दशकों के संघर्ष के बाद भी आगरा को नहीं मिला न्याय का अधिकार
336 किलोमीटर दौड़ते वादकारी। इलाहाबाद और लखनऊ बेंच से नजदीक हैं दिल्ली जयपुर हाईकोर्ट इंदौर बेंच।
आगरा, सुबान खान। कान्हा के किलोल की नगरी, मध्यकालीन भारत के सत्ता केंद्र और उत्तर-पश्चिम संयुक्त प्रांत की राजधानी रही आगरा को लोकतंत्र के प्रहरियों से न्याय चाहिए। अपना अतीत नहीं, लेकिन अतीत का गौरव चाहिए। आगरा और आसपास के जिलों के पीडि़त पक्षकारों को सहज, सस्ता और सुलभ न्याय चाहिए। इम्दाद नहीं, हक के रूप में। उच्च न्यायालय की एक बेंच आगरा में स्थापित करने के लिए आगरा ही नहीं मथुरा, फीरोजाबाद, मैनपुरी, इटावा, एटा, कासगंज, अलीगढ़ जैसे पड़ोसी जिलों के अधिवक्ता आंदोलन कर रहे हैं। जबकि, लगभग सभी पार्टियों से संबद्ध जनप्रतिनिधियों द्वारा अधिवक्ताओं की मांग विधानसभा व संसद तक पहुंचाने का किया गया वादा कोरा ही रहा। इस चुनाव में एक बार फिर झलक रही है, टीस के साथ न्याय की उम्मीद।
जनसंख्या से लेकर न्याय की दहलीज तक ताजनगरी अपना परचम लहरा चुकी है। इसका गवाह अंग्रेजों का शासनकाल भी रहा है। संयुक्त प्रांत का कलेजा बने आगरा से अंग्रेज भी पानी मांगने लगे। खुद पर खतरा लटका देख अंग्रेजों ने 17 मार्च, 1866 में आगरा में स्थापित हुए हाईकोर्ट को अस्थायी तौर पर वर्ष 1869 में इलाहाबाद स्थानांतरित कर दिया। बाद में इसे स्थायी रूप दे दिया गया। तभी से टीस लगातार उभरती रहती है।
एक तरफ सरकारें सस्ता न्याय और न्याय आपके द्वार की बात करती रहीं और दूसरी ओर पश्चिमी उप्र की जनता इंसाफ पाने के लिए हजारों किलोमीटर का सफर करती रही। जबकि पड़ोसी राज्यों में कम दूरी के सफर से ही न्याय मिल जाता है। चौधरी अजय सिंह बताते हैं कि 1966 में आगरा में हाईकोर्ट स्थापना के सौ वर्ष पूरे होने थे। इसके दस वर्ष पूर्व ही आगरा के अधिवक्ताओं ने आंदोलन की रणनीति बना ली थी। तब से आज तक आंदोलन जारी है। मैनपुरी के अधिवक्ता तो आगरा में खंडपीठ स्थापित कराने के लिए जब भी आंदोलन होता है तो बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं। कलेक्ट्रेट के वकील पिछले आठ सालों से अनवरत अपनी मांग को लेकर प्रत्येक शनिवार को न्यायिक कार्य से विरत रहते हैं। वकीलों की मांग सरकार के कानों तक नहीं पहुंच पा रही है।
पहले आगरा में ही था हाईकोर्ट
अधिवक्ताओं के अनुसार, हाईकोर्ट बेंच आगरा का हक है। 1869 तक हाईकोर्ट आगरा में था। बाद में इसे इलाहाबाद स्थानांतरित कर दिया गया। 1919 में इसे 'द हाईकोर्ट च्यूडीकेचर एट इलाहाबादÓ का नाम दिया गया। भारत के आजाद होने के बाद चीफ कोर्ट अवध और इलाहाबाद हाईकोर्ट का विलय कर के इलाहाबाद हाईकोर्ट में समाहित कर दिया गया। साथ ही अवध कोर्ट को लखनऊ खंडपीठ का दर्जा दे दिया गया।
आगरा से मिलता था समूचे संयुक्त प्रांत को न्याय
आगरा में जब हाईकोर्ट था, तो यहां से अवध, ब्रज, बुंदेलखंड, उत्तराखंड तक का प्रसार क्षेत्र था। इन क्षेत्रों से आगरा का मार्ग भी बेहद आसान था। आगरा में बेंच की स्थापना से पूरे ब्रज को फायदा होगा।
आयोग की रिपोर्ट बेअमल
1985 में उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और केरल में बेंच स्थापना के लिए गठित जसवंत सिंह आयोग की रिपोर्ट में भी आगरा में हाईकोर्ट बेंच स्थापना का पक्ष लिया गया, लेकिन उप्र में इस पर अमल नहीं किया गया। दूसरी तरफ महाराष्ट्र और केरल ने रिपोर्ट पर अमल किया और बेंच की स्थापना की गई।
