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Holi Special: रंग भरते हैं जीवन में सतरंगी उल्‍लास, जानें क्‍या है होली की महत्‍ता

धर्म वैज्ञानिक पंडित वैभव जोशी के अनुसार भूतकाल की बोझिलता होलिका दहन से होती है दूर।

By Prateek GuptaEdited By: Published: Tue, 19 Mar 2019 05:52 PM (IST)Updated: Tue, 19 Mar 2019 05:52 PM (IST)
Holi Special: रंग भरते हैं जीवन में सतरंगी उल्‍लास, जानें क्‍या है होली की महत्‍ता
Holi Special: रंग भरते हैं जीवन में सतरंगी उल्‍लास, जानें क्‍या है होली की महत्‍ता

आगरा, तनु गुप्‍ता। होली, यह एक शब्‍द या दिन विशेष नहीं बल्कि इसमें समाहित है जीवन का सार। फाग के इस विशेष दिन पर जो गुलाल उड़ता है वो उल्‍लास का परिचय है तो होलिका दहन बुराई के दहन का। यूं तो प्रभात प्रतिदिन ही होता है लेकिन होली के दिन सूर्योदय विशेष लालिमा लिये होता। हवा के वेग के साथ फागुनी आनंद स्‍वत: ही मन को उल्‍लासित करता है। धर्म वैज्ञानिक पंडित वैभव जोशी के अनुसार होली की तरह ही जीवन भी रंगों भरा होना चाहिए न कि उबाऊ। जब सभी रंग स्पष्ट देखे जाएं तब वह रंग भरा है, जब सभी रंग घुल जाते हैं तो वह हो जाता है काला। जीवन में हम विभिन्न भूमिकाएं निभाते हैं। प्रत्येक भूमिका एवं भावना स्पष्ट रूप से परिभाषित होनी चाहिए। होली की यह सीख यदि हर कोई जीवन में उतार ले तो बहुत सी परेशानियों से बच सकता है। 

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हर रंग कुछ कहता है

पंडति वैभव जोशी कहते हैं कि यह संसार रंगों से भरा है। प्रकृति की तरह ही हमारी भावनाओं तथा संवेदनाओं का रंगों से संबंध है। क्रोध का लाल, ईर्ष्या का हरा, आनंद और जीवंतता के लिए पीला, प्रेम का गुलाबी, नीला विस्तृतता के लिए, शांति के लिए सफेद, बलिदान का केसरिया और ज्ञान का जामुनी। प्रत्येक मनुष्य एक रंगीन फव्वारा है, जिसके रंग बदलते रहते हैं।

धर्म वैज्ञानिक पंडित वैभव जोशी

जीवन बन जाएगा उत्सव

पंडित वैभव जोशी कहते हैं कि होलिका भूतकाल की बोझिलता की प्रतिनिधि है जो प्रह्लाद के भोलेपन को नष्ट करने के लिए प्रतिबद्ध है। किन्तु प्रह्लाद नारायण की भक्ति में इतनी गहराई से स्थित है कि अपने सभी पुराने संस्कारों को, प्रभावों को मिटा देता है और आनंद खिल उठता है नए रंगों के साथ। 

जीवन एक उत्सव बन जाता है, जब भूत की छाप को मिटा कर आप नई शुरुआत के लिए उद्यत होते हैं। आपकी भावनाएं अग्नि की तरह खुद को जलाती हैं। किन्तु जब वह रंगों की फुहार सी हों तो आप के जीवन में रंग भर देती हैं। अज्ञान को पूरी तरह मिटा देती हैं। अज्ञान में भावनाएं कष्टकारी हैं, ज्ञान में यही भावनाएं जीवन के भिन्न रंग हैं।

बांटते चलो खुशियां 

अपने जीवन को ऐसा संवारें की हर दिन होली बन जाए। जीवन में खुशी, प्रेम, आनंद के फूल खिलें और ज्ञान की ज्योति से जगमगाते रहें। जो पल जीवन में आया है उसे आनंद के साथ बिताएं। सब अपने जीवन में रस और सुगंध को खोजें व उसे खुलकर आनंद के साथ सबको लुटा दें, जिससे जीवन के बयार बसंत की बहार बन जाए।

