रमजान मुबारक : अब नहीं निकलती सहरी जगाने वालों की टोली
हाईटेक इंतजामों के बीच अब पुरानी परंपरा गुम हो गई है। रमजान के महीने में पहले सहरी जगाने वालों की टोली निकलती थी। लोगों को उठाने के लिए दरवाजे पीटे जाते थे। और ढोल-तासे बजते थे।
प्रयागराज, जेएनएन। एक वक्त था जब रमजान मुबारक पर सहरी जगाने वालों की खास अहमियत थी। आधी रात से ही ढोल, ताशे, नगाड़े यहां तक की कनस्तर पीट सहरी जगाने का सिलसिला शुरू हो जाता था।
कोई दरवाजा पीटता था तो कोई आवाज लगाकर रोजेदारों को जगाता था
सहरी जगाने वाले शख्स का खास अंदाज होता था। कोई दरवाजा पीटता था तो कोई आवाज लगाकर गहरी नींद में सोए रोजेदार को जगाता था। इस पुरानी परंपरा पर अब हाईटेक इंतजामों का चश्मा चढ़ गया है। मोबाइल के इस दौर में सहरी जगाने का काम हाईटेक हो चला है। अलार्म तो बजता ही है, लोग एक दूसरे को मोबाइल से कॉल कर सहरी के लिए उठा देते हैं। कहीं कव्वाली बजने लगती है तो कहीं आटोमेटिक टीवी ऑन हो जाता है। मुहल्ले के बुजुर्ग, सहरी जगाने वालों की पहचान मिटती सी जा रही है।
उठो रोजेदारों अजान होने वाली है, जैसी आवाज सुनने को कम मिलती है
उठो रोजेदारों, अल्लाह के प्यारों, वक्ते सहरी हो गया है। मोमिनों सहरी खाओ, अजान होने वाली है, सरीखी गूंज अब कम ही सुनने को मिलती है। गली-मोहल्लों में सहरी जगाने वालों की टोली अब दिखाई नहीं देती। रमजान की अहमियत, फजीलत को बयान करते सूफियाना अंदाज में सहरी जगाने वाले अब गायब से हो गए हैं। इसी तरह नगमें और नातें पढ़ते हुए मुहल्ले-मुहल्ले जाने वाले अब महज यादों में ही रह गए हैं।
अब सहरी के लिए उठना आसान हो गया है
करेली के रहने वाले मो. इकराम का कहना है कि लाउडस्पीकर, अलार्म, मोबाइल, के माध्यम से सहरी के लिए उठना आसान हो गया है। पहले सहरी जगाने वाले काफिले गली मुहल्लों में जाकर लोगों को उठाते थे। इसमें शामिल लोग शुरुआत के 15 दिनों में रमजान की फजीलत और बाद में विदाई के नगमे पढ़ते थे। एक दौर ऐसा भी था जब ढोल नगाड़ों को बजाया जाता था। अब यह रवायत पूरी तरह खत्म होती जा रही है।
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