धनतेरस 2019: विविध कहानियां और मान्यताएं बनाती हैं पंचोत्सव के पहले उत्सव को खास, जानिए पुराणों में महत्व Agra News
25 अक्टूबर को है धनतेरस। बर्तन और झाड़ू खरीदने से होता है घर में मां लक्ष्मी का वास।
आगरा, जागरण संवाददाता। दीपोत्सव के पांच दिन के त्योहार का पहला दिन शुक्रवार को यानि 25 अक्टूबर को है। धनतेरस के साथ मंगल पर्व का आरंभ हो जाएगा। यह दिन शुभता के साथ स्वास्थ का भी प्रतीक है। आयुर्वेद के देव धन्वंतरि समुंद्र मंथन के दौरान हाथ में अमृत कलश लेकर निकले थे। धर्म वैज्ञानिक पंडित वैभव जोशी के अनुसार सम्पूर्ण उत्तर भारत में कार्तिक मास कृ्ष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को धनतेरस पर्व के रूप में मनाया जाता है। इस दिन धन्वंतरि के अलावा, देवी मां लक्ष्मी और धन के देवता कुबेर की भी पूजा करने की परंपरा है।
कौन था धन्वंतरि
धन तेरस पर भगवान धन्वंतरि की विशेष पूजा होती है। उन्हें आयुर्वेद का जन्मदाता और देवताओं का चिकित्सक माना जाता है। भगवान विष्णु के 24 अवतारों में 12वां अवतार धन्वंतरि का था। धन्वंतरि के जन्म के संबंध में हमें तीन कथाएं मिलती हैंं।
समुद्र मन्थन से उत्पन्न धन्वंतरि प्रथम
कहते हैं कि भगवान धन्वंतरि की उत्पत्ति समुद्र मंथन से हुए थी। वे समुद्र में से अमृत का कलश लेकर निकले थे जिसके लिए देवों और असुरों में संग्राम हुआ था। समुद्र मंथन की कथा श्रीमद्भागवत पुराण, महाभारत, विष्णु पुराण, अग्नि पुराण आदि पुराणों में मिलती है।
धन्व के पुत्र धन्वंतरि द्वितीय
कहते हैं कि काशी के राजवंश में धन्व नाम के एक राजा ने उपासना करके अज्ज देव को प्रसन्न किया और उन्हें वरदान स्वरूप धन्वंतरि नामक पुत्र मिला। इसका उल्लेख ब्रह्म पुराण और विष्णु पुराण में मिलता है। यह समुद्र मंधन से उत्पन्न धन्वंतरि का दूसरा जन्म था। धन्व काशी नगरी के संस्थापक काश के पुत्र थे। काशी वंश परंपरा में हमें दो वंशपरंपरा मिलती है। हरिवंश पुराण के अनुसार काश से दीर्घतपा, दीर्घतपा से धन्व धन्वे से धन्वंतरि, धन्वंतरि से केतुमान, केतुमान से भीमरथ, भीमरथ से दिवोदास हुए जबकि विष्णु पुराण के अनुसार काश से काशेय, काशेय से राष्ट्र, राष्ट्र से दीर्घतपा, दीर्घतपा से धन्वंतरि, धन्वंतरि से केतुमान, केतुमान से भीमरथ औरभीमरथ से दिवोदास हुए।
वीरभद्रा के पुत्र धन्वंतरि तृतीय
गालव ऋषि जब प्यास से व्याकुल हो वन में भटकर रहे थे तो कहीं से घड़े में पानी लेकर जा रही वीरभद्रा नाम की एक कन्या ने उनकी प्यास बुझायी। इससे प्रसन्न होकर गालव ऋषि ने आशीर्वाद दिया कि तुम योग्य पुत्र की मां बनोगी। लेकिन जब वीरभद्रा ने कहा कि वे तो एक वेश्या है तो ऋषि उसे लेकर आश्रम गए और उन्होंने वहां कुश की पुष्पाकृति आदि बनाकर उसके गोद में रख दी और वेद मंत्रों से अभिमंत्रित कर प्रतिष्ठित कर दी वही धन्वंतरि कहलाए।
विस्तार
