'तत् त्वम असि', श्री श्री रविशंकर से जानिए क्या है ईश्वर की परिभाषा?
जब मैं विलीन हो जाता है तब ईश्वर के अस्तित्व का अनुभव होता है। या तो आपका अस्तित्व होता है या फिर ईश्वर का अस्तित्व। दोनों एक साथ नहीं हो सकते। जब आप ईश्वर से एकाकार हो जाते हैं तब आप ईश्वर ही बन जाते हैं।
श्री श्री रविशंकर (योग गुरु, द आर्ट आफ लिविंग) | ईश्वर क्या है? ईश्वर की परिभाषा क्या है? जब आप इन प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास करते हैं, तो वह उत्तर आपके मन में पहले से बैठी धारणा से उद्भूत होता है। सरल शब्दों में आप ईश्वर का वर्णन इस प्रकार कर सकते हैं कि ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है, सर्वशक्तिमान है, इस सृष्टि का रचयिता, संरक्षणकर्ता एवं विलयकर्ता है। जब आप कहते हैं कि 'मैं ईश्वर को देखना चाहता हूं' और आप ईश्वर को किसी एक मानव रूप या वस्तु के रूप में देखना चाहते हैं, तब ईश्वर कहीं नहीं दिखता। क्योंकि आपके और ईश्वर के बीच एक दूरी हो जाती है। आपकी ईश्वर को अलग व्यक्ति के रूप में देखने की इच्छा है, तो ऐसी अवस्था में ईश्वर सर्व व्याप्त नहीं है। आपने उसे दूर और सीमित कर दिया।
जैसे प्रेम को हृदय में प्रतीत किया जाता है, उसी प्रकार ईश्वर की उपस्थिति को भी अत्यंत निकट प्रतीत किया जाता है। आप हवा को देख नहीं सकते हैं, लेकिन आप हवा को महसूस कर सकते हैं। आप गर्मी या ठंडक को देख नहीं सकते हैं, आप उसे केवल महसूस कर सकते हैं। इसी प्रकार ईश्वर को भी देखा नहीं जा सकता है। यदि आप ईश्वर को कहीं बाहर देखते हैं, तो आप ईश्वर को अपने से कहीं दूर और पृथक महसूस करते हैं। ईश्वर कोई पृथक वस्तु नहीं है। ईश्वर सब कुछ है। जब 'मैं' विलीन हो जाता है, तब ईश्वर के अस्तित्व का अनुभव होता है। जब 'मैं' रहता है, तब ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव नहीं होता। या तो आपका अस्तित्व होता है या फिर ईश्वर का अस्तित्व। दोनों एक साथ नहीं हो सकते। जब आप ध्यान करते हैं, तब आप ईश्वर से एकाकार हो जाते हैं। तब आप ईश्वर ही बन जाते हैं। इसीलिए 'तत्वमसि' कहा गया है, जिसका अर्थ है, तुम वही हो। ईश्वर को हृदय की गहराई में अनुभूत किया जा सकता है। गहरे ध्यान में जब आपका मन स्थिर, शांत और रिक्त होता है, तब आप अचानक ही यह महसूस करते हैं कि मैं नहीं हूं। केवल एक महान अस्तित्व ही है। यही अवस्था है ईश्वर का अनुभव करने की। अत: ईश्वर को जानने के बारे में चिंता मत कीजिए। पहले स्वयं को जानिए, तब ईश्वर को भी जान जाएंगे।
आप यदि यह सोचते हैं कि आप मात्र एक शरीर हैं, तब स्वयं को जानना संभव नहीं है। क्योंकि शरीर की सीमाएं हैं। यदि आप यह सोचते हैं कि आप एक मन हैं, तब भी स्वयं को जानना संभव नहीं है। क्योंकि, मन की भी सीमाएं हैं। यह एक अन्य स्तर है। यदि आप यह जान लेते हैं कि आप मौन हैं, आप खाली आकाश हैं, तब स्वयं को जानना संभव हो सकता है। ईश्वर भी निरभ्र आकाश हैं। क्या आप रिक्त आकाश को पृथक करके देख सकते हैं? रिक्त आकाश तीन प्रकार का होता है-पहला, भूताकाश, यह बाहरी स्थान है, जिसमें सारा ब्रह्मांड व्याप्त है। दूसरा, चित्ताकाश, जो आपके मन में कर्मों की छाप, विचार और स्वप्नों का संसार होता है। आप उस संसार में रहते हैं और सारे दृश्य आपके मन में आते हैं। तीसरा है चिदाकाश, जो चेतना का आकाश है और सर्वव्याप्त है। चेतना सृष्टि का आधार है, वही ईश्वर है, वही सर्वज्ञाता है।
वास्तव में, ईश्वर के अलावा कुछ और है ही नहीं। ईश्वर वह है, जो हर समय हर जगह पर व्याप्त है। आत्मा और परमात्मा के बारे में अधिक दर्शनशास्त्र में न उलझें। ईश्वर के बारे में भूल जाएं और इस क्षण का निरीक्षण करें। इस क्षण का भी अपना एक मन है। संपूर्ण अस्तित्व का भी अपना एक मन होता है। जैसे आपका एक मन है और इसमें इतनी बुद्धिमत्ता है, जो सबकुछ व्यवस्थित रखता है, उसी प्रकार मन इस क्षण को देखता है। इस मन को ही आप आत्मा या ईश्वर कह सकते हैं और आप भी वही हैं। बीता हुआ कल अब नहीं है, आने वाला कल यहां नहीं है। लेकिन, वर्तमान क्षण अभी यहीं है। इस क्षण का आदर करें, प्रशंसा करें। यह क्षण समतल नहीं है, बहुत गहरा है। जब इस बात को आप मस्तिष्क से स्वीकार करते हैं, तब आपके पास नई दिशाओं में सोचते हुए बहुत सारे विचार हो सकते हैं। हृदय से आप गहराई का अनुभव करते हैं और जब ये दोनों साथ मिल जाएं, तब सच्चे ज्ञान की प्राप्ति होती है।
मिट जाता है ईश्वर-भक्त का भेद
एक बार भगवान राम ने हनुमान जी के प्रेम, उनकी भक्ति और निष्ठा को देखकर उनसे प्रश्न किया कि 'हनुमान होने में तुम कैसा अनुभव करते हो?' हनुमान जी ने भगवान राम से कहा, 'जब मैं शरीर चेतना में होता हूं, तब मैं आपका सेवक होता हूं। तब मुझे लगता है कि मैं कोई व्यक्ति हूं। जब मैं आत्मचेतना में होता हूं, तब मैं आपका ही अंश होता हूं। जब मैं स्वयं चेतना होता हूं, तब मैं आप ही हो जाता हूं। आपके और मेरे बीच का अंतर मिट जाता है।'