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यहां कैंपस के अंदर सवाल उठते हैं कि ये छात्र राजनीति है या सिर्फ 'फोटो नीति', जानिए क्या है मामला Aligarh news

छात्र जीवन में छात्र राजनीति करना गलत नहीं है। मगर राज करने की नीति अपनाना भी अच्छी बात नहीं है। जब दिमाग में अपना संगठन बनाकर किसी संस्थान पर राज करने की नीति बनाई जाए तो उसके स्वस्थ परिणाम नहीं होते हैं।

By Anil KushwahaEdited By: Published: Sat, 23 Oct 2021 10:53 AM (IST)Updated: Sat, 23 Oct 2021 10:54 AM (IST)
किसी मांग को लेकर जिम्मेदार का पुतला फूंक देना, बाद में उसी जिम्मेदार को ज्ञापन सौंपना, समझ से परे है।

गौरव दुबे, अलीगढ़ । छात्र जीवन में छात्र राजनीति करना गलत नहीं है। मगर 'राज' करने की 'नीति' अपनाना भी अच्छी बात नहीं है। जब दिमाग में अपना संगठन बनाकर किसी संस्थान पर राज करने की नीति बनाई जाए तो उसके स्वस्थ परिणाम नहीं होते हैं। अपनी मांगों को लेकर अक्सर छात्रनेता प्रदर्शन करते हैं। मगर, प्रदर्शन से पहले अपनी मांग संयमित तरीके से जिम्मेदारों के समक्ष भी रखनी चाहिए। सुनवाई न हो तो प्रदर्शन करना भी गलत नहीं है। मगर, किसी मांग को लेकर सीधे जिम्मेदार का पुतला फूंक देना और बाद में उसी जिम्मेदार को ज्ञापन सौंपना, समझ से परे है। ऐसे में वो जिम्मेदार भी हैरानी में पड़ जाते हैं कि पहले तो उनके पास इस समस्या को लेकर कोई आया ही नहीं। इससे कैंपस के बाहर तो हंगामा बरपा सकते हैं। लेकिन, कैंपस के अंदर सवाल भी उठते हैं कि ये छात्र राजनीति है या सिर्फ 'फोटो नीति' ही है।

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समरथ को नहीं दोस गुसाईं

तुलसीदास जी की चौपाई है कि 'समरथ को नहीं दोस गुसाईं'। सबल व सामर्थ्‍यवान पर कोई दोष नहीं लगता है। यह चौपाई शिक्षा का 'बेस' माने जाने वाले विभाग के कैंपस में चरितार्थ हो रही है। तमाम अनियमितताएं करने वाले अपने अधीनस्थ का दोष उच्चाधिकारियों को नहीं दिख रहा है। राष्ट्र का निर्माण करने वाले इन दोषों को साक्ष्य के साथ निगाह में ला भी रहे हैं तो अफसरों के कानों में जूं नहीं रेंग रही। एक ही गलती पर सेङ्क्षटग वालों को बख्श दिया और बिना सेङ्क्षटग वालों पर कार्रवाई हो गई। सेङ्क्षटग-गेङ्क्षटग के खेल में बिसात इतनी तगड़ी है कि कोई बाहरी व्यक्ति चक्रव्यूह में घुस नहीं पा रहा है। चक्रव्यूह को तोडऩे की जहमत कौन उठाएगा? कोई आएगा भी तो परिणाम अभिमन्यु वाला ही होगा। अगर नंबर एक व दो पायदान पर बैठे और अफसर गलत चीजों को अंजाम देंगे तो पीडि़तों की सुनने वाला कौन होगा।

मान-सम्मान सभी का बराबर है

शिक्षा का 'केंद्र' माने जाने वाले कैंपस में इन दिनों मान-सम्मान की लड़ाई में पक्ष-विपक्ष की त्योरियां चढ़ी हैं। कैंपस में 'रिलेशन' मजबूत करने की भूमिका निभाने वाले 'रिलेशनशिप' का ही महत्व नहीं जान पा रहे हैं। कुछ बड़े ब्रांडों के साथ संबंध रखने के फेर में लोकल व स्थानीय ब्रांडों की अनदेखी में उनका अपमान तक कर बैठे। स्थानीय व लोकल ब्रांड के मुखियाओं ने इस प्रकरण की शिकायत कैंपस के आला हुक्मरान से कर दी। मुखियाओं की 'पीर' ज्यादा बढ़ी तो मांग उठा दी कि 'रिलेशन' का महत्व न जानने वालों को तत्काल प्रभाव से हटाएं। हुक्मरान ने भी तत्परता से संज्ञान लेते हुए जांच बैठा दी है। अब मुखियाओं की पीर ज्यादा बढ़ाने वाले परेशान हो गए हैं। सोच रहे हैं कि अभी उनकी तैनाती पर पक्की मुहर भी नहीं लगी, कहीं इस प्रकरण में उनको चलता न कर दिया जाए। देखते हैं ऊंट किस करवट बैठेगा।

जागरूकता के साथ पढ़ाई भी जरूरी

बेसिक शिक्षा हो या माध्यमिक शिक्षा, हर कहीं इस समय विद्यार्थी व शिक्षक मतदाता जागरूकता कार्यक्रम में व्यस्त हैं। विद्यार्थी रंगोली, रैली, निबंध लेखन, नुक्कड़ नाटक आदि तमाम प्रतियोगिताओं में व्यस्त हैं। वहीं, शिक्षक भी इन व्यवस्थाओं को बनाने में विद्यार्थियों के साथ जुटे हैं। इन सबके बीच कुछ प्रधानाचार्यों व प्रधानाध्यापकों का यह भी कहना है कि मतदाता जागरूकता कार्यक्रम की फेहरिस्त इतनी लंबी है कि पढ़ाई चौपट हो रही है। मगर, शासन-प्रशासन के फरमान हैं और प्रधानाचार्य सरकारी मुलाजिम हैं, इसलिए खुलकर बोल भी नहीं पा रहे हैैं। सच्चाई ये है कि कोरोना काल में प्रभावित हुई पढ़ाई के मामले में विद्यार्थी तो पटरी पर आ गए हैं। लेकिन, शिक्षा अभी भी बेपटरी ही है। नवंबर में अद्र्धवार्षिक परीक्षाएं होनी हैं। उसका कोर्स पूरा कराना भी चुनौती से कम नहीं है। ऐसे में शासन-प्रशासन को सोचना चाहिए कि विद्यार्थियों व शिक्षकों को पढ़ाई के लिए भरपूर समय मिले।


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