उपरोक्त में से प्रथम दो कथाएं ज्यादा मान्य है। प्रथम कथा के अनुसार देवता एवं दैत्यों के सम्मिलित प्रयास के शांत हो जाने पर समुद्र में स्वयं ही मंथन चल रहा था जिसके चलते भगवान धन्वंतरि हाथ में अमृत का स्वर्ण कलश लेकर प्रकट हुए। विद्वान कहते हैं कि इस दौरान दरअसल कई प्रकार की औषधियां उत्पन्न हुईं और उसके बाद अमृत निकला। हालांकि धन्वंतरि वैद्य को आयुर्वेद का जन्मदाता माना जाता है। उन्होंने विश्वभर की वनस्पतियों पर अध्ययन कर उसके अच्छे और बुरे प्रभाव-गुण को प्रकट किया। धन्वंतरि के हजारों ग्रंथों में से अब केवल धन्वंतरि संहिता ही पाई जाती है, जो आयुर्वेद का मूल ग्रंथ है। आयुर्वेद के आदि आचार्य सुश्रुत मुनि ने धन्वंतरिजी से ही इस शास्त्र का उपदेश प्राप्त किया था। बाद में चरक आदि ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। कहते हैं कि धन्वंतरि लगभग 7 हजार ईसापूर्व हुए थे। वे काशी के राजा महाराज धन्व के पुत्र थे। उन्होंने शल्य शास्त्र पर महत्वपूर्ण गवेषणाएं की थीं। उनके प्रपौत्र दिवोदास ने उन्हें परिमार्जित कर सुश्रुत आदि शिष्यों को उपदेश दिए। दिवोदास के काल में ही दशराज्ञ का युद्ध हुआ था। धन्वंतरि के जीवन का सबसे बड़ा वैज्ञानिक प्रयोग अमृत का है। उनके जीवन के साथ अमृत का स्वर्ण कलश जुड़ा है। अमृत निर्माण करने का प्रयोग धन्वंतरि ने स्वर्ण पात्र में ही बताया था। जरा-मृत्यु के विनाश के लिए ब्रह्मा आदि देवताओं ने सोम नामक अमृत का आविष्कार किया था। धन्वंतरि आदि आयुर्वेदाचार्यों अनुसार 100 प्रकार की मृत्यु है। उनमें एक ही काल मृत्यु है, शेष अकाल मृत्यु रोकने के प्रयास ही आयुर्वेद निदान और चिकित्सा हैं। आयु के न्यूनाधिक्य की एक-एक माप धन्वंतरि ने बताई है। 'धनतेरस' के दिन उनका जन्म हुआ था। धन्वंतरि आरोग्य, सेहत, आयु और तेज के आराध्य देवता हैं। रामायण, महाभारत, सुश्रुत संहिता, चरक संहिता, काश्यप संहिता तथा अष्टांग हृदय, भाव प्रकाश, शार्गधर, श्रीमद्भावत पुराण आदि में उनका उल्लेख मिलता है। धन्वंतरि नाम से और भी कई आयुर्वेदाचार्य हुए हैं। आयु के पुत्र का नाम धन्वंतरि था।
चंचला लक्ष्मी की कथा
पंडित वैभव कहते हैं कि धनतेरस मनाने के पीछे भगवान धन्वंतरि की जयंती की कथा के अलावा, दूसरी कथा भी प्रचलित है। कहा जाता है कि एक समय भगवान विष्णु मृत्युलोक में विचरण करने के लिए आ रहे थे तब लक्ष्मी जी ने भी उनके साथ चलने के लिए कहने लगीं। इस पर भगवान विष्णु जी ने उनसे कहा मैं जो भी बात कहुं तो उसे मानना होगा। इस पर लक्ष्मी जी ने हां कहा और भगवान विष्णु के साथ मृत्युलोक पर आ गईं
मृत्युलोक में एक जगह पर पहुंचने के बाद भगवान विष्णु ने लक्ष्मी जी से कहा कि जब तक मैं वापस न आऊं तुम यहीं ठहरना। मैं दक्षिण दिशा की ओर जा रहा हूं, तुम वहां मत आना। विष्णुजी के जाने पर लक्ष्मी के मन में कौतूहल जागा कि आखिर दक्षिण दिशा में ऐसा क्या रहस्य है जो मुझे मना किया गया है और भगवान स्वयं चले गए। लक्ष्मी जी ने थोड़ी देर सोच विचार किया तो उन्हें रहा नहीं गया और वह भी भगवान के पीछे-पीछे चलने लगीं। कुछ ही आगे जाने पर उन्हें सरसों का एक खेत दिखाई दिया जिसमें खूब फूल लगे थे। सरसों की शोभा देखकर वह मंत्रमुग्ध हो गईं और फूल तोड़कर अपना किया और फिर आगे