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अब चोरों को पकड़ना होगा बहुत आसान

अमेरिका की तमाम आधुनिक तकनीकों का उपयोग करते हुए एक बार तो आपके दिमाग में यह बात जरूर आती होगी कि काश यह तकनीक भारत में भी होती। हर भारतीय भारत को खुद की बनाई हुई आधुनिक तकनीकों से लैस देखना चाहता है। पर जब हम दूसरों की बनाई तकनीकें इस्तेमाल करने को मजबूर होते हैं तो एक बार को बुरा तो जरूर लगता है। एक

By Edited By: Published: Mon, 01 Jul 2013 03:31 PM (IST)Updated: Mon, 01 Jul 2013 03:31 PM (IST)
अब चोरों को पकड़ना होगा बहुत आसान

अमेरिका की तमाम आधुनिक तकनीकों का उपयोग करते हुए एक बार तो आपके दिमाग में यह बात जरूर आती होगी कि काश यह तकनीक भारत में भी होती। हर भारतीय भारत को खुद की बनाई हुई आधुनिक तकनीकों से लैस देखना चाहता है। पर जब हम दूसरों की बनाई तकनीकें इस्तेमाल करने को मजबूर होते हैं तो एक बार को बुरा तो जरूर लगता है। एक बारगी आप जरूर सोचते होंगे कि काश हमारे भारत में नासा जैसा स्पेस सेंटर होता और वहां की ही तरह हमारे यहां भी अत्याधुनिक सैटेलाइट तकनीक विकसित हो पाते। अब नासा तो यहां उठकर आ नहीं सकता, पर हां, हमारे वैज्ञानिकों ने एक अत्यंत ही उच्च तकनीक खुद विकसित कर ली है-जीपीएस की तकनीक।

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जी हां, आपने जीपीएस के बारे में तो जरूर सुना होगा और इसका इस्तेमाल भी किया होगा। पर यह एक अमेरिकी क्रांतिकारी तकनीक है। भारत के पास अपनी जीपीएस प्रणाली नहीं है। इसरो के वैज्ञानिक पिछले 9 सालों से अपनी जीपीएस तकनीक विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं जिसमें उन्हें सफलता मिल गई है। इस तकनीक के आने से भारत में सुरक्षा को लेकर कई क्रांतिकारी परिवर्तन होंगे।

क्या है जीपीएस?

जीपीएस एक ऐसी प्रणाली है जो अंतरिक्ष में सैटेलाइट नेविगेशन के जरिए किसी भी मौसम में लोकेशन तथा समय की जानकारी देता है।

भारत की तकनीक

इसरो पिछले नौ सालों से अपनी खुद की जीपीएस तकनीक विकसित करने की कोशिश कर रहा है। इसरो अपनी इंडियन रीजनल नेविगेशन सैटेलाइट सिस्टम (आईआरएनएसएस) सैटेलाइट को 1 जुलाई को लॉंच करने वाला है।

आईआरएनएसएस के तहत भारत अपने भौगोलिक प्रदेशों तथा अपने आसपास के कुछ क्षेत्रों तक नेविगेशन की सुविधा रख पाएगा। इसके तहत भारतीय वैज्ञानिक 7 नेविगेशन सैटेलाइट अंतरिक्ष में प्रक्षेपित करेंगे जो 36000 कि.मी. की दूरी पर पृथ्वी की कक्षा का चक्कर लगाएंगे। यह भारत तथा इसके आसपास के 1500 किलोमीटर के दायरे में चक्कर लगाएंगे। 2006 में इस प्रणाली को विकसित करने के लिए भारत सरकार ने इसरो को 1420 करोड़ की राशि की मंजूर की थी जिससे आज इस प्रणाली के लिए 7 सैटेलाइट प्रक्षेपित करने के लिए तैयार किए गए हैं। इसरो के चेयरमैन के. राधाकृष्णन के अनुसार जरूरत पड़ने पर उपग्रहों की संख्या बढ़ाकर नेविगेशन क्षेत्र में और विस्तार किया जा सकता है।

कैसे काम करता है आईआरएनएसएस?

आईआरएनएसएस दो माइक्रोवेव फ्रीक्वेंसी बैंड, जो एल 5 और एस के नाम से जाने जाते हैं, पर सिग्नल देते हैं। यह 'स्टैंडर्ड पोजीशनिंग सर्विस' तथा 'रिस्ट्रिक्टेड सर्विस' की सुविधा प्रदान करेगा। इसकी 'स्टैंडर्ड पोजीशनिंग सर्विस' सुविधा जहां भारत में किसी भी क्षेत्र में किसी भी आदमी की स्थिति बताएगा, वहीं 'रिस्ट्रिक्टेड सर्विस' सेना तथा महत्वपूर्ण सरकारी कार्यालयों के लिए सुविधाएं प्रदान करेगा।

जीपीएस से किस प्रकार अलग और बेहतर है आईआरएनएसएस?

इसरो ने आईआरएनएसएस पर जारी अपने वक्तव्य में कहा है कि यह अमेरिकन नेविगेशन सिस्टम जीपीएस से कहीं अधिक बेहतर है। मात्र 7 सैटेलाइट के जरिए यह अभी 20 मीटर के रेंज में नेविगेशन की सुविधा दे सकता है, जबकि उम्मीद की जा रही है कि यह इससे भी बेहतर 15 मीटर रेंज में भी यह सुविधा देगा। जीपीएस की इस कार्यक्षमता के लिए 24 सैटेलाइट काम करते हैं, जबकि आईआरएनएसएस के लिए मात्र सात।

आईआरएनएसएस के लाभ

आईआरएनएसएस सुरक्षा की दृष्टि से हर प्रकार से लाभकारी है। खासकर सुरक्षा एजेंसियों और सेना के लिए। अमेरिका में अपनी जीपीएस प्रणाली के कारण चोरों या किसी भी संदिग्ध को ढूंढ़ना ज्यादा आसान होता है, जबकि अब तक भारत के पास ऐसी अपनी प्रणाली न होने के कारण यह थोड़ा मुश्किल होता है। इस प्रणाली के आ जाने से किसी भी संदिग्ध व्यक्ति या लोकेशन को ट्रैक किया जा सकेगा। इससे भारतीय पुलिस प्रणाली जहां तकनीकी रूप से सक्षम होगी, अपराधियों को पकडना भी ज्यादा आसान होगा। इसके अलावे सेना के लिए सीमा पर संदिग्ध गतिविधियों पर नजर रखना ज्यादा आसान होगा। इतना ही नहीं अमेरिका से जीपीएस की महंगी सुविधा लेने की जरूरत इससे खत्म हो जाएगी, जो आर्थिक रूप से भी भारत के लिए मददगार होगा।

आम आदमी किस प्रकार इसका लाभ उठा सकता है? अभी उपलब्ध अमेरिकन जीपीएस रिसीवर पर यह काम नहीं कर सकता। अत:, आईआरएनएसएस की सुविधा का लाभ लेने के लिए आपको इंडियन सैटेलाइट सिस्टम द्वारा इसके तैयार रिसीवर खरीदने पड़ेंगे।

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