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जहर की शीशी लेकर रावलपिंडी से चले थे पिताजी

जागरण संवाददाता, अलीगढ़ : जिंदगी के उस खौफनाक मंजर को याद कर 70 साल बाद भी सरदार अमरजीत सिंह सिहर

By JagranEdited By: Published: Tue, 20 Jun 2017 02:11 AM (IST)Updated: Tue, 20 Jun 2017 02:11 AM (IST)
जहर की शीशी लेकर रावलपिंडी से चले थे पिताजी
जहर की शीशी लेकर रावलपिंडी से चले थे पिताजी

जागरण संवाददाता, अलीगढ़ : जिंदगी के उस खौफनाक मंजर को याद कर 70 साल बाद भी सरदार अमरजीत सिंह सिहर उठते हैं। विश्व शरणार्थी दिवस की पूर्व संध्या पर सोमवार को उनका दर्द एकबार फिर छलक आया। उन्होंने बताया कि भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के समय वह नौ साल की उम्र में अपने पिता के साथ रावलपिंडी से भागे थे। हर तरफ लाशें नजर आ रही थीं। भूखे-प्यासे सब बदहवास नजर आ रहे थे। पिताजी साथ में जहर की शीशी लेकर आए थे। दशहतगर्दी यदि कुछ करते उससे पहले वह जहर हम लोगों के गले उतार देते। क्योंकि उस समय महिलाओं की इज्जत भी बच पाना मुश्किल था।

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रामघाट रोड स्थित अवंतिका फेस-1 निवासी अमरजीत (79) ने बताया कि पिता सरदार वजीर सिंह आजादी से पहले स्यालकोट में नौकरी करते थे। अंग्रेजों ने देश आजाद होने की घोषणा की तभी से पाकिस्तान के हालात ठीक नहीं थे। 1947 में आजादी की घोषणा हुई तो वहां के हालात और बिगड़ गए। पिताजी के गहरे मित्र खान बहादुर थे। वह मुस्लिम थे, मगर मेरे परिवार के लिए जान लुटा देने से पीछे नहीं हटते। उन्होंने माहौल भांप लिया था। पिताजी से बोले, अब यहां आप लोगों लिए सुरक्षित रहना मुश्किल है। भारत जाओ। मेरे पांच भाई, तीन बहन व पिताजी के भाई भरा-पूरा परिवार था। पिताजी की आंखों से आंसू आ गए। खान बहादुर को झकझोर हुए बोले, खान तू ही बता अपनी माटी छोड़कर कैसे चला जाऊं? कोठी, खेती-बाड़ी, रिश्तेदारी व तेरा प्यार क्या ऐसे ही छूट जाता है। खान बहादुर अंदर से खंजर उठा लाए। बोलं, यदि वजीर सिंह तू यहां से नहीं गया तो मैं अपने को खत्म कर लूंगा। पिताजी व खान बहादुर दोनों गले लिपट कर खूब रोए। एक ट्रक में मेरा पूरा परिवार लद गया। सबकुछ छोड़ दिया था, बस जरूरत का सामान लिया था। ट्रक जब वाघा बार्डर की तरफ बढ़ा तो हर तरफ लाशें ही लाशें नजर आ रही थीं। पूरा परिवार सहमा हुआ था। हम लोगों के साथ खान बहादुर थे। नौकर चांद मिया भी था। वह बंदूक लिए सामने बैठा था। पिताजी ने उससे नीचे छिपने के लिए कहा तो बोला पहली गोली मेरे सीने में लगेगी। आप लोगों पर कोई आंच नहीं आने दूंगा। जैसे-तैसे हम लोग बार्डर पहुंचे। बाद में पिताजी को लुधियाना में जेल सुपरीटेंड की नौकरी मिल गई। मैं वर्ष 1956 में एएमयू में पढ़ने आ गया। सच, यहां लोगों का इतना प्यार मिला कि फिर मैं यहीं आ होकर रह गया।

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श्याम नगर के अमरनाथ गांधी (81) भी बंटवारे के दिनों को याद करके कांप जाते हैं। वे उस समय 15 वर्ष के थे। पिता हंसराज गांधी के साथ पूरा परिवार अमृतसर स्थित एक शरणार्थी कैंप में रहे। उन्होंने बताया कि मेरे दादा बिछुड़ गए थे। पिताजी उन्हें ढूंढते हुए कुछ दिन बाद दूसरे कैंप में पहुंचे तो वहां उनकी तबीयत काफी खराब थी। एक दिन बाद ही उनकी मौत हो गई। पिताजी का पहले से अलीगढ़ आना-जाना था। इसलिए हम लोग अलीगढ़ के जयगंज में आकर रहने लगे। यहीं से मैंने छोटा-मोटा कारोबार शुरू किया और फिर व्यापार आगे बढ़ाया। बात काफी परानी हो गई, लेकिन भूल नहीं पाते।


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