Move to Jagran APP

अतीत के गौरव का सफर

मध्य प्रदेश का एक जिला मुख्यालय है दतिया। इसकी ख्याति मां बगलामुखी शक्तिपीठ के लिए है, लेकिन पर्यटन के यहां कई और आकर्षण भी हैं। दतिया से थोड़ी ही दूर ऐतिहासिक महत्व का एक और कस्बा है ओरछा। अतीत के गौरव का बखान करते इन कस्बों के सफर पर चलें इष्ट देव सांकृत्यायन के साथ।

By Edited By: Published: Sat, 24 Dec 2011 01:38 PM (IST)Updated:
अतीत के गौरव का सफर

हम दतिया पहुंचे तो दिन के करीब सवा बज चुके थे। ट्रेन समय से थी, लेकिन भूख से हालत खराब होने लगी थी। लंबे प्लेटफॉर्म वाले इस छोटे स्टेशन पर सिर्फ ताज एक्सप्रेस से उतरा समूह दिख रहा था। बाहर टैंपुओं का झुंड खड़ा था। प्राय: सभी पीतांबरा पीठ की ओर ही जा रहे थे। स्टेशन से पीठ की दूरी केवल तीन किमी है। यह रास्ते की हालत और ट्रैफिक की तरतीब का कमाल था जो पौन घंटे में यह दूरी तय करके भी हम धन्य महसूस कर रहे थे। चूंकि हम सीधे मंदिर के प्रवेशद्वार पर ही पहुंचे थे, लिहाजा तय किया कि दर्शन के बाद ही कुछ और किया जाएगा। दोपहर का वक्त होने से भीड़ नहीं थी। मां का दरबार खुला था और हमें दिव्य दर्शन हो गए। अद्भुत अनुभूति थी।

loksabha election banner

वल्गा से बगला

इस पीठ की चर्चा मैंने करीब डेढ़ दशक पहले सुनी थी। गोरखपुर में डॉ. उदयभानु मिश्र और डॉ. अशोक पाण्डेय ने बगलामुखी माता और दतिया के बारे में बताया था। हालांकि जो कुछ मैंने समझा था उससे उस वक्त मेरे मन में आस्था कम और भय ज्यादा उत्पन्न हुआ था। बाद में मालूम हुआ कि बगला का अर्थ बगुला नहीं, बल्कि यह संस्कृत शब्द वल्गा का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ दुलहन है। मां के अलौकिक सौंदर्य के कारण यह नाम दिया गया। पीतवसना होने से इन्हें पीतांबरा भी कहते हैं। दस महाविद्याओं में आठवीं मां बगलामुखी की यहां स्थापित प्रतिमा स्वयंभू कही जाती है। पौराणिक कथा है कि सतयुग में आए एक भीषण तूफान से जब जगत का विनाश होने लगा तो भगवान विष्णु ने तप करके महात्रिपुरसुंदरी को प्रसन्न किया। तब गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र की हरिद्रा झील में जलक्रीड़ा करती महापीत देवी के हृदय से दिव्य तेज निकला। उसी से तूफान का अंत हुआ। तांत्रिक इन्हें स्तंभन की देवी मानते हैं और गृहस्थों के लिए यह समस्त प्रकार के संशयों का शमन करने वाली हैं।

अनुशासन हर तरफ

मुख्य मंदिर के भवन में ही एक लंबा बरामदा है, जहां कई साधक बैठे अनुष्ठान में लगे दिखे। सामने हरिद्रा सरोवर है। एक और भवन के बाहरी हिस्से में भगवान परशुराम, हनुमान, कालभैरव व कुछ अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाएं प्रतिष्ठित हैं। भवन के अंदर जाते ही पहले पुस्तकों की एक दुकान, फिर शिवालय है। तंत्र मार्ग का ऐसा षडाम्नाय शिवालय कम ही जगहों पर है। पीछे सातवीं महाविद्या मां धूमावती का मंदिर है। सौभाग्यवती स्त्रियों के लिए यहां इनका दर्शन निषिद्ध है। इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा भारत-चीन युद्ध के बाद की गई। बाई तरफ एक अन्य भवन में प्रतिष्ठित हनुमान प्रतिमा का दर्शन दूर से तो सभी लोग कर सकते हैं, पर निकट केवल वही जा सकते हैं जिन्होंने धोती या साड़ी धारण की हो। यह नियम बगलामुखी माता के मंदिर भवन में प्रवेश के लिए भी है। पैंट, पजामा या सलवार-कुर्ता पहने होने पर बाहर से ही दर्शन संभव है। कैमरा आदि लेकर जाना भी मना है। तंत्रपीठ होने के कारण अनुशासन कड़ा है। न तो यहां कहीं गंदगी दिखती है और न हर जगह चढ़ावा चढ़ा सकते हैं।

