Move to Jagran APP

Childrens Day 2018: छोटी सी उम्र में ऐसी प्रतिभाएं, पढ़ेंगे तो दांतों तले उंगली दबा लेंगे

बचपन में फलक तक नाम पहुंचाकर बाल प्रतिभाओं ने सार्थक किया है बाल दिवस का नाम।

By Prateek GuptaEdited By: Published: Wed, 14 Nov 2018 02:19 PM (IST)Updated: Wed, 14 Nov 2018 02:19 PM (IST)
Childrens Day 2018: छोटी सी उम्र में ऐसी प्रतिभाएं, पढ़ेंगे तो दांतों तले उंगली दबा लेंगे

आगरा [जेएनएन]: बेफिक्री, अल्हड़ता और नसमझी की उम्र बचपन...ये बातें बहुत से ऐसे बच्चे हैं जिनके लिए सही नहीं बैठती। ये बच्चे वो हैं जिन्होंने अपनी प्रतिभा के बूते ऊंचाई तक पहुंचने की फिक्र भी की और समझदारी से अपने हुनर को दिशा भी दी। बाल दिवस के अवसर पर जागरण सलाम करता है ऐसे ही बाल प्रतिभाओं को जिन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में किया है नाम रोशन और की हैं मिसालें कायम...

loksabha election banner

आठ वाद्य यंत्र बजा लेती छह साल की आरोही

मथुरा के एक स्कूल में पहली कक्षा में पढऩे वाली छह साल की आरोही अग्रवाल की संगीत साधना उसे विलक्षण प्रतिभा के रूप में स्थापित करती है। उन्हें संगीत की शिक्षा घर में ही विरासत में अपने दादा डॉ. राजेंद्र कृष्ण अग्रवाल से मिली। आरोही की प्रतिभा का अंदाजा, इससे लगाया जा सकता है कि उसे 2016 में डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम नेशनल अवार्ड से नवाजा गया। आरोही ने डेढ़ वर्ष की अल्पायु से ही संगीत गायन, वादन एवं नृत्य में अपनी प्रतिभा से सबका मन मोहना प्रारंभ कर दिया था। वह हारमोनियम, तबला, बोंगो, कांगो, ढोलक, की-बोर्ड, पट्टी तरंग सहित कई वाद्य-यंत्रों को अपने अंदा•ा से बजाने में निपुण है।

आरोही तीन वर्ष से कम की अवस्था में ही जब राष्ट्रगीत, राष्ट्रगान सहित संस्कृत और मराठी के स्त्रोत और वंदना जैसी ची•ों सुनकर ही गाने लगी तो आश्चर्य की सीमा नहीं रही। आरोही की स्मृति भी बहुत अच्छी है। डेढ़ साल की उम्र में ही उसे शारीरिक अंगों के कठिन से कठिन शब्दों तक की जानकारी हो गई थी। आरोही की मेधा का जिक्र करते हुए दादा डॉ. राजेंद्र कृष्ण अग्रवाल बताते हैं कि आरोही जब पैदा हुई थी तो अस्पताल में क्लासिकल संगीत को सुनकर चुप हो जाती थी। यह देख डॉक्टर्स और नर्स भी हंसे बगैर नहीं रहते थे।

आरोही नृत्य करते समय जब तरह-तरह के चेहरे पर भाव लाती है तो बरबस ही सबका मन मोह लेती है। उसका गाना, बजाना सुनने और नृत्य देखने के बाद सहज ही अंदा•ा लगाया जा सकता है कि वह भावी उम्दा कलाकार है। घर का पूरा वातावरण ही संगीत का होने के कारण जन्मजात गुण के रूप में संगीत ही मिला है। आरोही के दादा डॉ. राजेंद्र कृष्ण अग्रवाल सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ के साथ-साथ जाने माने मनीषी भी हैं। आरोही के पिता आलोक अग्रवाल और माता शिप्रा अग्रवाल दोनों ही संगीत के शिक्षक हैं।

