परमहंस योगानंद बताते हैं मन बच्चे की तरह होना चाहिए
मन और मानसिक शक्ति का प्रज्ञा के साथ जब मेल होता है तभी होती है जीवन में महान लक्ष्यों की प्राप्ति कुछ ऐसी ही है परमहंस योगानंद की शिक्षा।
संवेदनाओं का पुंज भर है शरीर
भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों से संपन्न होता है मनुष्य। वह इन शक्तियों को प्रयोग में ला सकता है। उनके उचित प्रयोग द्वारा वह वांछित परिणामों को पा सकता है। बाल्यावस्था में शरीर मन के प्रति अधिक संवेदनशील होता है। मन अधिक सुगमतापूर्वक शरीर से अपने आदेशों का पालन करवा सकता है। बाद में जब बच्चे में विभिन्न आदतों का विकास हो जाता है, तो मन और शरीर पहले की भांति सामंजस्य के साथ कार्य नहीं करते हैं। एक बच्चे की तरह हमारा शरीर मन के नियंत्रण में होना चाहिए। शरीर केवल संवेदनाओं का एक पुंज है। संवेदनाओं को अपने से अलग करना आसान नहीं है, लेकिन हमें निरंतर इस चेतना में रहना चाहिए कि आत्मा के रूप में परमात्मा हमारे साथ हैं।
मानसिक शक्ति से ही होती है अनुभूति
जब मन, शरीर एवं उसकी मांगों के पूर्णत: अधीन होता है, जैसे कि अधिकतर लोगों के साथ होता है, तो मन को शरीर से अलग करने का अभ्यास करना चाहिए। आरंभ में धीरे-धीरे छोटी-छोटी वस्तुओं से मन को अलग करना उत्तम होता है। दिव्य चेतना में आपको यह अनुभव होता है कि आत्मा रूप में आपके कोई हाथ, पैर, आंखें अथवा कान नहीं हैं और न ही आपको इन शारीरिक अंगों की आवश्यकता है, फिर भी आप इन शारीरिक अंगों का उपयोग कर सकते हैं। केवल मानसिक शक्ति के द्वारा सुनना, देखना, सूंघना, चखना एवं स्पर्श करना संभव है। अनेक संत ईश्वर की वाणी अपने कानों से नहीं अपने मन से सुनते हैं। चेतना की ऐसी अवस्था काल्पनिक नहीं है, बल्कि एक वास्तविक अनुभव है। यह आपका अनुभव नहीं हो सकता, जब तक कि आप ध्यान न करें। यदि आप अत्यधिक भक्ति के साथ ध्यान करें, तो किसी दिन जब आपको इसकी तनिक-सी भी आशा नहीं होगी, आपको भी वही अनुभव होगा।
प्रज्ञा से ही हों निर्देशित
ज्ञान एवं इच्छा तन एवं मन को नियंत्रित करती हैं। ज्ञान आत्मा का अंतज्र्ञानात्मक सत्य का प्रत्यक्ष ज्ञान है। युद्ध के समय लक्ष्य-दूरी मापक यंत्र को यह निर्धारित करने के लिए उपयोग किया जाता है कि गोला कहां दागना है। जब दूरी का पता चल जाता है, तो बंदूकें प्रभावशाली ढंग से चलाई जा सकती है। प्रज्ञा आपका दूरी मापक यंत्र है और इच्छा आपकी मारक शक्ति है, जो प्रज्ञा के आदेशानुसार आपके लक्ष्य को भेदती है। आपकी इच्छा सदैव प्रज्ञा द्वारा निर्देशित होनी चाहिए। एक-दूसरे के बिना कोई भी कार्य संभव नहीं हो सकता है। यदि आपके पास प्रज्ञा है, लेकिन इसके निर्देशों का पालन करने के लिए पर्याप्त इच्छा नहीं है, तो यह आपके लिए कल्याणकारी नहीं है। यदि आपके पास दृढ़ इच्छा है, लेकिन प्रज्ञा नहीं है तो लक्ष्य को चूकने और अपना नाश करने की पूरी आशंका है।