धारणा-शून्य हो जाने से मिलेंगे परमात्मा
मनुष्य जीवनभर ईश्र्वर की खोज में दर-दर भटकता है लेकिन उसे कहीं भगवान नहीं मिलते हैं। ईश्र्वर स्वयं को खोजने से मिलते हैं। स्वयं को खोजो तो ईश्र्वर से मुलाकात होगी।
स्वयं को खोजने से प्राप्त होते हैं ईश्र्वर
ईश्वर को खोजना है। कहां खोजूं। ईश्वर की खोज की बात ही गलत है। स्वयं को खोजो, ईश्वर मिलेगा। स्वयं को खोजो, ईश्वर तुम्हें खोजेगा। स्वयं को न खोजा, लाख सिर पटको ईश्वर की तलाश में- और कुछ भी मिल जाए, ईश्वर मिलने वाला नहीं है। जो स्वयं को ही नहीं जानता, वह अधिकारी नहीं है ईश्वर को जानने का। उसकी कोई पात्रता नहीं है। पहले पात्र बनो। आत्म-अज्ञान सबसे बड़ी अपात्रता है। वही तो एकमात्र पाप है और सब पाप तो उसी महापाप की छायाएं हैं। सारे पापों से लोग लड़ते हैं- क्रोध से लड़ेंगे, काम से लड़ेंगे, लोभ से लड़ेंगे, द्वेष से लड़ेंगे, मद-मत्सर से लड़ेंगे -और एक बात भूल जाएंगे कि भीतर अंधकार है। ये सांप-बिच्छू उस अंधकार में पलते हैं। भीतर रोशनी चाहिए, प्रकाश चाहिए, आत्मबोध चाहिए। ध्यान की बात पूछो, ईश्वर की चर्चा ही मत उठाओ।
बीज बोए नहीं और फूलों की बात करने लगे कहां से फूल आएंगे
हां, प्लास्टिक के फूल मिल सकते हैं बाजार में, मंदिरों में, मस्जिदों में, गुरुद्वारों में, गिरजों में। प्लास्टिक के भगवान हैं, आदमी के गढ़े हुए भगवान हैं। वे मिल सकेंगे और अगर तुमने ज्यादा मेहनत की, बहुत कल्पना को दौड़ाया, तो तुम्हारी कल्पना में भी धनुर्धारी राम का दर्शन हो जाएगा। सपना है वह, इससे ज्यादा नहीं। मोर-मुकुट बांधे हुए कृष्ण खड़े हो जाएंगे, वह भी तुम्हारी कल्पना है, इससे ज्यादा नहीं। जब तक तुम जागते नहीं हो भीतर, जब तक तुम भीतर सोए हुए हो- उसी को मैं आत्म-अज्ञान कह रहा हूं- तब तक तुम जो भी करोगे, गलत ही होगा। ईश्वर को क्यों खोजना है। अगर परमात्मा तुम्हें नहीं खोजना चाहता है और भागा-भागा फिरता है, तो तुम कितना ही खोजो, तुम्हारी बिसात कितनी है। तुम्हारे हाथ कितने दूर जा सकेंगे तुम्हारी पहुंच की सीमा है और वह असीम है। वह अपने को छिपा-छिपा लेगा। लोग अपने को खोजेंगे नहीं, ईश्वर को खोजने के लिए राजी हैं।
मैं हूं तो क्या हूं कौन हूं
इस एक प्रश्न के अतिरिक्त सारे प्रश्न व्यर्थ हैं, खोपड़ी की खुजलाहट से ज्यादा नहीं हैं। ईश्वर को खोजना चाहते हो ईश्वर यानी कौन। जब तक मिला नहीं, तब तक तो तुम्हें यह भी पता नहीं कि ईश्वर शब्द का अर्थ भी क्या होगा। सबकी अपनी-अपनी धारणा है। किस ईश्वर को खोजोगे। ये सारी धारणाएं मनुष्य द्वारा निर्मित हैं। और ईश्वर पाया जाता है तब, जब मनुष्य-निर्मित सारी धारणाएं गिरा दी जाती हैं, जब तुम धारणा-शून्य हो जाते हो, धारणा-मुक्त हो जाते हो।
ईश्वर की खोज उठती ही क्यों है तुम्हारे मन में
यह तुम्हारी खोज है या कि पंडित-पुरोहित, साधु-महात्मा चूंकि ईश्वर की चर्चा करते रहते हैं, इसलिए यह बात तुम्हारे सिर में भी गूंजने लगती है। रूस में तो कोई ईश्वर को नहीं खोजता, क्योंकि रूस में कोई ईश्वर की चर्चा का सवाल नहीं है। ईश्वर की बात करो तो लोग हंस देंगे। बीस करोड़ लोग यूं हंस देते हैं कि तुम मूर्खतापूर्ण बात कर रहे हो क्योंकि प्रचार ईश्वर का नहीं किया जा रहा है। आज साठ साल से प्रचार बंद है। तो लोग भूल-भाल गए, किसी को नहीं खोजना ईश्वर को। तो तुम खोजते क्या हो। यह खोज तुम्हारी है। यह प्यास तुम्हारी है। जैसे प्यासे को पानी की तलाश होती है। ऐसी यह तलाश है।
छोटे बच्चे की भांति निर्दोष बनो
नहीं, ऐसी यह तलाश नहीं है। यह तलाश ऐसी है, जैसे अखबार में विज्ञापन पढ़कर पैदा हो जाती है। क्षण भर पहले तक जरा तुम्हें कोई अड़चन न थी। क्षण भर पहले तक कोई जरूरत नहीं थी, अभी-अभी हो गई। परमात्मा को पाना है, तो सब विद्या भूलो। यह ज्ञान सब उधार है। जानो कि मैं अज्ञानी हूं। जानो कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं, तो बुद्धि से छुटकारा हो जाएगा। छोटे बच्चे की भांति निर्दोष बनो और सरको हृदय की तरफ, ताकि तुम, आश्चर्य से भर जाओ। चारों तरफ जो सौंदर्य है प्रकृति का इसे देखकर अवाक हो जाओ; ताकि तुम्हारे भीतर संगीत उठे, नृत्य उठे, गीत उठे; ताकि तुम्हारे भीतर गुलाल उड़े, ताकि तुम्हारे भीतर उत्सव शुरू हो उसी उत्सव में, उसी वसंत के क्षण में परमात्मा का आगमन होता है। दो चीजें ही आदमी को अटकाती हैं- नाम और रूप। नाम भी झूठ, रूप भी झूठ। नाम मन में बैठ जाता है और रूप देह है, शरीर है। तुम दोनों नहीं हो। न तुम नाम हो, न तुम रूप हो। तुम अनाम हो, अरूप हो और तुमने अगर अपने अनाम-अरूप को अनुभव कर लिया तो वही तो परमात्मा का प्रथम अनुभव है।