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War of 1971: एक जांबाज, जो कहीं 'लड़' रहा 49 साल से, खंगाल लीं दुश्‍मन की जेलेंं पर नहीं मिला योद्धा

9 दिसंबर 1971 की रात आगरा से बमवर्षक विमान से उड़ान भरने वाले फ्लाइट लेफ्टिनेंट मनोहर पुरोहित का आज तक पता नहीं चल सका है। राजस्थान में सीमा पर मिले थे विमान के अवशेष। परिवार के सदस्‍यों ने खोज के लिए हर जतन किए।

By Prateek GuptaEdited By: Published: Sat, 05 Dec 2020 02:15 PM (IST)Updated: Sat, 05 Dec 2020 02:15 PM (IST)
War of 1971: एक जांबाज, जो कहीं 'लड़' रहा 49 साल से, खंगाल लीं दुश्‍मन की जेलेंं पर नहीं मिला योद्धा
फ्लाइट लेफ्टिनेंट मनोहर पुरोहित का इंतजार करते उनकी पत्‍नी एवं पुत्र।

आगरा, राजीव शर्मा। दुश्मन आंख दिखाए तो जांबाज की भुजाएं फड़कना लाजिमी हैं। जंग को अंजाम तक पहुंचाने के लिए फौलादी जिगर काबू में कैसे रह सकता है। ऐसे ही एक जांबाज हैं फ्लाइट लेफ्टिनेंट मनोहर पुरोहित। पाक से जंग का एलान होते ही इस एयरफोर्स अफसर ने भी नौ दिसंबर, 1971 की रात आगरा एयरबेस से बमवर्षक विमान से दुश्मन के छक्के छुड़ाने के लिए उड़ान भरी थी। अगले दिन राजस्थान में सीमा पर विमान का मलबा मिला, मगर जंगजू नहीं। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खोज कराई गई। पाक की जेलें खंगाली गईं। सरकार अब तक स्थिति को स्पष्ट नहीं कर पाई है। स्वजन... उन्हें पूरा भरोसा है कि वे कहीं 'जंग' अवश्य लड़ रहे होंगे।

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पाकिस्तान के कब्जे में हैं मनोहर

जांबाज मनोहर पुरोहित की पत्नी सुमन पुरोहित बताती हैं कि विमान का मलबा मिलने के बाद भी पति का सुराग नहीं लगा। उनकी शादी को तब डेढ़ साल ही हुआ था। गोद में छह माह का बेटा था। उन पर तो बज्रपात हो गया था। तत्कालीन अधिकारियों ने जो उन्हेंं बताया, उस पर यकीन नहीं हुआ। वह उ''ााधिकारियों से मिलीं। वर्ष 1975 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पत्र भी लिखा। वर्ष 1985 में सरकार ने सूची जारी कर उनके पति सहित देश के 54 जांबाजों को लापता घोषित किया था। सुमन पुरोहित और उनके बेटे विपुल का मानना है कि युद्ध के दौरान परिस्थितिवश विमान में सवार सैनिकों को कूदना पड़ा होगा और उन्हेंं पाकिस्तानी सैनिकों ने बंदी बना लिया होगा, तब से वह(मनोहर पुरोहित) पाकिस्तान के ही कब्जे में हैं। यदि विमान में उनकी मौत हुई होती तो इसके कुछ साक्ष्य जरूर मिलते। यदि वह पैराशूट से देश की सीमा में कूदे होते तो अब तक उनका सुराग मिल गया होता।

नहीं हुए सार्थक प्रयास

सुमन पुरोहित ने अपने पति की तलाश में दिल्ली स्थित विभागीय अधिकारियों के दफ्तरों के चक्कर काटे। वह अब तक पीएम इंदिरा गांधी, चरण सिंह, राजीव गांधी, पीवी नरसिम्हा राव, एचडी देवगौड़ा, आइ के गुजराल, अटल बिहारी बाजपेयी, मनमोहन सिंह, नरेंद्र मोदी को पत्र लिख चुकी हैं। विपुल पुरोहित भी अपनी मां के इस संघर्ष में जुटे रहे। विपुल कहते हैं कि सरकार की ओर से अब तक सार्थक प्रयास नहीं हुए हैं।

