ब्रितानिया हुकूमत के खिलाफ बिगुल था दधिकांदो मेला
जागरण संवाददाता, इलाहाबाद : चंद दिनों बाद शहर में दधिकांदो मेला की रौनक होगी। राजसी वेशभूषा में सजे हाथी रखे चांदी के हौदे पर आसीन श्रीकृष्ण-बलदाऊ के दिव्य दर्शन करने जनता-जनार्दन का सैलाब सड़कों पर होगा।
जागरण संवाददाता, इलाहाबाद : चंद दिनों बाद शहर में दधिकांदो मेला की रौनक होगी। राजसी वेशभूषा में सजे हाथी पर रखे चांदी के हौदे पर आसीन श्रीकृष्ण-बलदाऊ के दिव्य स्वरूप का दर्शन करने जनता-जनार्दन का सैलाब सड़कों पर होगा। कम लोग ही जानते हैं कि दधिकांदो मेला की शुरुआत अंग्रेजी हुकूमत के प्रतिरोध में हुई। महाराष्ट्र में गणेश पूजा की तर्ज पर प्रयाग में आम जनमानस को एकजुट करने के लिए श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के बाद उनकी छठी से दधिकांदो मेला शुरू हो जाता है।
प्रयाग में दधिकांदो की शुरुआत 1890 में तीर्थपुरोहित रामकैलाश पाठक, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी विजय चंद्र, सुमित्रा देवी द्वारा की गई। मकसद था आम जनमानस को आजादी की लड़ाई के प्रति प्रेरित करके उनके अंदर से अंग्रेजों का भय खत्म करना। उचित संसाधन के अभाव में तब मशाल व लालटेन की रोशनी में श्रीकृष्ण-बलदाऊ की सवारी निकाली जाती थी। तब भगवान हाथी पर सवार होकर नहीं, किसी भक्त के कंधे पर बैठकर निकलते थे। भक्त बारी-बारी से श्रीकृष्ण-बलदाऊ को अपने कंधे पर बैठाकर चलते थे। पीछे जयकारा लगाते हुए भक्तों का कारवां होता था। कीडगंज दधिकांदो मेला कमेटी के संरक्षक पार्षद गणेश केसरवानी बताते हैं कि दधिकांदो का अर्थ है दही क्रीड़ा। जो जन्माष्टमी के बाद श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं पर आधारित होता है। बताते हैं कि अंग्रेजी हुकूमत के विरोध में हमारे पूर्वजों ने लोगों को आजादी की लड़ाई के प्रति प्रेरित करने के लिए इसकी शुरुआत की। यही कारण है कि यह शहर के सिर्फ कैंट क्षेत्र में आने वाले मुहल्लों सलोरी, तेलियरगंज, सुलेम सरांय व कीडगंज में दधिकांदो मेला होता है, क्योंकि यहां अंग्रेजों का पूरी तरह से कब्जा था। ऐसे में इक्का-दुक्का लोग कोई आयोजन नहीं कर सकते थे, जिसके चलते आम जनमानस को संगठित करने के लिए यह पहल हुई। धीरे-धीरे इसमें लोगों की संख्या बढ़ने लगी, इसका संदेश दूर तक गया, जिससे लोगों में अंग्रेजों के प्रति व्याप्त भय खत्म होकर रोष में बदल गया। सलोरी दधिकांदो मेला कमेटी के अध्यक्ष राकेश शुक्ल 'कंचन' बताते हैं कि 1922 व 27 में अंग्रेजों ने दधिकांदो मेला पर पाबंदी लगाई थी। बावजूद इसके लोग नहीं माने और उन्होंने अपनी परंपरा जारी रखी।
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समय के साथ बढ़ी रंगत
दधिकांदो मेला की रौनक समय के साथ बदलती गई। आजादी से पहले उसमें बमुश्किल सौ-दो सौ लोगों की भीड़ जुटती थी। आज हजारों का जमघट होता है। लालटेन के बाद गैस की रोशनी में कृष्ण-बलदाऊ की सवारी निकलने लगी। 60 के दशक में विद्युत की सजावट होने लगी। मेला को भव्य स्वरूप देने के लिए श्रीकृष्ण-बलदाऊ की सवारी कंधे के बजाय हाथी से निकलने लगी। जबकि 70-80 के दशक में चांदी के हौदे में बैठाकर भगवान की सवारी निकालने का दौर शुरू हुआ।
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आंकड़े
- 1890 में प्रयाग में दधिकांदो की हुई शुरुआत
- 1922 व 27 में अंग्रेजों ने दधिकांदो मेला पर लगाई थी पाबंदी