तर्पण, अर्पण और समर्पण का पिंडदान
श्रद्धा का भाव। पितरों के प्रति पुत्रों की आस्था। सब कुछ समर्पण करने की लालसा। यहीं से शुरू होता है गयाजी का पिंडदान। प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी से प्रारंभ होकर आश्रि्वन शुक्ल प्रतिपदा तक चलने वाला यह 'श्राद्धकर्म' पूरी श्रद्धा और अर्पण के भाव से किया जाता है। पौराणिक पुस्तकें बताती हैं कि गयाजी में 365 वेदियां कभी थी। जिस पर
गया। श्रद्धा का भाव। पितरों के प्रति पुत्रों की आस्था। सब कुछ समर्पण करने की लालसा। यहीं से शुरू होता है गयाजी का पिंडदान। प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी से प्रारंभ होकर आश्रि्वन शुक्ल प्रतिपदा तक चलने वाला यह 'श्राद्धकर्म' पूरी श्रद्धा और अर्पण के भाव से किया जाता है।
पौराणिक पुस्तकें बताती हैं कि गयाजी में 365 वेदियां कभी थी। जिस पर प्रतिदिन पिंडदान करने का विधान था। उस समय लोगों के पास समय सीमा की कोई बाध्यता नहीं थी। पूरी निश्चिंतता के साथ पितरों को साल भर एक-एक पिंड पर जा-जाकर तर्पण और अर्पण का कर्मकांड पूरा किया जाता था। समय बदलता गया। पिंडवेदियां भी लुप्त होती गई। आज 54 पिंडवेदियां गयाजी के पांच कोस के अंदर हैं। जिन पर 15 दिनों तक पुत्र अपने पितरों को नमन कर समर्पण का भाव रखेंगे। चूंकि यह पख पौराणिक आस्था पर निर्धारित है। वैसे में यहां की पिंडवेदियां सिर्फ इसी पख में जीवंत होती हैं। कुछ अपवाद के तौर पर हैं। जैसे विष्णुपद, अक्षयवट, प्रेतशिला, रामशिला, गायत्री घाट, देवघाट, फल्गु आदि-आदि। जबकि अधिकांश पिंडवेदियों पर प्रशासन द्वारा 15 दिनों के लिए रंगरोगन कर उन्हें 'वेदी' का रूप दिया जाता है।
कहीं-कहीं पर तो तीर्थयात्रियों को यह भी पता नहीं चलता कि यह कौन वेदी है। पुरोहित ने जो बताया वही सही है। एक पखवारे तक चलने वाले इस मेले में पितरों के प्रति श्रद्धा का यह भाव का शुभारंभ फल्गु नदी में तर्पण से होता है। फल्गु के उद्ध्व के संदर्भ में कहा गया है कि ब्रहमा जी द्वारा जगत कल्याण हेतु इसे स्वर्ग से पृथ्वी पर लाया गया। यह नद नहीं तीर्थ है। भगवान विष्णु के दाहिने पैर के अंगूठे से फल्गु का उद्भव भी स्वीकार किया गया है। वैसे में विद्वान पुरुष तो यह भी बताते हैं कि फल्गु के जल में पुत्र के प्रवेश करने के बाद ही उनके कुल को मुक्ति मिल जाती है। यह मान्यता सिर्फ एक पिंडस्थल का है जहां से पख के पहले दिन का शुभारंभ होता है। इसी तरह प्रत्येक वेदी का अपना-अपना महत्व और धार्मिक मान्यता है। जिसे लेकर आज भी लोग अपने पूर्वजों को तृप्त करने का भाव लेकर यहां आते हैं और 15 दिनों तक इहंलोक के तार परलोक से जुड़े रहते हैं।