प्रकृति को पुस्तक की तरह पढ़ें: स्वामी विवेकानंद
स्वामी विवेकानंद के ज्ञान का लोहा पूरी दुनिया मानती है आइये सीखें उनसे कुछ ज्ञान की बातें।
प्रकृति और आत्मा
प्रकृति के अस्तित्व का प्रयोजन आत्मा को शिक्षित करना है। यह आत्मा को ज्ञान का लाभ लेना सिखाती है, ताकि ज्ञान से आत्मा स्वयं को मुक्त कर ले। यदि हम यह बात निरंतर ध्यान में रखें, तो हम प्रकृति के प्रति कभी आसक्त नहीं होंगे। हमें यह ज्ञान हो जाएगा कि प्रकृति हमारे लिए एक पुस्तक के समान है, जिसका हमें अध्ययन करना है। जब हमें उससे आवश्यक ज्ञान प्राप्त हो जाएगा, फिर वह पुस्तक हमारे लिए किसी काम की नहीं रहेगी। इसके विपरीत यह हो रहा है कि हम अपने को प्रकृति में ही मिला दे रहे हैं।
भूल को समझें
हम यह सोच रहे हैं कि आत्मा प्रकृति के लिए है। आत्मा शरीर के लिए है। जैसी एक कहावत है, हम सोचते हैं 'मनुष्य खाने के लिए ही जीवित रहता है न कि जीवित रहने के लिए खाता है'। यह भूल हम निरंतर करते रहते हैं। प्रकृति को ही अहं मानकर हम प्रकृति में आसक्त बने रहते हैं। ज्यों ही इस आसक्ति का प्रादुर्भाव होता है, त्यों ही आत्मा पर प्रबल संस्कार का निर्माण हो जाता है, जो हमें बंधन में डाल देता है। जिसके कारण हम मुक्तभाव से कार्य न करके दास की तरह कार्य करने लग जाते हैं। इस सारी शिक्षा का सार यही है कि तुम्हें एक स्वामी के समान कार्य करना चाहिए, न कि एक दास की तरह। कर्म तो निरंतर करते रहें, लेकिन एक दास की तरह न करें।
अनिच्छा से कर्म करना उचित नहीं
दरअसल, हम इच्छा न होने पर भी कार्य करते चले जाते हैं। इच्छा होने पर भी कोई आराम नहीं ले सकता। इसका फल होता है दुख। ये सब कार्य स्वार्थ पर होते हैं। मुक्तभाव से कर्म करें, प्रेमसहित कर्म करें। प्रेम शब्द का अर्थ समझना बहुत कठिन है। बिना स्वाधीनता के प्रेम आ ही नहीं सकता। यदि आप अनिच्छा से कोई काम कर रहे हैं, तो सच्चे प्रेम का भाव जागना असंभव है। यदि हम संसार के लिए अनिच्छा के साथ दास के समान कर्म करते हैं, तो इसके प्रति हमारा प्रेम नहीं रहता। इसलिए वह सच्चा कर्म नहीं हो सकता। हम अपने बंधु-बांधवों के लिए जो कर्म करते हैं, जहां तक कि हम अपने स्वयं के भी जो कर्म करते हैं, उसके बारे में भी ठीक यही बात है। यदि हम अनिच्छा से कोई काम करते हैं, तो इसके प्रति हमारा प्रेम नहीं होता है। सदिच्छा के साथ खुशी-खुशी किए गए कर्म के परिणाम बेहतर आते हैं।