अजब है ये दुनिया, सांपों का खेल, सपेरों का सुप्रीम और हाईकोर्ट भी अपना Agra News
अछनेरा के मनिया और खंदौली के डेरा सपेरा में सांपों पर ही निर्भर है परिवारों की आजीविका। बच्चे भी खेलते हैं नागों के साथ। ज्यादातर मामले निपटते पंचायत में ही।
आगरा, अजय परिहार। सावन में नाग देवता के दर्शन शुभ माने जाते हैं। इन दिनों मंदिर-मंदिर, गली-गली सपेरे नागों के दर्शन कराने के लिए घूमते मिल जाएंगे, लेकिन साल भर इन सपेरों को कम ही देखा जाता है। दरअसल, जिन सांपों को देखकर आम आदमी डंसने के भय से भयभीत हो जाता है, वही सांप इन सपेरों को आजीविका देते हैं। इन सपेरों की दुनिया सांपों के इर्द-गिर्द घूमती है।
आगरा के अछनेरा ब्लॉक में सपेरों का गांव 'मनिया व खंदौली का गांव 'डेरा सपेरा सपेरों की बस्ती है। यहां आसपास सांपों का भी बड़ी संख्या में डेरा है। सपेरों के बच्चे भी बचपन से सांपों के साथ खेलते हैं और सांप पकडऩे का हुनर सीखते हैं। डेरा सपेरा निवासी राजेन्द्र नाथ बताते हैं कि सांपों को हम बच्चों की तरह पालते हैं और जैसे बच्चों के खाने-पीने का ख्याल रखते हैं, वैसे ही सांपों का भी ध्यान रखते हैं। सपेरा रामू के अनुसार, जंगल में सांप चूहा व अन्य छोटे जीव खाकर जीते हैं और उन्हींं के बिल पर कब्जा कर रहते हैं। पकडऩे के बाद यदि सांप को उनका प्राकृतिक आहार न उपलब्ध हो पाये तो उन्हें बाजार से लाकर मीट खिलाना होता है। एक युवा सांप की खुराक करीब ढाई सौ ग्राम होती है। इन्हें पालने के लिए सपेरों को काफी मेहनत करनी पड़ती है।
उसे पकड़कर लाने के बाद प्रार्थना करते हैं। वादा करते हैं कि दो महीने बाद उन्हें छोड़ देंगे। सबसे पहले इनका जहर निकाला जाता है। हफ्तेभर के प्रशिक्षण में ही वह इशारा समझने लगते हैं।
राजेन्द्र नाथ व राजू नाथ बताते है कि हम लोग जंगल से सांपों को पकड़ कर लाते हैं और शहर में जाकर खेल दिखाकर या दरवाजे-दरवाजे जाकर लोगों से जो मांग कर लाते हैं उसी से अपने परिवार का पेट पालते हैं। अब तो सांपों को शहर में ले जाने पर भी खतरा है। वन विभाग वाले या पुलिस सांपों को पकड़ कर जंगल में छुड़वा देती है। ग्रामीण अजय नाथ का कहना है कि पहले बीन बजाकर सांपों का खेल दिखाकर आजीविका चल जाती थी लेकिन आजकल सांपों का खेल भी कोई नहीं देखता है। अब तो केवल नाथों के पास इतना ही काम रह गया है कि जब घरों में सांप या अन्य जीवजन्तु निकल आते हैं, तब लोग हमें बुला कर ले जाते है, जिसके बदले हमे पैसा और अनाज मिल जाता है।
रहस्यमयी है सांपों की दुनिया
जहरीले सांपों से खेलने वाले सपेरों की दुनिया काफी रहस्यमयी है। इनके यहां के सामान्य अपराधों के मामले पुलिस या कोर्ट-कचहरी में नहीं जाते। बिरादरी की पंचायत में मामले निपट जाते हैं। इन पर कोई सवाल नहीं उठाता। असंतुष्टि हुई तो इनकी अपनी हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट है। यहां फैसला सुबूतों के आधार पर नहीं बल्कि 'सांच को आंच नहीं' के सिद्धांत पर होता है। आगरा समेत उप्र के कई गांव में सपेरों की विभिन्न जातियों की कोर्ट है। देश भर में सपेरों की विभिन्न जातियों बैगी, बेटिया, जोगिया और जोगी के समस्त विवादों का निपटारा इन्हीं गांव में होता है। मैनपुरी के नगला बील में सपेरों की विभिन्न जातियों का एक सुप्रीम कोर्ट, बदायूं जिले के ग्राम हरपालपुर में हाईकोर्ट, कानपुर के नहरा बरी, आगरा के मनियां और औरैया के पिपरी गांव को इनकी पंचायत के 'हाईकोर्ट' की खंडपीठ का रुतबा हासिल है। यह कोर्ट साल में तीन बार आषाढ़ पूर्णिमा, विजयादशमी और होली के अवसर पर लगती है।
