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पाकिस्तान सरकार की धमकी से भी नहीं डरे शायर जॉन एलिया

जॉन एलिया के भतीजे व फिल्म निर्देशक ताजदान अमरोहवी ने बताया कि पाकिस्तान में रहने के बावजूद वह हिन्दुस्तान की याद में शायरी व गजलें लिखते रहे।

By Dharmendra PandeyEdited By: Published: Thu, 14 Dec 2017 04:10 PM (IST)Updated: Thu, 14 Dec 2017 04:44 PM (IST)
पाकिस्तान सरकार की धमकी से भी नहीं डरे शायर जॉन एलिया
पाकिस्तान सरकार की धमकी से भी नहीं डरे शायर जॉन एलिया

अमरोहा [अनिल अवस्थी]। अपनी शायरी के दम पर कामयाबी के फलक पर छाने वाले मशहूर शायर जॉन एलिया भले ही देश के बंटवारे के बाद अमरोहा छोड़कर कराची चले गए हों, लेकिन दिल हमेशा हिन्दुस्तान के लिए धड़कता रहा। यहां की माटी से बिछडऩे का दर्द हमेशा उनकी शायरियों में छलकता रहा। अपने अंतिम समय तक वह हर साल पाकिस्तान से अमरोहा आते रहे। स्टेशन पर उतरते ही सबसे पहले वह यहां की मिट्टी अपने माथे पर लगाते थे।

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14 दिसंबर 1931 को अमरोहा के शफीक हसन एलिया के घर जन्मे जॉन एलिया मशहूर फिल्म निर्देशक कमाल अमरोहवी के चचेरे भाई थे। देश के बंटवारे के बाद वर्ष 1950 में जॉन एलिया के तीनों भाई अमरोहा से कराची चले गए। जॉन ने शहर नहीं छोड़ा। हालांकि छह वर्ष बाद जॉन को भी कराची जाना पड़ गया। 

वहां उन्होंने बिहार मूल की जाहिदा हिना से निकाह किया जोकि बीबीसी लंदन में तफसरानिगार थीं। एक से बढ़कर एक शायरी लिखकर जॉन बहुत जल्द नामचीन शायरों के सिरमौर हो गए। उनको अमरोहा से बिछडऩे का दर्द हमेशा सताता रहा। नियमित रूप से हर साल वह अमरोहा आते थे। यहां वह आदिल अमरोहवी के घर ठहरते थे।

अमरोहा की माटी को चूमकर माथे पर लगाते थे

आदिल बताते हैं कि उनके आने की सूचना पर स्वागत के लिए कई लोग स्टेशन पहुंचते थे। ट्रेन से उतरते ही सबसे पहले वह स्टेशन पर ही जमीन से मिट्टी उठाकर चूमते थे और फिर उसे माथे पर लगाते थे। वह दिल से कभी अमरोहा से दूर नहीं हो सके। वर्ष 2002 में इंतकाल से पूर्व 1999 में वह आखिरी बार अमरोहा आए थे।

पाकिस्तान में बसता अमरोहा

आदिल के मुताबिक कराची में अमरोहा सोसायटी के नाम से कालोनी भी बस गई है जिसमें सभी त्योहार अमरोहा की तर्ज पर मनाए जाते हैं। इसके अलावा जॉन के नाम पर पाकिस्तान सरकार ने डाक टिकट जारी किया है। वहीं कराची शहर में उनके नाम पर एक सड़क भी बनाई गई है। 

जॉन की शायरी में छलकता बिछडऩे का दर्द

- हम आंधियों के बन में किसी कारवां के थे, जाने कहां से आए हैं जाने कहां के थे।

- ऐ जान-ए-दास्तां तुझे आया कभी ख्याल, वह लोग क्या हुए जो तेरी दास्तां के थे।

- मिलकर तपाक से हमें न कीजिए उदास, खातिर न कीजिए कभी हम भी यहां के थे।

- क्या पूछते हो नाम-ओ-निशान-ए मुसाफिरों, हिन्दोस्तां में आए हैं हिन्दोस्तां के थे।

कराची के समुद्र तट पर याद आती थी अमरोहा की बांध नदी

कराची का विशाल समुद्र तट जॉन एलिया के देश प्रेम की प्यास को और बढ़ा देता था। यहां उन्हें अमरोहा की छोटी सी बांध नदी की याद सताती थी। बकौल आदिल वह जब भी अमरोहा आते थे बांध नदी देखने जरूर जाते थे। बताया कि कराची समुद्र तट पर उन्होंने लिखा था- इस समंदर पे तृष्णाकाम हूं मैं, बांध तुम अब भी बह रही हो क्या?

पाकिस्तान सरकार की धमकी से भी नहीं डरे

जॉन एलिया के भतीजे व फिल्म निर्देशक ताजदान अमरोहवी ने बताया कि पाकिस्तान में रहने के बावजूद वह हिन्दुस्तान की याद में शायरी व गजलें लिखते रहे। इसके चलते उन्हें पाक सरकार से कई बार धमकी भी मिली, लेकिन वह कभी नहीं डरे। बताया कि कराची में बढ़ता सिंधी भाषा का वर्चस्व और उर्दू की नाकदरी से आहत होकर लिखी गई उनकी गजल- 'उर्दू का जनाजा है जरा धूम से निकले...' ने पाकिस्तान में तहलका मचा दिया था।

पाकिस्तान का कहने पर फफक पड़े थे एलिया

आदिल ने बताया कि वर्ष 1978 में अमरोहा में आयोजित एक मुशायरे में भी एलिया ने शिरकत की थी। मंच पर जब उन्हें पाकिस्तान के मशहूर शायर कहकर पुकारा गया तो वह माइक संभालते ही फफक पड़े थे। उन्होंने मंच से ही कहा था कि मैं पाकिस्तानी नहीं हिन्दुस्तानी हूं।


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