नन्हें जय की वल्र्ड रिकार्ड यूनीवर्सिटी भी कायल

ऊपर वाला किसी-किसी को हुनर कुदरती देता है। ऐसा ही हुनर एटा के रहने वाले 11 साल के जय को भी मिला है। कई चैनलों के रियलिटी शो में डांस में धमाल मचाने वाले इस बालक के कई डांस स्टेप पर वल्र्ड रिकार्ड ऑफ यूनीवर्सिटी वियतनाम ने रिसर्च के लिए बालक को न केवल बुलाया है बल्कि रिकार्ड बनाने के लिए डाक्टरेट की उपाधि देने की घोषणा की है। लगनशील जय अन्य बच्चों के लिए प्रेरणास्रोत है। यह नन्हा बालक दक्षिण में धूम मचाने के बाद दिसंबर में सोनी चैनल पर प्रसारित होने वाले सुपर डांसर शो में भी दिखाई देगा।

एटा-कासगंज रोड स्थित ङ्क्षहदुस्तान लीवर के निकट के रहने वाले कमलेश के पुत्र जय ने छोटी सी उम्र में डांस में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है। बचपन से ही इस बालक के अंदर हुनर दिखाई दिया तो उसके परिवार वाले भी उसे सहेजने के लिए आगे आ गए। ट््यूलिप स्कूल के छात्र को उसके विद्यालय ने भी भरपूर सहयोग दिया। पिछले वर्ष जब हैदराबाद में रियलिटी डांस शो के लिए ऑडीशन हुआ तो उसका चयन कर लिया गया। इस डांस शो के बाद फिर उसे कभी पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा। जी तेलगू चैनल ने उसके साथ अनुबंध किया और आगे के जो शो हुए उनमें बिना ऑडीशन के ही वह मंच पर पहुंच गया।

इसी शो में वल्र्ड रिकार्ड ऑफ यूनीवर्सिटी की टीम भी मौजूद थी जो डांस स्टेप पर रिकार्ड देखना चाहती थी। कुछ स्टेप इस बालक ने ऐसे किए जिस पर यूनीवर्सिटी की टीम ने उसे चयनित कर लिया और घोषणा की कि बालक को रिकार्ड बनाने के लिए डाक्टरेट की उपाधि दी जाएगी। इस उपाधि को लेकर जरूरी औपचारिकताएं पूरी की जा चुकी हैं अब सिर्फ बुलावे का इंतजार है। यह एजेंसी हर साल प्रतिभावानों को विभिन्न देशों में आयोजन कर डाक्टरेट की उपाधि देती है।

यहां खामोश जुबां भी बोलती है

उनके पास न बोलने को जुबां हैं और न ही सुनने को कान। जिंदगी की राहें कठिन, लेकिन हुनर के सधे कदमों से वह आसान हो गई। खामोश जुबां भी हुनर की भाषा बोलने लगी। जिनकी आंखों से दुनिया की चमक छिन गई, उन्होंने अपनी प्रतिभा के बल पर बिना आंखों के ही दुनिया देख ली। जागरण ने आगरा जिले के मिढ़ाकुर में स्थित एक्सीलेरेटेड लर्निंग कैंप के कुछ ऐसे ही प्रतिभावान दिव्यांग बच्चों से बात की।

जो सीखा फिर नहीं भूला

ताजगंज के तुषार की उम्र 13 वर्ष है। न सुनाई देता है और न ही जुबान हैं। साइन लैंग्वेज में पढऩे वाले तुषार एक बार कुछ भी सीखते हैं तो उसे भूलते नहीं। शिक्षक भी उनकी इस प्रतिभा के कायल हैं। अंगुलियों के इशारों से अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन भी तुषार करते हैं।