किस उच्च न्यायालय की कितनी दूरी
-आगरा से ग्वालियर हाईकोर्ट बेंच की दूरी 119.9 किलोमीटर, 2.27 घंटा का सफर।
-आगरा से दिल्ली हाईकोर्ट की दूरी 231.1, किलोमीटर, 3.34 घंटा का सफर।
-आगरा से जयपुर हाईकोर्ट की दूरी 240.4 किलोमीटर, 4.10 घंटा का सफर
-आगरा से लखनऊ हाईकोर्ट बेंच की दूरी 336 किलोमीटर, 4.25 घंटा का सफर।
-आगरा से इलाहाबाद हाईकोर्ट की दूरी 474.7 किलोमीटर, 7.44 घंटा का सफर।
यह होगा फायदा
-पश्चिमी उप्र में बेंच की स्थापना होने पर आगरा क्षेत्र के 4000 से अधिक अधिवक्ताओं को फायदा होगा।
-इलाहाबाद हाईकोर्ट में 15 हजार प्रकरण लंबित हैं।
-इनमें से 75 फीसद पश्चिमी उप्र के प्रकरण हैं।
-आधा दर्जन से अधिक जिलों के अधिवक्ताओं को हाईकोर्ट बेंच में वकालत करने का मौका मिलेगा।
-पश्चिमी उप्र में कानून के जानकार बढ़ेंगे और रोजगार मिलेगा।
ऐसे चला अधिवक्ताओं का संघर्ष
24 अगस्त 2017 को मशाल जुलूस निकला।
6 जुलाई 2016 को आगरा बंद किया
5 दिसंबर 2013 को प्रभातफेरी निकाली गई।
25 अगस्त 2013 को भाजपा ने मशाल जुलूस निकाला।
5 दिसंबर 2012 को ताज पर प्रदर्शन
25 नवंबर 2012- खंडपीठ आंदोलन को संघर्ष।
14 दिसंबर 2011: कानून मंत्री सलमान खुर्शीद से मिला प्रतिनिधि मंडल।
8 दिसंबर 2011: वकीलों का कार्य का बहिष्कार किया।
25 अगस्त 2009: शहीद स्मारक तक पैदल मार्च।
1 मई 2009: अधिवक्ता संघ का आंदोलन।
अधिवक्ता मांग रहे न्याय
आगरा के नेताओं की कमजोरी की वजह से आगरा में उच्च न्यायालय खंडपीठ की स्थापना नहीं हो पाई है। पहले भी केंद्र और राज्य में एक ही सरकार थी, लेकिन खंडपीठ के मुद्दे को गंभीरता से नहीं लिया गया।
- केडी शर्मा, संयोजक, उच्च न्यायालय खंडपीठ स्थापना संघर्ष समिति।
जसवंत सिंह कमीशन की रिपोर्ट के बाद भी खंडपीठ की स्थापना को सत्ताधारी पार्टियों ने गंभीरता से नहीं लिया। संघर्ष समिति को राजनीतिक दलों के नेताओं से कोई उम्मीद नहीं। अधिवक्ता अपने संघर्ष के बूते खंडपीठ की स्थापना कराएंगे।
- अरुण सोलंकी, महासचिव, उच्च न्यायालय खंडपीठ स्थापना संघर्ष समिति।
बेंच स्थापना के लिए वर्षों से दीवानी में अधिवक्ता हड़ताल व आंदोलन करते रहे हैं। मेरठ और आगरा में कहां हो बेंच, इस विवाद में गृह मंत्री राजनाथ सिंह को सुझाव भी दिया था कि दोनों ओर से अधिवक्ताओं को एक साथ बैठाकर यमुना एक्सप्रेस वे पर कहीं स्थापना करा दी जाए। सरकार ने नहीं सुनी।
- संतोष शर्मा, अध्यक्ष बार एसोसिएशन, मथुरा।
आठ साल पहले वकीलों की इस मांग ने जोर पकड़ा था। उस दौरान आंदोलन को धार देने के लिए अधिवक्ताओं ने प्रत्येक शनिवार को न्यायिक कार्य से विरत रहकर अपनी मांग का समर्थन करने का निर्णय लिया था। ये क्रम जारी है। आंदोलन शुरू हुए, तबसे सूबे में तीन सरकारें बदल चुकी हैं।
-दिनेश यादव, अध्यक्ष, जिला बार एसोसिएशन कलक्ट्रेट मैनपुरी
आगरा में उच्च न्यायालय की खंडपीठ स्थापित कराने की मांग जायज है। जिले के वकीलों को लंबी यात्रा कर इलाहाबाद जाना पड़ता है। इसमें न सिर्फ समय बल्कि धन भी अधिक खर्च करना पड़ता है। इसके कारण न्याय भी महंगा हो गया है।
सौरभ यादव, अध्यक्ष, दीवानी बार एसोसिएशन, मैनपुरी
कई मुख्यमंत्रियों ने आगरा आकर वादा किया, लेकिन लखनऊ जाते ही भूल गए। इलाहाबाद फीरोजाबाद से सैकड़ों किलोमीटर दूर है। यदि आगरा में बेंच होगी तो लोगों को सस्ता और सुलभ न्याय हासिल होगा। रोजगार भी बढ़ेगा।
- नाहर सिंह यादव, सह संयोजक फीरोजाबाद, आगरा हाईकोर्ट बेंच स्थापना संघर्ष समिति