संस्कृत-संगीत की परंपरा

मुख्य मंदिर के सामने हरिद्रा सरोवर है और पीछे मंदिर कार्यालय व कुछ अन्य भवन। इन भवनों में संस्कृत ग्रंथालय और पाठशाला है। पीठ संस्थापक स्वामी जी महाराज संस्कृत भाषा-साहित्य व शास्त्रीय संगीत के अनन्य प्रेमी थे। शास्त्रीय संगीत की कई बड़ी हस्तियां स्वामी जी के ही कारण यहां आती रही हैं। मां बगलामुखी के दर्शन की वर्षो से लंबित अभिलाषा इस तरह आनन-फानन पूरी हुई। एक शाम हरिशंकर राढ़ी ने फोन पर कहा, हम लोग दतिया और ओरछा जा रहे हैं। आप भी चलते तो मजा आ जाता। पहले तो मुझे संशय हुआ, पर जब पता चला कि दो दिन में घूम कर लौटा जा सकता है और खर्च भी कुछ खास नहीं है तो मैं तुरंत तैयार हो गया। राढ़ी के साथ मैं, तेज सिंह, अजय तोमर और प्रकाश भी।

चल पड़े सोनागिरि

मंदिर में दर्शन के बाद तय नहीं हो पा रहा था कि आगे क्या किया जाए। तेज सिंह निकट के ही कस्बे टीकमगढ़ के रहने वाले हैं। वह चाहते थे कि सभी मित्र यहां से झांसी चलें और ओरछा होते हुए एक रात उनके घर ठहरें। जबकि राढ़ी जी एक बार और मां पीतांबरा का दर्शन करना चाहते थे। मेरा मन था कि आसपास की अन्य जगहें भी घूमी जाएं। दतिया से 15 किमी दूर जैन धर्मस्थल सोनागिरि है। 17 किमी दूर उनाव में बालाजी नाम से प्रागैतिहासिक काल का सूर्य मंदिर, गुजर्रा में अशोक का शिलालेख, 10 किमी दूर बडोनी में गुप्तकालीन अवशेष, भंडेर मार्ग पर बॉटैनिकल गार्डन, 4 किमी दूर पंचम कवि की तोरिया में प्राचीन भैरव मंदिर और उडनू की तोरिया में प्राचीन हनुमान मंदिर भी हैं। दतिया में दो मध्यकालीन महल हैं। एक सतखंडा और दूसरा राजगढ़। राजगढ़ पैलेस में संग्रहालय है। दतिया से 70 किमी दूर स्यौंधा सिंध नदी पर वाटरफॉल के अलावा कन्हरगढ़ फोर्ट और नंदनंदन मंदिर के लिए भी प्रसिद्ध है। 30 किमी दूर स्थित भंडेर में सोन तलैया, लक्ष्मण मंदिर और पुराना किला दर्शनीय हैं। महाभारत में इसका वर्णन भांडकपुर नाम से है। समय कम था, लिहाजा सभी तो नहीं लेकिन कुछ जगहें देखी ही जा सकती थीं। तय हुआ कि रात दतिया में रुकें। हमने मंदिर के पीछे ही मेन रोड पर एक होटल में कमरे बुक कराए और थोड़ी देर आराम के बाद सोनागिरि निकल पड़े।

अलौकिक अनुभूति

करीब 5 किमी ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलने के बाद ग्वालियर हाइवे मिला। पूरा रास्ता खूबसूरत। दूर से ही सोनागिरि पहाड़ी पर प्रकृति की बहुरंगी छटा के बीच श्वेत मंदिरों का समूह दिखा तो आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। इस पहाड़ी पर कुल 82 मंदिर हैं और नीचे गांव में 26। कुल मिला कर 108 मंदिरों वाला यह तीर्थ जैन धर्म की दिगंबर शाखा के लोगों के बीच अत्यंत पवित्र धर्मस्थल के रूप में मान्य है। मुख्य मंदिर में चंद्रप्रभु की ऊंची प्रतिमा प्रतिष्ठित है। शीतलनाथ व पा‌र्श्वनाथ की प्रतिमाएं भी प्रतिष्ठित हैं। 132 एकड़ क्षेत्रफल में फैली दो पहाडि़यों वाले इस क्षेत्र को लघु सम्मेद शिखर कहते हैं। शाम करीब साढ़े सात बजे हम दतिया पहुंचे। होटल से हम तुरंत पीतांबरा मंदिर निकल गए। रात की मुख्य आरती 8 बजे शुरू होती है। उसमें शामिल होने के बाद देर तक मंदिर परिसर में घूमते रहे। इस समय भीड़ बहुत बढ़ गई थी। अगले दिन सुबह हम दतिया छोड़ झांसी चल पड़े।

