मां! तेरी याद आए तो तू ही रास्ता दिखाए Aligarh News
प्यार से कांधे से लगाया। पूछा बेटा कहां से आया है। तेरी मां कहा हैै। वो तो तेरी याद में सोती न होगी फूट-फूटकर रोती होगी। बस यही शब्द तो सुने थे मंजुल ने।
राजनारायण सिंह, अलीगढ़ : प्यार से कांधे से लगाया। पूछा, बेटा कहां से आया है। तेरी मां कहा हैै। वो तो तेरी याद में सोती न होगी, फूट-फूटकर रोती होगी। बस, यही शब्द तो सुने थे मंजुल ने। वह ऐसा रोया कि एक घंटे बाद ही चुप कराया जा सकता। फिर सब कुछ बता दिया कि कहां से आया है। यही तो मां का प्यार था, जो एक भटका हुआ बेटा राह की ओर जाने लगा। सड़क, रेलवे स्टेशन या फिर बस स्टैंड जहां भी ऐसे बच्चे दिख जाते हैं एक मां उन्हें अपने आंचल का दुलार उड़ेल देती हैं। कुछ बच्चे तो नशे के शिकार होते हैं, तो कुछ घर से रूठकर चले आते हैं। यह मां हैैं बॉबी, जो अब तक 120 बच्चों को अपने घर पहुंचा चुकी हैं। ममता की प्रतिमूर्ति बॉबी को तो इसीलिए 'मांÓ का नाम मिल गया है। नवरात्र के पहले दिन ऐसी देवी को कौन नमन करना नहीं चाहेगा? आइए, बॉबी कैसे ममत्व का सागर बन गई, सुनते हैं उनकी जुबानी....
गुस्से में आ गया था सात साल का बच्चा
मैं गंभीरपुरा गली नंबर पांच की रहने वाली हूं। मेरी शादी 22 साल पहले धर्मेश कुमार से हुई। वह प्राइवेट नौकरी करते हैं। जब शादी हुई तो मैं आठवीं क्लास तक पढ़ी थी। मगर, अंदर कुछ करने की ललक हमेशा से रहती थी। वर्ष 2011 की बात है। मैं मंदिर गई हुई थी, वहां सात साल का बच्चा रोता हुआ दिखाई दिया, जिसके बारे में मालूम हुआ कि वो कन्नौज से घर से गुस्से में चला आया। मेरे सामने समस्या आई कि उसे कहां लेकर जाऊं। फिर, पता चला कि उड़ान सोसायटी के डॉ. ज्ञानेंद्र मिश्रा ऐसे बच्चों को घर पहुंचाते हैं। उनकी मदद से बच्चा घर पहुंच गया। फिर, मेरे मन में विचार आया कि जब मैं एक बच्चे को उसके माता-पिता से मिलवा सकती हूं, फिर अन्य बच्चों को क्यों नहीं? मैं उड़ान सोसायटी से जुड़ गई।
बेटे से आए अधिक माक्र्स
डॉ. ज्ञानेंद्र ने मेरा हौसला बढ़ाया। कहा, आगे बढऩे के लिए पढ़ाई की भी बहुत जरूरी है। 2015 में बड़े बेटे पंकज के साथ हाईस्कूल किया। मैं बेटे से अधिक माक्र्स लेकर आई। मेरे 73 फीसद माक्र्स थे। इस साल मैं 12वीं कर रही हूं। इसी के साथ मैं रेलवे स्टेशन, रोडवेज बस अड्डा, चौराहा आदि स्थानों पर जाने लगी। उड़ान सोसायटी के माध्यम से मेरी पहचान बनी कि मैं गुम हुए बच्चों की मदद करती हूं। इससे मेरे पास लोगों के फोन आने लगे। बिहार, उड़ीसा, कोलकाता आदि प्रांतों से गुम हुए बच्चों की सूचना आने लगी। कुछ बच्चे तो नशे की गिरफ्त में होते थे। इन्हें संभाल पाना बहुत मुश्किल होता है। बाल समिति के सामने इन बच्चों को पेश कराकर बालगृह और नारी निकेतन भिजवाती हूं। वहां इलाज होने के बाद उन्हें उनके परिवार के पास भिजवाया जाता है। मानसिक रूप से पीडि़त कुछ बच्चे होते हैं, उनका पता ढूंढना तो बहुत मुश्किल हो जाता है।
सौ से अधिक बच्चों को परिजनों से मिलवाया
सोशल मीडिया की मदद से उनके परिजनों तक पहुंचने की कोशिश की जाती है। बच्चों के परिजनों तक पहुंचने के लिए चाइल्ड लाइन की मदद भी लेती हूं। क्योंकि इनका नेटवर्क हर जगह है। आठ से दस साल के बच्चे तो कई बार मारपीट कर देते हैं, मगर मैं उनकी पीड़ा को अच्छे से जानती हूं। इसलिए उनसे कुछ नहीं बोलतीं। इन आठ वर्षों में करीब 100 से अधिक बच्चों को उनके माता-पिता से मिलवा चूंकि हूं। साथ ही बस्तियों में जागरूक भी करती हूं। क्योंकि ऐसे स्थानों पर बच्चों को गुमराह करके बच्चों से भीख आदि मंगवाने के लिए ले जाते हैं। बॉबी का कहना है कि बस, बच्चों को घर पहुंचाकर मुझे संतुष्टि मिलती है, यही मेरे लिए सबसे बड़ा पुरस्कार है। अन्य किसी पुरस्कार की आकांक्षा नहीं रहती।