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कान्हा के ब्रज में देवी की महिमा

अलीगढ़ : यह ब्रज है। यहा की लीला अपार है। भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं लीलाएं रचीं। ऐसी जिसकी खुशब

By JagranEdited By: Published: Wed, 21 Mar 2018 09:10 AM (IST)Updated: Wed, 21 Mar 2018 09:10 AM (IST)
कान्हा के ब्रज में देवी की महिमा
कान्हा के ब्रज में देवी की महिमा

अलीगढ़ : यह ब्रज है। यहा की लीला अपार है। भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं लीलाएं रचीं। ऐसी जिसकी खुशबू आज तक चहूं ओर बिखरी हुई है। यहा यमुना है, तो गंगा भी दूर नहीं। तभी तो देश में इस क्षेत्र का अलग महत्व है। पर, कान्हा के ब्रज में देवी की महिमा भी निराली ही है। अलीगढ़ के नौरंगाबाद स्थित नौदेवी मंदिर की अलग पहचान है। यहा से करीब साठ किलोमीटर दूर बुलंदशहर के अहार क्षेत्र से कृष्ण का जुड़ाव रहा। 30 किमी दूर हाथरस, 70 किमी मथुरा, 61 किमी कासगंज, 85 किमी आगरा, करीब सवा सौ किमी दूर फीरोजाबाद के प्राचीन देवी मंदिरों के प्रति लोगों की आस्था देखते बनती है। यही वजह है कि पूरे साल कृष्ण की भक्ति में डूबे इस क्षेत्र में नवरात्र के समय देवी के जयकारे गूंजते है। कहीं जात होती है तो कहीं मेला, जिसकी तैयारी हो चुकी है।

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अलीगढ़ में एक ही स्थान पर नौ देवी : नौ देवियों के एक साथ दर्शन करने हों तो अलीगढ़ के नौरंगाबाद जीटी रोड स्थित मंदिर आइए। करीब तीन एकड़ में बने इस मंदिर की ख्याति दूर तक है, जिसमें मा दुर्गा के नौ स्वरूप विराजमान हैं। मंदिर का इतिहास 115 साल पुराना है। मंदिर की व्यवस्थाएं श्री पंचायती उदासीन नया अखाड़ा कनखल (हरिद्वार) संभालता है। पहले महंत बाबा ब्रह्मादास महाराज थे, जिन्होंने मंदिर में ही समाधि ली थी। इनके शिष्य इंदरदास महाराज दुर्गा जी के परम भक्त थे। वे माता की भक्ति में इतने लीन हुए कि 12 साल तक अन्न भी ग्रहण नहीं किया। तपस्या से प्रसन्न देवी मा ने सपने में नौ ज्योति के रूप में दर्शन दिए। इसके बाद इंदरदास महाराज ने मंदिर में नौ देवियों की स्थापना की। नवमी के दिन मंदिर के आसपास मेला लगता है। यहा माता की पूजा कच्चे नारियल की बलि चढ़ाकर की जाती है। माता के दर पर आने वाला हर भक्त कच्चे नारियल को मंदिर में तोड़ता है और उसे माता को अर्पित करता है। इसी अर्पित किए गए नारियल का एक भाग प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है।

हाथरस में मा पार्वती ने किया था विश्राम : हाथरस का नामकरण हाथुरसी देवी मंदिर से हुआ। नवदंपती इसी मंदिर से अपने जीवन की नई शुरूआत करते हैं। द्वापरयुग में जब मथुरा में भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार लिया तो उनके दर्शन के लिए हिमालय से भोलेनाथ मा पार्वती के साथ आए। रात होने के कारण यहा पर ठहरे। पार्वती को प्यास लगी तो भोलेनाथ ने हाथ से जमीन खोदकर पानी निकाला। बस इसी से इस बस्ती का नाम हाथरस पड़ गया। इस स्थान पर 1857 में मंदिर का निर्माण राजा दयाराम ने कराया। मंदिर में विराजमान देवी प्रतिमा को मा पार्वती का रूप माना जाता है। मंदिर पर अष्टमी व नवमी को मेला लगता है।

बौहरे वाली देवी मंदिर पर आस्था व श्रद्धा का संगम: श्रद्धा और आस्था का संगम देखना है तो हाथरस के मुरसान गेट स्थित बौहरे वाली देवी मंदिर आइए। यहा हर रोज श्रद्धालु की भीड़ रहती है। नवरात्र में तो नौ दिनों तक मेला लगता है। अष्टमी को शहर भर से भक्त डंडौती परिक्त्रमा या फिर हाथों में दीपक लिए हुए मा के दरबार में पहुंचते हैं। यह दृश्य देखते बनता है। ब्रज की द्वार देहरी माने जाने वाले इस शहर का यह प्रमुख देवी मंदिर है। करीब ढाई सौ साल पहले मथुरा के बल्देव क्षेत्र स्थित नगला हीरा के रहने वाले बौहरे टीकाराम ने बाग के लिए जमीन खरीदी और मंदिर का निर्माण कराया। घीरे-घीरे यह मंदिर बौहरे वाली देवी के नाम से प्रसिद्ध हो गया।