आस्था का सौंदर्य

कालिदास का मेघदूत मेहरबान था। पूरे रास्ते मूसलाधार बारिश का मजा लेते दिन के साढ़े दस बजे ओरछा पहुंचे। पर्यटन स्थल होने के नाते यह एक व्यवस्थित कस्बा है। सड़क के दाई ओर मंदिर हैं और बाई ओर किला। सबसे पहले हम रामराजा मंदिर के दर्शन के लिए ही गए। बड़े परिसर में मौजूद यह मंदिर काफी बड़ा और व्यवस्थित है। इसके बाद हमने बगल में ही प्रतिष्ठित चतुर्भुज मंदिर का दर्शन किया। पुरातत्व की दृष्टि से महत्वपूर्ण भव्य चतुर्भुज मंदिर के चारों तरफ सुंदर झरोखे और दीवारों पर आले व दीपदान हैं। छत की नक्काशी बेजोड़ है। हालांकि इसका रखरखाव अब कमजोर पड़ गया है। पीछे थोड़ी दूरी पर लक्ष्मीनारायण मंदिर है। आसपास कुछ और मंदिर भी हैं। रामराजा मंदिर के दूसरे बाजू में हरदौल जी का बैठका दिखा। वर्गाकार घेरे में बना यह बैठका रियासत की समृद्धि का जीवंत साक्ष्य है। आंगन के बीच में शिवालय भी है। सावन का महीना होने से यहां काफी भीड़ थी। बाहर निकले तो 12 बज चुके थे। भोजन अनिवार्य हो गया था, लिहाजा रामराजा मंदिर के सामने ही एक ढाबे में भोजन किया।

स्थापत्य के अनूठे नमूने

मंदिरों के ठीक सामने ही सड़क पार किला है। हम उधर निकल पड़े। यहां प्रति व्यक्ति दस रुपये का टिकट लगता है। कई विदेशी सैलानी भी वहां घूम रहे थे। किले के भीतर महलों के अलावा दो मंदिर हैं, एक संग्रहालय और एक तोपखाना भी। पीछे कई और छोटे-बड़े निर्माण हैं। मुख्य महलों को छोड़कर बाकी सब ढह से गए हैं। सबसे पहले हम रानी महल देखने गए। मध्यकालीन स्थापत्य वाले इस महल की सज्जा में प्राचीन कलाओं का प्रभाव साफ दिखता है। महल की कई जगहों से चतुर्भुज मंदिर की स्पष्ट झलक मिलती है। एक झरोखा ऐसा भी है जहां से चतुर्भुज और रामराजा मंदिर दोनों के दर्शन किए जा सकते हैं। कहा जाता है कि यहीं से रानी स्वयं दर्शन करती थीं। राजा मधुकर शाह की महारानी राम की अनन्य भक्त थीं और यहां राम मंदिर उनके द्वारा ही स्थापित है। इसके पीछे जहांगीर महल का निर्माण 17वीं शताब्दी में मुगल सम्राट जहांगीर के सम्मान में राजा बीर सिंह देव ने करवाया था। वर्गाकार विन्यास में बने इस महल के चारों कोनों पर बुर्ज हैं। जालियों के नीचे हाथियों और पक्षियों के अलंकरण हैं। ऊपर छोटे-छोटे कई गुंबदों की श्रृंखला और बीच में कुछ बड़े गुंबद हैं। हिंदू व मुगल दोनों स्थापत्य कलाओं का असर इस पर दिखता है। यही इसकी विशिष्टता है। भीतर कुछ कमरों में सुंदर चित्रकारी है। 136 कक्षों वाले इस महल के बीचोंबीच एक बड़ा सा हौजनुमा निर्माण है। इसके चारों कोनों पर चार छोटे-छोटे अष्टकोणीय कुएं जैसे हैं। इनकी गहराई मामूली है। शायद यह हम्माम के तौर पर बनवाया गया हो। महल के पीछे मीलों तक फैली बेतवा नदी की घाटी है। दूर तक फैली इस हरियाली के बीच कई छोटे-बड़े निर्माण और कुछ ध्वंसावशेष हैं। बेतवा की निर्मल जलधारा भी क्षीण सी दिख रही थी। भीतर गाइड किसी विदेशी पर्यटक जोड़े को टूटी-फूटी अंग्रेजी में बता रहा था, पुराने जमाने में महल के नीचे से एक सुरंग बनी थी, जो बेतवा के पार जाकर निकलती थी। आगे उसने बताया कि महल का निर्माण 22 साल में हुआ और जहांगीर इसमें टिके सिर्फ एक रात थे। राढ़ी जी गाइड के ज्ञान से ज्यादा उसके आत्मविश्वास पर दंग थे।

