ढाई आखर प्रेम का..
संत कबीर के अनुसार, विद्वान होने के लिए मोटी-मोटी पोथियां पढ़ने की नहीं, बल्कि खुद से, खुदा के बंदों से प्रेम करने की जरूरत है। यही पूजा है और यही परमात्मा से मिलन। संत कबीर जयंती (13 जून) पर आलेख.. धर्म के बारे में एक बेहद संजीदा सवाल अक्सर लोगों के मन में उठता है कि 'यह
संत कबीर के अनुसार, विद्वान होने के लिए मोटी-मोटी पोथियां पढ़ने की नहीं, बल्कि खुद से, खुदा के बंदों से प्रेम करने की जरूरत है। यही पूजा है और यही परमात्मा से मिलन। संत कबीर जयंती (13 जून) पर आलेख..
धर्म के बारे में एक बेहद संजीदा सवाल अक्सर लोगों के मन में उठता है कि 'यह जानने की चीज है, मानने की चीज है या फिर यह कुछ करने की चीज है।' इस सवाल का उठना सदा-सदा के लिए बंद हो जाता है, जब हम उस शख्स के विचार पढ़ते हैं, जो खुद में निपट अनपढ़ था। जो न तो कोई ऋषि-मुनि था और न ही कोई त्यागी-तपस्वी। जो महज एक बुनकर था और जिसने कपड़ा बुनते-बुनते ही जीवन और धर्म का ताना-बाना बुन लिया था।
जी हां, हमारा देश उसे संत कबीर के नाम से जानता है। जिंदगी तथा धर्म की सबसे गूढ़ बातों को जितनी सरलता से उन्होंने रखा, वह कबीर जैसे 'अनपढ़-विद्वान' के ही बूते की बात थी, क्योंकि वे पढ़ी हुई बातें नहीं, अनुभव की हुई बातें कहते थे।
लोग आज 'स्प्रिचुएलिटी' के पीछे पागल हैं - योगा, ध्यान, दान, रात्रि-जागरण, भंडारा, तीर्थयात्रा से लेकर न जाने क्या-क्या प्रपंच। कबीर की इस एक लाइन को गुन लीजिए, सारा अध्यात्म अंदर उतर जाएगा। वह लाइन है, 'जस की तस धर दीनी चदरिया।' चाहे धर्म हो या अध्यात्म, वह कहीं बाहर नहीं है। वह तो व्यक्ति में जन्म से ही उसी तरह निहित है, जैसे कि आग में ताप समाई रहती है। इसलिए समस्या अध्यात्म को कहीं बाहर से लाने की नहीं है। जरूरत तो इस बात की है कि जो हमारे पास पहले से ही है, उसे बचाकर कैसे रखा जाए? इस साफ-सुथरी चादर को दागों से कैसे बचाया जाए? अध्यात्म के क्षेत्र की जो बड़ी चुनौती है, वह पाने की नहीं, बल्कि पहले से ही पाए हुए को बचाकर रखने की है। यानी हर व्यक्ति अपने आप में ही अध्यात्म का मूर्त रूप है।
जाहिर है कि जो व्यक्ति खुदा के बंदों में ही खुदा को देखेगा, वही बड़े-बड़े पंडितों का मजाक उड़ाते हुए यह उद्घोष करने की हिम्मत जुटा सकता है कि 'ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय।' यह है विद्वान बनने का उपाय। मोटी-मोटी पोथियों को पढ़ने की जरूरत ही नहीं है। खुद से प्रेम करो, फिर प्रेम करो खुदा के बंदों से, बस हो गई इबादत और हो गया परमात्मा से मिलन। जिस दिन पानी से भरा हुआ यह घड़ा फूटेगा, इसका पानी अपने आप ही पानी में समा जाएगा। हां, इस बात का ध्यान जरूर रखा जाना चाहिए कि हम पानी में रहें, तभी तो पानी पानी में समा सकेगा। अन्यथा वह उसमें समा जाएगा, जिसमें हम रहेंगे। प्रेम में रहना पानी में ही रहना है, परमात्मा के साथ ही रहना है। तभी तो चौबीसों घंटे प्रेम में सराबोर रहने वाले कबीर दास ताल ठोंककर यह कह सके कि 'जित देखूं तित लाल।' लाल यानी कि ईश्वर, लाल यानी कि प्रेम अर्थात प्रेम ही ईश्वर है।
प्रेम का ऐसा विलक्षण पुजारी भला आदमी-आदमी में, धर्म-धर्म में और ईश्वर-ईश्वर में भेद कैसे मान सकता है। इसलिए जहां-जहां भी कबीर को ये भेद किसी भी रूप में दिखाई पड़ते थे, वे आपा खो बैठते थे। ऐसे समय में उनका प्रेम से भरा हुआ दिल चीत्कार करता हुआ विद्रोही हो जाता था और 'झीनी-झीनी बीनी चदरिया' की मधुर तान सुनाने वाले गले से धिक्कार और चेतावनी से तीखे बोल फूटने लगते थे। किसी के प्रति गहरा प्यार ही विद्रोह के रूप में फूटता है और यही कबीर के साथ होता था।
अब सवाल यह उठता है कि प्रेम की यह भावना आएगी कैसे? क्या कुछ किया जाए कि 'न तो चादर मैली हो और न ही चुनरिया में कोई दाग ही लगे।' कबीर हमें इसका उपाय भी बताते हैं, और यह उपाय जीवन का बहुत ही व्यावहारिक उपाय है। इनमें पहला और सबसे महत्वपूर्ण उपाय है- अपना आत्मनिरीक्षण करने का, आत्मावलोकन करने का। दूसरों के अंदर तो हम हमेशा झांककर वहां कुछ न कुछ बुराई ढूंढ निकालते हैं। लेकिन यदि यही काम एक बार पूरी ईमानदारी से खुद के साथ कर लें, तो पहली बार इस कटु सत्य से हमारा साक्षात्कार होगा कि 'मुझ सा बुरा न कोय।' जब यह सत्य उद्घाटित होगा, तो हम अच्छे बनने की प्रक्रिया शुरू कर सकते हैं।
अब दूसरा उपाय। यह उपाय अपने मन को निर्मल बनाए रखने के लिए है। कबीर ने कहा है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी निंदा करने वालों को अपने पड़ोस में बसाकर रखना चाहिए। ऐसा इसलिए, क्योंकि उसकी निंदा हमेशा मन के लिए साबुन का काम करती रहेगी और इससे मन साफ-सुथरा और कोमल बना रहेगा। जब मन निर्मल हो जाएगा, तो उस जमीन पर प्रेम की फसल अपने-आप ही लहलहा उठेगी।