बढ़ीं। आगे जाने पर उन्हें गन्ने का खेत दिखा। रसीले गन्ने देखकर उन्हें रहा नहीं गया। उन्होंने गन्ना तोड़ा और उसका रस पान करने लगीं। कहते हैं लक्ष्मी जी को ऐसा करते हुए भगवान विष्णु ने देख लिया तो उनसे नाराज हो गए। भगवान विष्णु ने कहा कि तुमने मेरी बात नहीं मानी और किसान के खेत से चोरी का अपराध किया इसलिए तुम्हें शाप देता हूं कि तुम 12 साल तक मृत्यु लोक में ही रहो और किसानों की सेवा करो। ऐसा कहकर भगवान उन्हें छोड़कर क्षीरसागर चले गए। तब से लक्ष्मी जी उस गरीब किसान के घर रहने लगीं। एक दिन लक्ष्मी ने जी ने किसान की पत्नी से कहा कि तुम स्नान करने के बाद मेरे द्वारा बनाई हुई इस देवी की पूजा करो। इसके बाद रसोई बनाना। ऐसा करने के बाद तुम जो कुछ मांगोगी वह मिलेगा। किसान की पत्नी ने वैसा ही किया। मां लक्ष्मी की कृपा से किसान का घर धन धान्य से भर गया और लक्ष्मी जी के 12 वर्ष बहुत आराम के साथ कट गए। अब लक्ष्मी जी वापस स्वर्गलोक जाने को तैयार हुईं तो किसान ने उन्हें वापस जाने देने से इनकार कर दिया। तभी भगवान विष्णु वहां प्रगट हुए और किसान से का कि लक्ष्मी जी चंचला हैं, इन्हें कोई भी एक जगह ठहरने से नहीं रोक सकता। इन्हें 12 साल तक आपके यहां रुकने का शाप था इसलिए यह आपके पास थीं। तभी लक्ष्मी जी ने किसान का मन रखने के लिए कहा जैसा मैं कहती हूं वैसा करो। कल त्रयोदशी है। तुम घर को लीप-पोतकर साफ रखना और शाम को को मेरी पूजा करना, साथ ही रातभर घी का दीपक जलाए रखना और तांबे के कलश में रुपए भरकर रखना, मैं उस कलश में निवास करूंगी, लेकिन तुम्हें दिखाई नहीं दूंगी। किसान ने वैसा ही किया तो उसका घर धन धान्य से भर गया। इसके बाद लक्ष्मी जी दीपक की ज्योति की तरह सभी दिशाओं में समा गईं। किसान की इस कहानी को सुनकर लोग हर साल धनतेरस को मां लक्ष्मी की पूजा करने लगे।
धनतेरस पर यम का दीपक का महत्व
देश के अधिकांश भागों में 'यम' के नाम पर दीपदान की परंपरा है। दीपावली के दो दिन पूर्व धन्वंतरि-त्रयोदशी के सायंकाल मिट्टी का कोरा दीपक लेते हैं। उसमें तिल का तेल डालकर नवीन रूई की बत्ती रखते हैं और फिर उसे प्रकाशित कर, दक्षिण की तरह मुंह करके मृत्यु के देवता यम को समर्पित करते हैं। तत्पश्चात इसे दरवाजे के बगल में अनाज की ढेरी पर रख देते हैं। प्रयास यह रहता है कि यह रातभर जलता रहे, बुझे नहीं। पंडित वैभव जोशी इसके पीछे के महत्व के बारे में कहते हैं कि मान्यता के अनुसार बहुत पहले हंसराज नामक एक प्रतापी राजा था। एक बार वह अपने मित्रों, सैनिकों और अंगरक्षकों के साथ जंगल में शिकार खेलने गया। संयोग से राजा सबसे बिछुड़कर अकेला रह गया और भटकते हुए एक अन्य राजा हेमराज के राज्य में पहुंच गया। हेमराज ने थके- हारे हंसराज का भव्य स्वागत किया। उसी रात हेमराज के यहां पुत्र जन्म हुआ। इस खुशी के अवसर पर हेमराज ने राजकीय उत्सव में सम्मिलित होने के लिए आग्रह के साथ हंसराज को कुछ दिनों के लिए अपने यहां रोक लिया। बच्चे के छठवीं के दिन एक विचित्र घटना घटी। पूजा के समय देवी प्रकट हुई और बोली- आज इस