपा से हमें तरह-तरह के व्यंजन भोजन में मिलते हैं तो फिर माता जी को केवल फल का भोग क्यों लगाया जाए।

उधर सुबह-शाम की पूजा और आरती के दौरान भी कुछ अलग यह दिखता है। सभी लोग समय से पूजा स्थल पर पहुंच जाते हैं और जयकारा के बीच धुनोची डांस करते हैं। यहां पूजा के लिए पुरोहित और ढाकी (विशेष वाद्य यंत्र) बजाने वाले कलाकारों को कोलकाता से बुलाया जाता है।

वर्ष 1956 से इस पूजा की शुरुआत हरिऔध कला भवन से हुई लेकिन उस भवन के ध्वस्त होने के बाद बीते चार-पांच वर्षों से इसका आयोजन जाफरपुर में हो रहा है। फिर भी वही उत्साह और वही परंपरा आज भी कायम है।


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