यहां अजादारों को बंटता है नान का तबर्रुक
कर्बला की तपती रेत व शिद्दत की गर्मी में खुश्क गले का तसव्वुर कर रौंगटे खड़े हो जाते हैं। कई दिन तक भूखे-प्यासे रहकर हजरत इमाम हुसैन व उनके साथियों ने जुल्म व बुराई के आगे सिर नहीं झुकाया।
नौगावां सादात : कर्बला की तपती रेत व शिद्दत की गर्मी में खुश्क गले का तसव्वुर कर रौंगटे खड़े हो जाते हैं। कई दिन तक भूखे-प्यासे रहकर हजरत इमाम हुसैन व उनके साथियों ने जुल्म व बुराई के आगे सिर नहीं झुकाया। उनकी याद में ही अजादार मुहर्रम के दस दिन गम मनाते हुए मातम करते हैं। नौगावां सादात में अजादारी का यह सिलसिला लगभग दो सौ साल पुराना बताया जाता है। इस दौरान अजादारों के लिए शाम को तबर्रुक (प्रसाद) बांटा जाता है। यह प्रसाद खील-बताशा या किसी और चीज का नहीं होता। बल्कि नान (रोटी) का तबर्रुक बांटा जाता है। प्रतिदिन लगभग 80 कुंतल आटे के नान तैयार किए जाते हैं। लगातार दस दिन यह सिलसिला चलता है।
नौगावां में अजादारी का इतिहास लगभग दो सौ साल पुराना है। हर साल मुहर्रम का महीना शुरू होते ही नौगावांवासी जहां भी रहते हैं अपने घर वापस लौट आते हैं। बड़ी अकीदत के वह साथ इमाम हुसैन का गम मनाने में जुट जाते हैं। घर-घर मजलिसें होती हैं। जगह-जगह पानी और शरबत की सबीले लगायी जाती हैं। लोग सुबह से देर रात तक इमाम हुसैन का गम मनाने में लगे रहते हैं। मातमी जुलूस के बाद शाम को अजादारों को तबर्रुक यानि प्रसाद का वितरण किया जाता है।
कस्बे के बुर्जुग बताते हैं कि ज्यादा से ज्यादा वक्त अजादारी को दे सकें इसके लिए लोगों ने लगभग 150 साल पहले घरों में रोटी न बनाने का फैसला लिया था। यह तय पाया कि ऐसा सिलसिला बनाया जाए जिससे मुहर्रम में लोगों को घर पर रोटी ना बनानी पड़े और ज्यादा से ज्यादा समय अजादारी में दे सकें। इसी लिए तबर्रुक के रूप में रोटी बांटना शुरू किया गया। शुरुआत में तो सभी लोग अपने अपने घरों से गेहूं लेकर अजाखाना पुख्ता बंगला कुंचाते थे। जहां अनाज को जमा किया जाता था। उसके बाद अनाज को पिसवाकर रोटियां बनवाई जाती थीं। जिन्हें जुलुस के समापन पर तबर्रुक के रूप में बांट दिया जाता था। बनायीं गयी रोटियों की संख्या शुरुआती समय में तो बहुत कम थी। उस समय लगभग एक कुंतल आटे में काम हो जाता था। लेकिन अब अजादारों की तादाद बढ़ने पर नान लगवाए जाने लगे।
कस्बे के जहीर अब्बास बताते हैं कि अब प्रतिदिन लगभग 80 कुंतल आटा के नान बनाए जाते हैं। दोपहर से नान बनाने का सिलसिला शुरू हो जाता है। शाम को इसे इमाम हुसैन की याद में तक्सीम कर दिया जाता है। उन्होंने बताया कि इसका इंतजाम कस्बे के ही लोग मिलजुल कर करते हैं। बताया कि लोग नान खाने के बाद बीमारियों से निजात मिलने का दावा भी करते हैं। यह इमाम हुसैन व कर्बला के शहीदों में लोगों की आस्था का प्रतीक भी है।