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सपेरों की बस्ती में शिक्षा की बीन

किताब नाथ कर चुके हैं ग्रेजुएशन। तीन अन्य युवक भी इंटर पास, अभावों में छोड़ा स्कूल।

By JagranEdited By: Published: Tue, 14 Aug 2018 01:26 PM (IST)Updated: Tue, 14 Aug 2018 01:26 PM (IST)
सपेरों की बस्ती में शिक्षा की बीन
सपेरों की बस्ती में शिक्षा की बीन

आगरा(अजय परिहार): कच्ची गलियों के बीच कतारों में लगी झुग्गी-झोपड़िया। सापों से शरारत करते बच्चे। पिटारा खोलकर बीन की धुन पर साप की फुसकार दिखाकर रोजी-रोटी की जुगाड़ करते सपेरे। और, अपने मंत्रों के बूते साप काटने का इलाज करने का दावा करते बुजुर्ग सपेरे। सापों के बीच ही रहते हुए पूरी जिंदगी गुजारने वाले सपेरों की एक ऐसी ही बस्ती में शिक्षा की बीन भी बज रही है। हालाकि आर्थिक और सामाजिक संसाधनों के अभाव में इस बीन की धुन अभी धीमी ही है, मगर परंपरागत पेशा से अलग हटकर समाज की मुख्य धारा में शामिल होने की ललक इस बीन की धुन को नए सुर दे रही है।

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बात हो रही है बडोवरा कला ग्राम पंचायत के गाव सपेरों के पुरा की। करीब तीन सौ की आबादी वाली इस बस्ती में बच्चे सापों से खेलते जरूर हैं, मगर एक बालिका कुछ बच्चों को घेरे हुए टिवंकल-टिवंकल लिटिल स्टार. की पोइम गुनगुनाती मिल जाती है। अन्य बच्चे भी यही गाने का प्रयास करते हैं। बालिका फिर उन्हें एक, दो, तीन. गिनती सिखाती है। बच्चे भी बड़े चाव से गाते हैं। बालिका फिर उन्हें एक, दो, तीन. गिनती सिखाती है। बस्ती की ये मानसिक आबोहवा यूं ही नहीं बदल रही है। दरअसल, बस्ती के ही किताबनाथ को बचपन से ही पढ़ने की ललक थी। स्कूल जाना शुरू कर दिया। सापों का खेल दिखाने के साथ ही वे पढ़ाई भी करते रहे और दो साल पहले बीए भी कर लिया। किताबनाथ को आगे की पढ़ाई के लिए परिवार की आर्थिक तंगी ने इजाजत नहीं और फिर संभाल लिया वंशानुगत पेशा। मगर, अपने बच्चों को हर हाल में शिक्षित करने का संकल्प नहीं तोड़ा। तीन बच्चियों के पिता किताबनाथ की बड़ी बेटी वर्षा कक्षा दो और उससे छोटी बेटी ने भी इसी वर्ष स्कूल जाना शुरू कर दिया। तीसरी बच्ची अभी स्कूल जाने लायक नहीं है। बस्ती की बच्चियों को अंग्रेजी की पोइम और गिनती ये बालिका वर्षा ही सिखाती है। उपेक्षा का शिकार है बस्ती: सपेरों का पुरा का हाल भी बुरा है। गाव के विकास के लिए किसी ने कोई ध्यान नहीं दिया। कहने को तो तीन हैंडपंप लगे हैं, मगर तीनों खराब हो चुके हैं। पानी के लिए गाव में ही लगी टंकी से पानी की पूर्ति होती है। जब बिजली नहीं आती तो पानी के लिए दूर के गाव जाना पड़ता है।

सामाजिक मान्यता की भी दरकार: किताबनाथ कहते हैं कि उन्हें ये ही नहीं मालूम कि वे किस जाति के हैं। जाति स्पष्ट हो तो सरकारी कल्याणकारी योजनाओं का लाभ भी मिल जाए। अज्ञानता के कारण हम योजनाओं के लिए आवेदन भी नहीें कर पा रहे हैं। प्रशासन को इसमें पहल करनी चाहिए।


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