गायन में पाई कामयाबी

मिढ़ाकुर के 12 वर्षीय लकी नेत्रहीन हैं। पिता सत्यवीर सोलंकी और मां भी चिंतत थे कि क्या होगा। बड़े होने पर लकी का दाखिला गांव के ही प्राथमिक स्कूल में हो गया। सरकारी स्कूल के साथ ही ब्रेल लिपि से पढ़ाई के लिए लर्निंग कैंप में दाखिला दिलाया। लकी को गाने और ढोलक बजाने में महारत हासिल है। इंग्लिश में बात करने में अंग्र्रेजी माध्यम स्कूलों के बच्चों को भी मात दे देते हैं। वह कहते हैं कि घर में जो सीखा उसे अपने जीवन में उतार लिया।

डंडे से दिखाते करतब

खेरागढ़ के कपिल तोमर भी इसी लर्निंग कैंप में पढ़ते हैं। साइन लैंग्वेज से पढऩे वाले कपिल में भी एक प्रतिभा छिपी है। वह अपने अंगुलियों में डंडा फंसाकर करतब दिखाते हैं। उनकी प्रतिभा देख बड़े-बड़े दंग रह जाते हैं।

बच्चों का बचपन लौटातीं खाकी वाली दीदी

चाचा नेहरू के जन्मदिवस पर फिर से अफसरों से लेकर समाजसेवियों को बच्चों की याद आएगी। स्कूलों में उन बच्चों के बीच चेहरे चमकाने वाले नजर आएंगे, जिनके बचपन को संवारने में उनके अभिभावक सक्षम हैं, लेकिन इन सबके बीच ऐसे भी लोग हैं जो बच्चों का बचपन लौटाने के लिए किसी दिन का इंतजार नहीं करते। चाचा नेहरू की तरह इनके दिलों में बच्चों के प्रति उमडऩे वाला प्यार किसी दिन का मोहताज नहीं है। कासगंज में सोरों गेट चौकी इंचार्ज इंदु वर्मा भी ऐसे ही लोगों में से एक हैं।

बच्चोंं के प्रति उनका प्यार ही है गरीब बच्चों सीधे उनके पास पहुंचकर मदद मांग उठते हैं। इन दिनों वह हाईस्कूल के एक छात्र की हर माह की फीस के साथ किताबों की व्यवस्था कर रही हैं। बच्चों के प्रति उनके लगाव को देख यह बच्चा खुद उनके पास आया था। परिवार की स्थिति बताते हुए कहा कि पढऩा चाहता है। साढ़े पांच साल से जिले में तैनात इंदु को मूक बधिर स्कूल के बच्चों भी खाकी वाली दीदी के नाम से जानते हैं। कोई पर्व हो या फिर त्योहार। गरीब बच्चों को उनका बचपन लौटाने के लिए वह निकल पड़ती हैं। कभी अपनी सैलरी से कपड़े खरीद कर देती हैं तो कभी और कुछ। बचपन लौटाने की उनकी यह मुहिम सालों से चल रही है। अगर किसी गांव में जाती हैं तो किसी गरीब बच्चों या जरूरतमंद को देख वह उसकी मदद के लिए तैयार हो जाती हैं।

नौकरी से पहले पढ़ाती थीं गरीब बच्चों को

इंदु नौकरी में आने से पहले भी अपने स्तर से गरीब बच्चों की मदद करती थीं। पढऩे में होशियार इंदु अलीगढ़ की रहने वाली हैं तथा उस वक्त बच्चों को घर पर ही पढ़ाया करती थीे।

खुद भी झेला है अभावों को

इंदु बताती हैं उन्होंने खुद भी जिंदगी में अभावों को झेला है। बचपन में पिता का निधन हो गया। मां ने बच्चों को पाला। बचपन अभावों में खो गया, ऐसे में अब इंदु जरूरतमंद बच्चों को बचपन लौटाने के लिए सदैव खड़ी रहती हैं, ताकि वह आगे बढ़ सकें। 


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.