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तीन दशक से बसपा-सपा और भाजपा के बीच चल रहा चुनावी घमासान, मायावती के लिए खास रह चुकी है ये लोकसभा सीट

बसपा का दुर्ग माना जाने वाला अंबेडकरनगर 2022 के विधानसभा चुनाव के बाद सपा का किले के तब्दील हो गया है लेकिन लोकसभा सीट पर बसपा खुद को अभेद रखने की जुगत में जुटी है। वहीं भाजपा और सपा लोकसभा सीट पर दूसरी जीत तलाशने में जुटी है। सत्ता के महासंग्राम में शिखर पर पहुंचने के लिए जनता को साधने में दलों की जोर आजमाइश तेजी से चल रही है।

By Abhishek Malviya Edited By: Shivam Yadav Published: Wed, 10 Apr 2024 10:16 PM (IST)Updated: Wed, 10 Apr 2024 10:16 PM (IST)
वर्ष 1996 के लोकसभा चुनाव से बसपा को सर्वाधिक मिला जनाधार।

अभिषेक मालवीय, अंबेडकरनगर। सत्ता के महासंग्राम में शिखर पर पहुंचने के लिए जनता को साधने में राजनीतिक दलों की जोर आजमाइश तेजी से चल रही है। बीते तीन दशकों से जनता की धुरी बसपा-सपा और भाजपा के बीच ही घूम रही है। 

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बसपा का दुर्ग माना जाने वाला अंबेडकरनगर वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव के बाद सपा का किले के तब्दील हो गया है, लेकिन लोकसभा सीट पर बसपा खुद को अभेद रखने की जुगत में जुटी है। वहीं भाजपा और सपा लोकसभा सीट पर दूसरी जीत तलाशने में जुटी है।

आजादी के बाद वर्ष 1951 में फैजाबाद पूर्व के नाम से बने लोकसभा क्षेत्र में शुरुआती दो जीत दर्ज करने वाली कांग्रेस को वर्ष 1962 में अकबरपुर सुरक्षित सीट बनने के बाद जनाधार मिला था। वर्ष 1967 में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया ने कांग्रेस की लगातार जीत के क्रम को तोड़ा था। 

वर्ष 1971 के चुनाव में कांग्रेस ने यहां रामजी राम के रूप में दोबारा वापसी की, लेकिन वर्ष 1977 और 1980 में जनता पार्टी व जनता पार्टी (सेक्युलर) की तरफ जनता का रुझान चला गया। वर्ष 1984 में कांग्रेस को यहां अंतिम बार जीत मिली थी। राम प्यारे सुमन कांग्रेस से यहां आखिरी सांसद चुने गए थे। 

इसके बाद हुए दो चुनाव वर्ष 1989 व 1991 में जनता दल से राम अवध सांसद चुने गए। 90 का दशक शुरू होने के बाद यहां का राजनीतिक समीकरण बदल गया। वर्ष 1995 में प्रदेश की तत्कालीन बसपा सरकार ने अंबेडकरनगर जिले का गठन कर जनता को अपनी ओर मोड़ लिया। यहां से बसपा का दौर शुरू हुआ जो वर्ष 1996 से 2004 तक लगातार चलता रहा। इस बीच भाजपा और सपा यहां प्रतिद्वंद्वी के रूप में ही दिखी। 

वर्ष 2004 में बसपा की मायावती यहां से सांसद चुनी गई थी, इससे पूर्व भी दो बार जनता ने उन्हें सांसद बनाया था, लेकिन उन्होंने अपना कार्यकाल किसी भी बार पूरा नहीं किया। इसी का खामियाजा वर्ष 2004 में हुए उपचुनाव में बसपा को झेलना पड़ा था। वर्ष 2004 के आम चुनाव में उपविजेता रहे सपा प्रत्याशी शंखलाल माझी ने उपचुनाव में जीत दर्ज कर पहली बार सीट पार्टी की झोली में दिया था। 

हालांकि, उसके बाद वर्ष 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में पुन: बसपा ने वापसी की। बसपा के राकेश पांडेय ने 22 हजार से अधिक मतों से सपा प्रत्याशी शंखलाल माझी को चुनाव हराया था। इस चुनाव में भाजपा प्रत्याशी विनय कटियार दो लाख 26 हजार मतों के साथ तीसरे स्थान पर रहे। वर्ष 2014 में मोदी लहर के बीच संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में जनता का रुख बदल गया। पहली बार लोकसभा चुनाव में भाजपा को जीत मिली थी। 

भाजपा प्रत्याशी डाॅ. हरिओम पांडेय ने 4,32,104 मत प्राप्त किए थे। बसपा के राकेश पांडेय 2,92,675 दूसरे और सपा के राममूर्ति वर्मा 2,34,467 मतों के साथ तीसरे स्थान पर थे। वर्ष 2019 में बसपा ने सपा के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ा। 

बसपा के पूर्व सांसद राकेश पांडेय ने अपने पुत्र रितेश पांडेय को गठबंधन से प्रत्याशी बनाया। पहली बार सपा समर्थन के साथ चुनावी मैदान में उतरी बसपा प्रत्याशी को 5,64,118 मत मिले थे। यह अब तक के लोकसभा चुनावों का सर्वाधिक मत भी है। 

वहीं भाजपा के मुकुट बिहारी 4,68,238 मतों के साथ उपविजेता थे। इस बार चुनावी रण में सपा-बसपा और भाजपा के प्रत्याशी ताल ठोक रहे हैं। सपा कांग्रेस के साथ गठबंधन में है, जबकि भाजपा और बसपा अपने दम पर चुनाव लड़ रही है। 

खास बात यह भी है कि भाजपा और सपा के घोषित प्रत्याशी पूर्व में बसपा की सवारी कर चुके हैं। अब जनता का रुख किस ओर है यह तो आने वाली चार जून की तारीख तय करेगी।


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