उत्सव के साथ जुड़े पवित्रता से

पंडित वैभव बताते हैं कि धर्म विज्ञान के अनुसार जीवन में आप जो भी आनंद अनुभव करते हैं, वह आप को स्वयं से ही प्राप्त होता है। जब आप यह सब छोड़ कर शांत हो जाते हैं, जिसे आपने जकड़ा हुआ है वही ध्यान कहलाता है। ध्यान कोई क्रिया नहीं है यह कुछ भी नहीं करने की कला है। ध्यान में आपको गहरी नींद से भी अधिक विश्राम मिलता है क्योंकि आप सभी इच्छाओं के पार होते हैं। यह मस्तिष्क को गहरी शीतलता देता है। यह मस्तिष्क शरीर तंत्र को पुनर्जीवन देने के समान है। उत्सव चेतना का स्वभाव है तथा वह उत्सव जो मौन से उत्पन्न होता है, वह ही वास्तविक है। 

यदि उत्सव के साथ पवित्रता को जोड़ दिया जाए तो वह पूर्ण हो जाता है। केवल शरीर तथा मन ही उत्सव नहीं मनाता बल्कि चेतना भी उत्सव मनाती है तथा उस स्थिति में जीवन रंगीन हो जाता है। जीवन जब रंगीन हो जाता है तो खुशियों से भी सराबोर हो जाता है। 

पौराणिक कथा 

असुरराज हिरण्यकश्यप चाहता था कि सभी उसी की पूजा करें, परंतु उसका पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का भक्त था, जिनसे राजा की कट्टर दुश्मनी थी। क्रोधित राजा चाहता था कि उसकी बहन होलिका, प्रह्लाद से छुटकारा दिलाए। अग्नि को सहन करने की शक्ति से युक्त होलिका, प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि के कुंड में बैठ गई लेकिन होलिका जल गई, प्रह्लाद बच गया। हिरण्यकश्यप स्थूलता का प्रतीक है। प्रह्लाद भोलेपन, श्रद्धा एवं आनंद की प्रतिमूर्ति है। चेतना को केवल भौतिक पदार्थ के प्रेम तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता। हिरण्यकश्यप चाहता था कि उसका सारा आनंद भौतिक संसार से ही प्राप्त हो, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। जीवात्मा सदैव सांसारिक पदार्थों के बंधन में नहीं रह सकती। स्वभावतया वह नारायण, अपने उच्च स्वयं की ओर अग्रसित होगी ही।

अन्‍य मान्‍यताएं 

होली सबसे प्राचीन त्योहारो में से एक है। होली कितना पुराना त्योहार है, इस बात का अंदाजा तो ठीक- ठीक लगाना कठिन है लेकिन पौराणिक शास्त्रों में मिली जानकारी के अनुसार असत्य पर सत्य की विजय और दुराचार पर सदाचार की विजय के रूप में होली का त्यौहार मनाया जाता रहा है। पंडित वैभव जोशी के अनुसार होली के साथ हमें ढुण्ढा नामक राक्षसी की पौराणिक कथा का भी जिक्र मिलता है। इस कहानी के अनुसार ढुण्ढा नामक राक्षसी गांव-गांव में घुसकर बालकों को कष्ट देती थी। उन्हें रोग व व्याधि से ग्रस्त करती थी। उसे गांव से भगाने के लिए लोगों ने अनेक प्रयास किए परंतु वे सफल नहीं हुए अंत में लोगों ने उसे अपमानित और गालियां देकर गांव से भगा दिया। उत्तर भारत में ढुण्ढा राक्षसी की बजाय होली की रात पूतना को जलाया जाता है। होली के पूर्व तीन दिन भगवान कृष्ण के बाल रूप को पालने में सुलाकर उनका उत्सव मनाते हैं। चैत्र पूर्णिमा पर पूतना का दहन करते हैं। दक्षिण भारत के लोग कामदेव से विजय के प्रतीक के रूप में होलिका रंगोत्सव मनाते हैं।शास्त्रानुसार भगवान शंकर जब तप करने में मग्न थे, उस समय मदन अर्थात कामदेव ने उनके अंत: करण में प्रवेश किया। उन्हें कौन चंचल कर रहा है? यह देखने हेतु शंकर ने नेत्र खोले और मदन को देखते ही क्षणभर में भस्मसात कर दिया अर्थात कामदेव को भस्म कर धुल में मिला दिया। इसलिए होली अर्थात स्वयं के काम, द्वेष, घमंड को समाप्त करने के भाव के साथ हम होलिका दहन करते है और प्रेम व भाईचारे की भावना के साथ होली के इस रंगों से सराबोर त्यौहार को मनाते हैं।


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