पाक की कई जेलें खंगालीं

जुलाई 2001 में भारत और पाकिस्तान के बीच आगरा में शिखर वार्ता हुई थी। बकौल विपुल, इस दौरान मीडियाकॢमयों के साथ हुई बैठक में जब एयरफोर्स अफसर मनोहर पुरोहित का सवाल उठा तो पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने जवाब दिया था कि वह खुद फौजी हैं। अगर, इस तरह का मसला है तो पाकिस्तान की जेलों में जाकर इसकी जांच की जा सकती है। उनके इस बयान के बाद वर्ष 2007 में 14 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल पाकिस्तान गया। इसमें सुमन पुरोहित भी थीं, पर मनोहर पुरोहित नहीं मिले। सुमन का कहना है कि पाकिस्तान जेलों के दस्तावेज उर्दू में थे, उनके साथ कोई अनुवादक नहीं था। जेलों में से भारतीय कैदियों को भी हटा दिया गया था।

मिला प्रमोशन

पुरोहित सहित इस प्रकार के लापता सैन्य अफसरों को प्रमोशन भी मिले हैं। मनोहर पुरोहित को भी विंग कमांडर दर्शाते हुए वर्ष 1992 में सेवानिवृत्त माना गया। उनकी पत्नी सुमन को पेंशन भी मिलनी शुरू हो गई। सुमन पुरोहित ने पति के लौटने की उम्मीद अब भी नहीं छोड़ी है। सेना, सरकार के प्रयासों के साथ ही सुप्रीम कोर्ट में भी उनकी याचिकाएं लंबित हैं।

हाथ-पैर में धंस गई थी गोलियां, हेलमेट के टुकड़े-टुकड़े

देश के एक अन्‍य जांबाज रिटायर्ड हवलदार महावीर सिंह भदौरिया ने बताया कि मैं सेना में 1963 में भर्ती हुआ था। मुझे 18 राजपूत बटालियन आवंटित हुई थी। 1971 में पाक से युद्ध के दौरान मेरी तैनाती अगरतला में पूर्वी पाक बार्डर पर थी। मेरी बटालियन 18 राजपूत बंगलादेश को पाकिस्तान से आजाद कराने वाली सेना की टीम में शामिल हुई। हम अगरतला से जंग लड़ते-लड़ते अरवैरा, सोनेवाला, आंसूगंज, नर सिंधी तक पहुंचे थे। करीब 200 किमी का ये रास्ता पैदल ही पूरा किया। आंसूगंज में मेघना नदी के किनारे युद्ध के दौरान मौत से सामना भी हुआ। यहां दुश्मन की गोली मेरी दाहिनी बांह को भेदती हुई निकल गई। मैंने बहते खून को रोकने के लिए फील्ड पट्टी से बांह बांधी ही थी कि दूसरी गोली हेलमेट को छूती हुई निकल गई। हेलमेट के टुकड़े- टुकड़े हो गए। हम संभल भी न पाए थे कि एक गोली दांये पैर में आकर धंस गई। इसी फायङ्क्षरग में हमारा साथी हरेंद्र सिंह शहीद हो गया था। हमने पहाड़ी की आड़ ली और दुश्मन पर ताबड़तोड़ गोलियां बरसाते रहे। यहां हमारी टुकड़ी ने पाक के 80 सैनिक ढेर कर दिए थे। धर्मगढ़ और मुकुंदपुर पर घेराबंदी कर पाक के 65 सैनिक जिंदा पकड़ लिए थे।इतने लंबे रास्ते में पैदल चलते- चलते पैरों में छाले पड़ गए थे। वर्दी इतनी गंदी कि उसका रंग ही पता नहीं चल रहा था। कई बार तो ऐसा लगा कि अब शरीर साथ नहीं दे रहा है। युद्ध का मंजर देख दहल जाते, मगर अगले ही पल वतन के लिए बलिदान की तमन्ना या दुश्मन के छक्के छुड़ाने का जुनून हमें आगे बढ़ा देता था। 1987 में हवलदार पद से मैैं सेवानिवृत्त हुआ।

(जैसा बाह के बड़ागांव निवासी महावीर सिंह भदौरिया ने सत्येंद्र दुबे को बताया)


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