कैसे पहुंचें

दतिया : दतिया के लिए नई दिल्ली से सीधी ट्रेनें हैं। सड़क मार्ग से ग्वालियर होते हुए यहां पहुंचा जा सकता है। दिल्ली से यहां पहुंचने में छह से आठ घंटे तक लग सकते हैं।

ओरछा : दतिया से झांसी होते हुए ओरछा जाया जा सकता है। झांसी के लिए दिल्ली व मुंबई से भी सीधी ट्रेनें हैं। वहां से टैक्सी द्वारा एक घंटे में ओरछा पहुंच सकते हैं।

स्थानीय भ्रमण : बेहतर यही है कि टैक्सी बुक कर लें।

कहां ठहरें : बजट और महंगे दोनों तरह के होटल दतिया व ओरछा में मौजूद हैं।

सभ्रूभंगं मुखमिव पयो.. 

महलों की नॉस्टैल्जिया से उबरे तो सीधे बेतवा की ओर चल पड़े। मुश्किल से 10 मिनट की पैदल यात्रा के बाद हम नदी तट पर थे। नदी की अभी शांत दिख रही जलधारा के बीच-बीच में खड़े लाल पत्थर के टीले अपने शौर्य की कथा कह रहे थे या बेतवा के वेग से पराजय की दास्तान, तय कर पाना मुश्किल हो रहा था। मुझे मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास बेतवा बहती रही के चरित्र याद आए तो राढ़ी जी कालिदास के मेघदूत को याद करने लगे-

तेषां दिक्षु प्रथित विदिशा लक्षणां राजधानीं 

गत्वासद्य: फलमविकलं कामुकत्वस्य लब्धा। 

तीरोपांत स्तनित सुभगं पास्यसि स्वादु यस्मात् 

सभ्रूभंगं मुखमिव पयो वेत्रवत्याश्चलोर्मि।।

कालिदास का प्रवासी यक्ष अपने संदेशवाहक मित्र मेघ को रास्ते की जानकारी देते हुए कहता है- हे मित्र! जब तू इस दशार्ण देश की राजधानी विदिशा में पहुंचेगा, तो तुझे वहां विलास की सब सामग्री मिल जाएगी। जब तू वहां सुहानी और मनभावनी नाचती हुई लहरों वाली वेत्रवती के तट पर गर्जन करके उसका मीठा जल पीएगा, तब तुझे ऐसा लगेगा कि मानो तू किसी कटीली भौंहों वाली कामिनी के ओठों का रस पी रहा है। बेतवा का ही पुराना नाम है वेत्रवती और संस्कृत में वेत्र का अर्थ बेंत है। कालिदास का यह वर्णन किसी हद तक आज भी सही लगता है। इसके सौंदर्य की प्रशंसा बाणभट्ट ने भी कादंबरी में की है। वैसे वराह पुराण में इसी वेत्रवती को वरुण की पत्नी और राक्षस वेत्रासुर की मां बताया गया है। शायद इसीलिए इसमें सृजन और संहार दोनों शक्तियां समाहित हैं। गंगा, यमुना व मंदाकिनी की तरह बेतवा के तट पर भी रोज शाम को आरती होती है। लेकिन बेतवा की आरती में हिस्सेदारी हमारी नियति में नहीं था। हमें झांसी से ताज एक्सप्रेस पकड़नी थी, जो तीन बजे छूट जाती थी। लिहाजा डेढ़ बजते ही हमने ओरछा और बेतवा के सौंदर्य के प्रति अपना मोह बटोरा और चल पड़े वापसी के लिए टैंपो की तलाश में।

इष्ट देव सांकृत्यायन

मोबाइल पर ताजा खबरें, फोटो, वीडियो व लाइव स्कोर देखने के लिए जाएं m.jagran.com पर


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.