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World Disability Day: अक्षमता की सीमाओं को लांघ, कायम कर दी नई मिसाल

शारीरिक अक्षमता को पीछे छोड़ सभी के लिए बने रोल मॉडल। सपनों को पहचाना, वक्त दिया और खुद को किया साबित।

By Prateek GuptaEdited By: Published: Mon, 03 Dec 2018 03:17 PM (IST)Updated: Mon, 03 Dec 2018 03:17 PM (IST)
World Disability Day: अक्षमता की सीमाओं को लांघ, कायम कर दी नई मिसाल

आगरा, जेएनएन। उडऩे के सपने तो सभी देखते हैं, लेकिन उड़ता वही है, जिसके पंखों से ज्यादा हौसलों में उड़ान होती है। वही तमाम दुश्वारियां झेलकर अपने मुकाम को पाने की जिद्दोजहद में जुटे रहे हैं। आज हम बात कर रहे हैं उन लोगों की, तो बचपन से ही सामान्य नहीं थे, लेकिन यहां कोई भी परफेक्ट नहीं होता, बनना पड़ता है। इसी सोच से कड़ी मेहनत की और आज वह खुद की जिंदगी संवारने के साथ दूसरों को भी कभी न हार मानने की प्रेरणा दे रहे हैं। विश्व दिव्यांग दिवस पर जागरण की खास पेशकश...।

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मेहनत की, सच कर दिखाया सपना

दयालबाग निवासी बंशीलाल का सपना चिकित्सक बनने का था, लेकिन ग्र्रामीण परिवेश, आर्थिक रुप से कमजोर परिवार व एक पैर में दिक्कत के कारण कभी-कभी निराशा होती थी। लेकिन इसे उन्होंने खुद पर हावी नहीं होने दिया। इंटर की पढ़ाई के बाद बलूनी क्लासेस से सीपीएमटी की तैयारी शुरू की। पहले तीन प्रयास में सफलता नहीं मिली, लेकिन उन्होंने मेहनत का दामन नहीं छोड़ा। चौथे प्रयास में दिव्यांग श्रेणी (पीएच) में ऑल इंडिया 132वीं रैंक पाई और एसएन मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस में प्रवेश पाया। वह बताते हैं कि पिता डीपीएस दयालबाग में सिक्योरिटी गार्ड थे, वर्ष 2017 में एनजीटी में आने से घर टूटा और वह परिवार सहित सड़क पर आ गए, लेकिन उन्होंने मुस्कराना नहीं छोड़ा। क्योंकि मेरा मानना है जो टूट कर मुस्कुराए, उसे कोई नहीं हरा सकता। आज सिर्फ उन्हें खुद पर नहीं पूरे परिवार को नाज है क्योंकि गोवर्धन के जिस नगला शेरा से वह आते हैं, वहां के आसपास के गांव में भी कोई चिकित्सक नहीं बना।

मिस्टर यूपी, इंडिया और अब ट्रेनर्स के बने ट्रेनर

जीवनी मंडी निवासी गौरव शर्मा की कहानी भी कम रोचक नहीं। बचपन में एक हादसे के बाद पैर में थोड़ी दिक्कत थी। लेकिन वह कहते हैं कि कोई भी परफेक्ट नहीं होता, परफेक्ट बनना पड़ता है। उन्होंने अपनी इसी सोच के साथ खुद को तैयार किया। जिम शौक था, इसी में वह आगे बढ़े। 2005 में मिस्टर यूपी में चुनने के बाद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। दो-दो बार मिस्टर यूपी और मिस्टर इंडिया रहे। कई प्रतियोगिताओं में अपना दम दिखाकर सवाल उठाने वाले लोगों को शांत किया। लेकिन इतने से मन नहीं भरा। इससे आगे बढ़कर उन्होंने जिम ट्रेनर और डाइट एक्सपर्ट के तौर पर काम शुरू किया। आज शहर में उनके द्वारा तैयार करीब 80 फीसद ट्रेनर्स काम कर रहे हैं। शहर ही नहीं, कई बड़े शहरों में सेवाएं देने के साथ सेंटर चला रहे हैं। शहर में समाजसेवा करने वाली एक एनजीओ भी चलाते हैं। गौरव कहते हैं कि अपनी मंजिल पहचान कर कड़ी मेहनत से उसकी तरफ बढ़ें, तो आपको कोई नहीं रोक सकता। लोग भी आपको आगे बढ़ाने को साथ आएंगे। आज ट्रेनिंग और डायट बहुत एडवांस हो गई है, इसलिए हार मानने का नहीं, जिद करने का समय है, खुद को फिट रखना ही सबसे बड़ी पूंजी है।