मुगलकाल से अपनी पंचायत परंपरा
मनियां हाईकोर्ट खंडपीठ के चीफ जस्टिस गांव के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति सुरेन्द्रनाथ के मुताबिक सपेरों में यह परंपरा मुगल काल से चली आ रही है। सपेरों का कोई भी विवाद थाना या कचहरी में नहीं जाता। छोटे-मोटे विवाद तो स्थानीय स्तर पर ही निपटा लिए जाते हैं लेकिन विवाद बढऩे या किसी पक्ष के संतुष्ट नहीं होने पर मामला यहां की कोर्ट में आता है। यहां बाकायदा सजा व जुर्माना लगाया जाता है। सजा भी काफी अजीब तरह की दी जाती हैं। जैसे चोरी के आरोपी को लोहे की सवा किलो की गर्म छड़ अपने हाथों पर रखकर सात कदम चलने के निर्देश दिए जाते हैं। सात कदम से पहले अगर वह गिर जाता है तो वह दोषी होता है, अन्यथा बरी हो जाता है। बरी होने पर शिकायत करने वाले पर जुर्माना किया जाता है। जब इन कोर्टों के फैसलों से वादी या प्रतिवादी संतुष्ट नहीं होते तब वह 'सुप्रीम कोर्ट नबला बील की शरण लेते हैं।
17 साल पहले माना कोर्ट
सुरेन्द्रनाथ ने अपने रिश्तेदार मलूक नाथ से बात कराई। बकौल मलूकनाथ मैनपुरी किशनी की ग्राम पंचायत अर्जुनपुर के गांव नगला बील सपेरों का गांव है। करीब ढाई हजार की आबादी वाले गांव में सपेरों की सबसे बड़ी कोर्ट है। इसका नाम भी सपेरा सजातीय सुप्रीम कोर्ट नगला बील है। मलूकनाथ सपेरों की इस 'सुप्रीम कोर्टÓ के मुख्य न्यायकर्ता हैं। बह बताते है कि पहले सपेरों के गांवों में सपेरों के मामले पंचायतों में निपटाए जाते थे। बाद में मामले बढऩे लगे और पंचायतों के फैसलों से सपेरे असंतुष्ट नजर आने लगे। उसके बाद पंचायत परंपरा को बचाने पर मंथन हुआ और सपेरों ने मिलकर करीब 17 साल पहले 'सुप्रीम कोर्ट' बनाने का फैसला लिया। बकौल मलूकनाथ इस 'सुप्रीम कोर्ट में अधिकांश मामले बलात्कार, हत्या, लड़की को भगा ले जाने जैसे ही आते हैं। सजा के तौर पर आर्थिक जुर्माना से लेकर समाज से बहिष्कृत करने तक की सजा सुनाई जाती है।
नहीं जाते थाने और कोर्ट कचहरी
मलूकनाथ ने बताया कि आपसी विवादों को लेकर थाने या कोर्ट नहीं जाते। अगर ऐसा होता है तो वहां राजीनामा करवाकर केस वापस करा लिया जाता है और फिर समाज की कोर्ट में सुनवाई होती है। दोषी को दंड भी दिया जाता है।
हत्या जैसे अपराध में कानून अपना काम करता है
हत्या जैसे अपराध में कानून अपना काम करता है लेकिन इस बारे में समाज की सुप्रीम कोर्ट भी फैसला सुनाती है। जेल जाने के बाद आरोपी के परिजन या रिश्तेदार उससे मिलने जेल में नहीं जा सकते और नहीं उसे छुड़ाने के लिए पैरवी करेंगे। यदि ऐसा होता है तो सपेरों की कोर्ट ऐसा करने वालों पर 50000 से डेढ़ लाख तक दंड लगाती है।
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