आगरा के मंदिर में अब पेठे की बलि : आगरा के नूरी दरवाजा स्थित श्री कालिकायल, कालीबाड़ी मंदिर करीब 200 साल पूर्व बंगाल से आए द्वारिका नाथ ब्रह्मंचारी और भंट्टाचार्य परिवार ने बनवाया था। काली की महिसासुर मर्दन करती प्रतिमा को बंगाल से लाकर स्थापित किया गया था। नवरात्र के अलावा दीपावली पर यहा विशेष पूजा की जाती है, जिसमें शामिल होने के लिए आसपास के शहरों में बसे बंगाली समाज के लोग यहा आते हैं। पहले बंगाल की तरह माता की प्रतिमा के समाने बलि देने की परंपरा थी, लेकिन अब यहा बलि पर प्रतिबंध लगा दिया है और अब प्रतीकात्मक रूप से पेठे की बलि दी जाती है।

मथुरा की नरी सेमरी में देवी मैया की लट्ठों से होती है पूजा: मथुरा जिले की छाता तहसील के नरी सेमरी गाव में स्थित मा के दरबार से कई चमत्कार जुड़े हुए हैं। शायद यह अपने आप में अकेली ऐसी देवी है, जिसकी भक्त लाठियों से पीटकर पूजा करते हैं और मा इसी से खुश होकर उनका कल्याण करती है। यही नहीं नवरात्रि में होने वाली महाआरती में दीपक की लौ कपड़े को पार करती है, मगर कपड़ा नहीं जलता। नवरात्रि के चलते यहा 17 मार्च से मेला शुरू होगा। 25 मार्च को रामनवमी पर आसपास के लोग घोड़ों पर सवार होकर देवी मा के मठ पर लाठिया पीट-पीटकर देवी मा की पूजा अर्चना की सैकड़ों साल पुरानी परंपरा निभाएंगे।

कृष्ण को पाने के लिए गोपियों ने की थी देवी की आराधना: वृंदावन स्थित मा कात्यायनी पीठ भारतवर्ष की उन अज्ञात 108 एवं ज्ञात 51 पीठों में से एक सिद्धपीठ है। मान्यता है कि द्वापर में ब्रज गोपियों ने मा कात्यायनी की बालू से प्रतिमा बनाकर एक महीने व्रत रखा और भगवान श्रीकृष्ण को अपने पति रूप में पाने की कामना की। गोपियों की पूजा से प्रसन्न होकर मा कात्यायनी ने उन्हें वरदान दिया। मगर, श्रीकृष्ण एक थे और गोपिया अनेक। ऐसे में ब्रह्माजी द्वारा जब श्रीकृष्ण की परीक्षा लेने को ब्रज के गोप और गोवंश का हरण कर लिया गया। तब भगवान श्रीकृष्ण गोपियों के साथ उनके पति रूप में घर में रहे। इस तरह मा कात्यायनी का वरदान पूरा हुआ। सुयोग्य वर प्राप्ती के लिए यहा मन्नत की जाती है।

यहा रूक्मणी के हुए कृष्ण: ब लंदशहर के जहागीराबाद क्षेत्र में गंगा किनारे मा अवंतिका देवी का मंदिर है। किवदंती है कि द्वापर युग में मौजूदा अहार कुंदनपुर शहर कहलाता था। यहा राजा भीष्मक की राजधानी थी। राजा भीष्मक की पुत्री रूक्मणी प्रति दिन सुरंग द्वारा कुंदनपुर से मा अवंतिका देवी मंदिर जाती थी। उसने भगवान श्रीकृष्ण को वर के रूप में पाने की मन्नत की थी, लेकिन राजा भीष्मक के पुत्र रूक्मण ने रूक्मणी की शादी शिशुपाल से तय कर दी थी। रूक्मणी ने मंदिर में जाकर भगवान श्रीकृष्ण को याद किया था। तब भगवान श्रीकृष्ण आए और रूक्मणी को अपनी अद्र्धाग्निी बनाया। यहा का कुंड रुकमणी के नाम से प्रसिद्ध है। गुफा बंद हो चुकी है। वर्ष में दो बार यहा मेला लगता है।

पीपल की जड़ से निकली मा चामुंडा : कासगंज के मध्य हाईवे स्थित मा चामुंडा मंदिर करीब पाच सौ साल पुराना है। इसे शहर के लोग कुलदेवी मानते हैं। बच्चे के जन्म से लेकर सारे संस्कार मंदिर परिसर में कराए जाते हैं। बताया जाता है कि एक विशालकाय पीपल वृक्ष की जड़ से मा की मूर्ति निकली थी। पेड़ के पास ही मंदिर बनवा दिया गया, जिसमें मूर्ति की स्थापना की गई। पहले यह मंदिर तरोरा वाली चामुंडा माता के नाम से प्रख्यात था। अब चामुंडा मंदिर के नाम से पहचान हो गई है।

फीरोजाबाद में मा वैष्णो देवी का मंदिर: फीरोजाबाद में आगरा-फीरोजाबाद हाईवे पर उसायनी के निकट मा वैष्णो देवी मंदिर जम्मू स्थित वैष्णो देवी मंदिर की याद दिलाता है। वहा की तरह यहा भी गुफा है। देवी की प्रतिमा पिंडी के आकार में है। गुफा में होकर श्रद्धालु मंदिर में पहुंचते हैं। इस मंदिर की आधारशिला 2004 में रखी गई। 2010 में जम्मू स्थित मा वैष्णो देवी के दरबार से अखंड ज्योति लाई गई। प्रवेश द्वार पर देवी के अतिरिक्त भैंरों बाबा का मंदिर है। नवरात्र में यहा पर सुबह सवेरे से ही भक्तों का सैलाब उमड़ता है।


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