सरकारी नौकरी में आना है ख्वाब

अछनेरा निवासी 12 साल का बबलू उच्च प्राथमिक विद्यालय भवनपुरा का छात्र है। बायां हाथ एक दुर्घटना का शिकार होकर आधा कट गया। इसके बाद परिवार को लगा कि सब कुछ खत्म हो गया। लेकिन बबलू निराश नहीं हुआ। उसने अपने पैरों को अपनी ताकत बनाया और गांव में दौड़ लगाने की शुरूआत की। इसके बाद उन्हें कोई पीछे नहीं छोड़ पाया। पिछले दिनों आगरा कॉलेज मैदान पर हुए जिला बेसिक खेलकूद में इन्होंने 100, 200 और 600 मीटर प्रतियोगिता में हिस्सा लिया, जिनमें एक में प्रथम और दो में द्वितीय स्थान पर रहे। बबलू का सपना है कि वह सरकारी नौकरी में आएं। इसलिए अपने सपने को साकार करने के लिए उन्होंने खेल को अपनी ताकत बनाने की ठानी है। वह एक बार जिला बेसिक खेलकूद में वह प्रदेश स्तर पर गोल्ड भी जीत चुके हैं।

सामान्य बच्चों के बीच कर रहीं पढ़ाई

जीडी गोयनका स्कूल की कक्षा चार की छात्रा अंशप्रीत शारीरिक परेशानी से जूझ रही हैं, दो साल तक तो चिकित्सक उसकी बीमारी पता ही नहीं लगा सके। बाद में गंगाराम हॉस्पीटल से जापान भेजी गई रिपोर्ट से कमी का पता चला, जिससे उनका शारीरिक व मानसिक विकास आम बच्चों की तरह नहीं हुआ। लेकिन पिता नवप्रीत सिंह व मां सुरप्रीत कौर ने उन्हें स्पेशल बच्चों के स्कूल में डालने की जगह सामान्य बच्चों के स्कूल में डाला। कोशिश थी, यहां सामान्य बच्चों के बीच रहकर वह खुद को उन्हीं की तरह समझकर विकास करेगी। कोशिश सफल रही। हालांकि इसमें स्कूल प्रधानाचार्य पुनीत वशिष्ठ, क्लास टीचर हिना वाधवा व ईशू मेम ने विशेष सहयोग किया। अब वह बोलना तेजी से सीख गई है, लेकिन लिखने में कमी है। अपने टीचर को अपना इतना सपोर्ट करते देख अंशप्रीत खुद भी टीचर या डॉक्टर बनना चाहती हैं, ताकि वह भी दूसरों की मदद कर सकें।

मूक-बधिर बच्चों की जुबां बन रहा एक परिवार

मूक-बधिर बच्चों के दिल में बहुत से जज्बात होते हैं। मगर, वह चाहकर भी उन्हें जाहिर नहीं कर पाते। इन बच्चों की पीड़ा को महसूस कर आगरा का एक परिवार पिछले पांच दशक से ज्यादा समय से इनकी जुबां बन गया है। परिवार के पांच सदस्य मूक- बधिर बच्चों को साइन लैंग्वेज सिखाने का काम कर रहे हैं।

विजय नगर कॉलोनी के नगला धनी निवासी राघवेंद्र तिवारी मूक-बधिर बच्चों को साइन लैंग्वेज सिखाकर उनके चेहरे पर मुस्कान लाने का काम कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि उनके पिता दिवंगत विनोद बिहारी तिवारी की प्रेरित होकर वह इस क्षेत्र में आए। उनके पिता वर्ष 1960 से मूक-बधिर बच्चों को मुख्य धारा से जोडऩे का काम कर रहे थे। उन्होंने वकालत की पढ़ाई की थी, लेकिन दिव्यांग बच्चों से उनके लगाव ने उन्हें जाने नहीं दिया। ऐसे में उन्होंने ऐसे बच्चों को स्वावलंबी बनाने में अपनी जिंदगी गुजार दी। वर्ष 1975 में वह राजकीय मूक-बधिर विद्यालय विजय नगर में शिक्षक हो कर आए और 1991 तक यहां सेवाएं दी। पिताजी से प्रेरित होकर उनकी बहन पूर्णिमा, रत्नम और पल्लवी ने भी पिताजी के नक्शे कदम पर चलने की ठान ली। उनके साथ उनकी तीनोंं बहनें मूक-बधिर बच्चों को साइन लैंग्वेज सिखाने का काम कर रहे हैं। इसके अलावा उनकी तीसरी पीढ़ी भी इस क्षेत्र में आने की तैयारी में है। उनकी बड़ी बहन पूर्णिमा की बेटी भी साइन लैंग्वेज सीखने की ट्रेनिंग ले रही है।