शिशु की जो इतनी खुशियां मनाई जा रही हैं, यह अपने विवाह के चौथे दिन मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा। इस भविष्यवाणी से सारे राज्य में शोक छा गया। हेमराज और उसके परिजनों पर तो वज्रपात ही हो गया। सबके सब स्तब्ध रह गए। इस शोक के समय हंसराज ने राजा हेमराज और उसके परिवार को ढांढस दिया- मित्र, आप तनिक भी विचलित न हों। इस बालक की मैं रक्षा करूंगा। संसार की कोई भी शक्ति इसका बाल बांका नहीं कर सकेगी। हंसराज ने यमुना के किनारे एक भूमिगत किला बनवाया और उसी के अंदर राजकुमार के पालन-पोषण की व्यवस्था कराई। इसके अतिरिक्त राजकुमार की प्राणरक्षा के लिए हंसराज ने सुयोग्य ब्राह्मणों से अनेक तांत्रिक अनुष्ठान, यज्ञ, मंत्रजाप आदि की भी व्यवस्था करा रखी थी। धीर-धीरे राजकुमार युवा हुआ। उसकी सुंदरता एवं तेजस्विता की चर्चा सर्वत्र फैल गई। राजा हंसराज के कहने से हेमराज ने राजकुमार का विवाह भी कर दिया। जिस राजकुमारी से युवराज का विवाह हुआ था, वह साक्षात लक्ष्मी लगती थी। ऐसी सुंदर वर-वधू की जोड़ी जीवन में किसी ने न देखी थी। विवाह के ठीक चौथे दिन यम के दूत राजकुमार के प्राण हरण करने आ पहुंचे। अभी राज्य में मांगलिक समारोह ही चल रहा था। राजपरिवार और प्रजाजन खुशियां मनाने में मग्न थे। राजकुमार और राजकुमारी की छवि देखकर यमदूत भी विचलित हो उठे, किंतु राजकुमार के प्राणहरण का अप्रिय कार्य उन्हें करना ही पड़ा। यमदूत जिस समय राजकुमार के प्राण लेकर चले, उस समय ऐसा हाहाकार मचा और दारुण दृश्य उपस्थित हुआ जिससे द्रवित होकर दूत भी स्वयं रोने लगे। इस घटना के कुछ समय पश्चात एक दिन यमराज ने प्रसन्न मुद्रा में अपने दूतों से पूछा- दूतों! तुम सब अनंत काल से पृथ्वी के जीवों का प्राणहरण करते आ रहे हो, क्या तुम्हें कभी किसी जीव पर दया आई है और मन में यह विचार उठा है कि इसे छोड़ देना चाहिए? यम के दूत एक-दूसरे का मुंह देखने लगे। यमराज ने उनके संकोच को भांपकर उन्हें उत्साहित किया- झिझको मत, अगर ऐसा प्रसंग आया हो, तो निर्भय होकर बताओ। इस पर एक दूत ने सिर झुकाकर निवेदन किया- मृत्युदेव, ऐसे प्रसंग तो कम ही आए हैं किंतु एक घटना अवश्य हुई है जिसकी स्मृति मुझे आज भी विह्वल कर देती है। यह कहते हुए दूत ने हेमराज के पुत्र के प्राणहरण की घटना सुना दी। इस दु:खद प्रसंग से यमराज भी विचलित हो उठे। इसे लक्ष्य करके दूत बोला- नाथ! क्या कोई ऐसा उपाय नहीं है जिससे इस प्रकार की अकाल मृत्यु से प्राणियों को छुटकारा मिल जाए? इस पर यमराज ने कहा- जीवन और मृत्यु सृष्टि का अटल नियम है तथा इसे बदला नहीं जा सकता किंतु धनतेरस को पूरे दिन का व्रत और यमुना में स्नान कर धन्वंतरि और यम का पूजन-दर्शन अकाल मृत्यु से बचाव कर सकता है। यदि यह संभव न हो तो भी संध्या के समय घर के प्रवेश द्वार पर यम के नाम का एक दीपक प्रज्वलित करना चाहिए। इससे असामयिक मृत्यु और रोग से मुक्त जीवन प्राप्त किया जा सकता है। इसके पश्चात से ही धनतेरस के दिन धन्वंतरि के पूजन और प्रवेश द्वार पर यम दीपक प्रज्वलित करने की परंपरा है।