मूर्ति पूजा करने से पहले धर्म को जरूर जान लें, तभी मिलेगा फल
कलियुग में धर्म और भगवान को लेकर लोगों की परिभाषा बदल गई है. रजनीश ओशो ने धर्म, भगवान और मूर्ति पूजा का वास्तविक अर्थ बताया है.
20वीं सदी के महान विचारक ओशो के बारे में सबका अपना नजरिया है. धर्मगुरु, संत, आचार्य, अवतारी, भगवान, मसीहा, प्रवचनकार, धर्म- विरोधी संत सभी लोगों के लिए ओशो का अर्थ अलग-अलग है लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि ओशो उन प्रभावशाली विचारकों में से रहे हैं जिनसे बहुत से लोग प्रभावित हुए. ओशो ने अलग-अलग विषयों पर अपने विचार रखे हैं. पूजा, मूर्ति पूजा के विषय में ओशो कहते हैं.
धर्म का वास्तविक जानो
ओशो कहते हैं कि 'सदियों से आदमी को विश्वास, सिद्धांत, मत बेचे गए हैं, जो कि एकदम मिथ्याि हैं, झूठे हैं, जो केवल तुम्हारी महत्वाकांक्षाओं, तुम्हारे आलस्य का प्रमाण हैं.
परंतु कोई पंडित-पुरोहित या तथाकथित धर्म नहीं चाहते कि तुम स्वयं तक पहुंचो, क्योंकि जैसे ही तुम स्वयं की खोज पर निकलते हो, तुम सभी तथाकथित धर्मों- हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई के बंधनों से बाहर आ जाते हैं. वर्तमान धर्म हमें डरना सिखाता है ताकि हम धर्म के विषय में कोई सवाल न पूछ सकें. धर्म का अर्थ है पहले खुद तक पहुंचो, फिर किसी अन्य की प्राप्ति के लिए प्रयास करो.
कितनी तार्किक है मूर्ति पूजा
ओशो कहते हैं ‘क्या है मूर्ति-पूजा? मूर्ति पूजा असल में मूर्ति-पूजा का सारा आधार इस बात पर है कि आपके मस्तिष्क में और विराट परमात्मा के मस्तिष्क में संबंध हैं. दोनों के संबंध को जोड़ने वाला बीच में एक सेतु चाहिए.
मूर्ति पूजा शब्द का उन लोगों के लिए कोई अर्थ नहीं है जो पूरी तरह से भगवान को याद करते हैं. उनके सामने एक मूर्ति होती है इसलिए उनके मन में भगवान के आकार को लेकर कोई रहस्य नहीं रहता और वो अपने दुखों का निवारण और शांति पाने के लिए प्रार्थना पर ध्यान केंद्रित कर देते हैं.
जो पूजा करते हैं वो मूर्ति को नहीं देख पाते और वो लोग जिन्होंने कभी पूजा नहीं की, उन्हें केवल मूर्ति दिखती है.
पूजा का वास्तविक महत्व
ओशो कहते हैं कि पूजा अर्थ है खुद को जानना और शांति पाना. मंदिर में अगरबत्ती, फल-फूल चढ़ाने से पूजा संपन्न नहीं होती बल्कि खुद को जानने और शांति के अलावा मन में किसी भी प्रकार के नकरात्मक भाव को जगह ना देना ही पूजा है.