विवाद सुलझाने को आते थे घर पर

राघवेंद्र तिवारी ने बताया कि जब वह छोटे थे तो उनके घर पर मूक-बधिर बच्चोंं के परिजन आते रहते थे। इसमें से अक्सर वो होते थे जिनके बच्चे किसी बात पर उनसे रूठ जाते थे। उनके पिताजी उनसे साइन लैंग्वेज में बात कर रूठने का कारण बताते थे। इसके अलावा उनके पिताजी ने कई मूक-बधिरोंं की शादी भी करवाई। अभी भी उनके यहां ऐसे परिजन आते रहते हैं।

दिव्यांगता का मतलब नहीं है निर्भरता

कासगंज के मूक बधिर स्कूल में यूं तो कई दिव्यांग बच्चो हैं, लेकिन इनमें से कुछ ऐसे हैं जो खास हैं। शिक्षकों के अलावा आने वाले अधिकारी व अतिथियों तक से प्रतिभा के बल पर शाबासी पाते हैं। अमांपुर की गीता देख नहीं सकती, लेकिन ढोलक पर उसकी थाप स्वस्थ बच्चियों को पीछे छोड़ देती है। ढोलक को बजते सुनकर ही उसने यह हुनर विकसित किया है। पटियाली की सीमा भी देख नहीं सकती। मूक बधिर स्कूल में कोई भी कार्यक्रम हो, उसके लोकगीत बिना वे अधूरे रहते हैं। आवासीय स्कूल में शिक्षा पाने वाली सीमा हर कार्यक्रम में भाग लेती है तो 10 वर्षीय करीना भी गीतों को सुनाकर लोगों को झूमने पर मजबूर कर देती हैैं।

गंगेश्वर कॉलोनी निवासी मुनीश के बचपन से दोनों पैर खराब हैं। इसके बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी। वे वर्तमान में ऐसे लोगों के लिए नजीर बन गए हैैं जो स्वस्थ होकर भी कुछ नहीं करते। गरीबी ने पढऩे नहीं दिया, लेकिन उन्होंने अपनी ट्राइसाइकिल को ही रोजगार का माध्यम बना लिया। शहर की एक ट्रांसपोर्ट पर आने वाले कार्टन सप्लाई करने का काम शुरू किया। इन्हें वे खुद ही लादते और उतारते हैैं। प्रतिदिन चार से पांच चक्कर लगाने वाला मुनीश कहते हैैं किसी पर निर्भर नहीं रहना चाहिए।

आंखें ही तो बेनूर हैं, हुनर बना रहा नूर

शारीरिक दिव्यांगता से हिम्मत हारने वालों के लिए कौशलेंद्र और उपासना धैर्य और सूझबूझ की मिसाल हैं। दोनों देख नहीं सकते, लेकिन बेनूर आंखें अब दूसरों को ङ्क्षजदगी का असल फलसफा समझा रही हैं। कंप्यूटर पर जहां कौशलेंद्र की थिरकतीं उंगलियां कमाल दिखाती हैं, वहीं उपासना का ज्ञान देख अच्छे-अच्छे दांतों तले उंगलियां दबा लेते हैं।

शहर के राजीव गांधी नगर निवासी शिक्षक हजारीलाल की पुत्री उपासना (21) नेत्रों से दिव्यांग है। ब्रेल लिपि का ज्ञान प्राप्त कर आठवीं तक की पढ़ाई पूरी की। दिल्ली में इंटर के बाद डॉ. शकुंतला मिश्रा विश्वविद्यालय लखनऊ से डीएड (विशेष शिक्षक) कर रही हैं। उपासना नेत्रों से दिव्यांग बच्चों के लिए निश्शुल्क विद्यालय का संचालन करना चाहती हैं।

विकास खंड जागीर के गांव औंग निवासी कौशलेंद्र (22) की उंगलियों को कंप्यूटर पर थिरकते देखने वालों दंग रह जाते हैं। कुछ अलग करने की चाह देख परिजनों ने उन्हें जीपीएम सीनियर सेकेंड्री स्कूल खुर्जा में प्रवेश दिला दिया। यहां पढ़ाई के साथ-साथ वे कंप्यूटर एक्सपर्ट बन गए। इतिहास ऑनर्स से ग्रेजुएशन कर रहे कौशलेंद्र पढ़ाई का खर्च निकालने के लिए बतौर कंप्यूटर शिक्षक की कोङ्क्षचग दे रहे हैं।

ब्रिज कोर्स ने बदली दुनिया

दोनों दिव्यांग अपने अब तक के सफर के लिए शिक्षक लालता प्रसाद शर्मा को श्रेय देते हैं। एक्सीलेरेटेड लर्निंग कैंप में बतौर दिव्यांग शिक्षक के तौर पर लालता प्रसाद ब्रेल लिपि के माध्यम से पढ़ाते हैं। उनका कहना है कि उपासना और कौशलेंद्र जैसे बच्चे और भी हैं। लेकिन, सुविधाओं के अभाव में हर कोई इतनी दूर तक नहीं पहुंच पाता। 


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