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गोइंदवाल साहिब के संस्थापक, गुरु अमरदास जी के प्रकाश-पर्व (23 मई) पर

सिखों के तीसरे गुरु श्री अमरदास जी ने गोइंदवाल साहिब की स्थापना कर सिख धर्म के जरिये भेदभाव को मिटाने के प्रयास किए। उन्होंने सांझी बावली का निर्माण कराया और एक साथ बैठकर लंगर चखने की शुरुआत की.. गुरु श्री अमरदास जी ने सिख धर्म के प्रसार में समाज सेवा को आधार बनाया। उन्होंन

By Edited By: Published: Fri, 23 May 2014 02:48 PM (IST)Updated: Fri, 23 May 2014 03:03 PM (IST)
गोइंदवाल साहिब के संस्थापक, गुरु अमरदास जी के प्रकाश-पर्व (23 मई) पर

सिखों के तीसरे गुरु श्री अमरदास जी ने गोइंदवाल साहिब की स्थापना कर सिख धर्म के जरिये भेदभाव को मिटाने के प्रयास किए। उन्होंने सांझी बावली का निर्माण कराया और एक साथ बैठकर लंगर चखने की शुरुआत की..

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गुरु श्री अमरदास जी ने सिख धर्म के प्रसार में समाज सेवा को आधार बनाया। उन्होंने चली आ रही सामाजिक कुरीतियों को खत्म करने की पहल की। उन्होंने न सिर्फ स्त्री-शक्ति को यथोचित सम्मान दिया, बल्कि भेदभाव और छुआछूत को मिटाने के लिए उल्लेखनीय कार्य किए।

वैशाख शुक्ल एकादशी, संवत 1536 वि. (23 मई, 1479 ई.) को अमृतसर जिले के 'बासरके' गांव में पिता श्री तेजभान एवं माता लखमी जी के घर जन्म लिया। चार भाइयों में से सबसे बड़े गुरुजी खानदानी व्यापार एवं खेती में व्यस्त रहते। कामकाज के साथ-साथ उनका चित्त सदैव हरि सिमरन में रमा रहता। आध्यात्मिक प्रवृत्ति के कारण ही लोग उन्हें 'भक्त अमरदास' कहते थे। वे वैष्णव मत के अनुयायी थे। उनका विवाह 23 वर्ष की आयु में बीबी रामो के साथ हुआ। मोहन जी, मोहरी जी उनके पुत्र एवं बीबी दानी जी और बीबी भानी जी दो पुत्रियां थीं।

दूसरे गुरु श्री अंगद देव जी की सुपुत्री बीबी अमरो उनके भतीजे के साथ ब्याही हुई थी। एक बार अमृत बेला में उन्होंने बीबी अमरो से श्री गुरु नानक देव जी द्वारा रचित एक 'सबद' सुना। वे सबद से इतने प्रभावित हुए कि बीबी अमरो से पता पूछकर तुरंत दूसरे गुरु के चरणों में आ विराजे। उन्होंने 61 वर्ष की आयु में अपने से 25 वर्ष छोटे और रिश्ते में समधी लगने वाले गुरु अंगद देव जी को गुरु माना और 11 वषरें तक एकनिष्ठ भाव से गुरु की सेवा की। उनकी सेवा से प्रसन्न होकर और सभी प्रकार से योग्य समझ कर दूसरे गुरु जी ने उन्हें गुरुगद्दी सौंप दी और वे 72 वर्ष की आयु में तीसरे गुरु श्री अमरदास बन गए।

द्वितीय गुरु जी ने उन्हें व्यास नदी के तट पर एक नया नगर बसाने और सिख धर्म का प्रचार करने की आज्ञा दी। इस प्रकार गुरुगद्दी पर विराजमान होने के बाद 1552 ई. में 'गोइंदवाल साहिब' की स्थापना हुई। तीसरे गुरु ने सारे सिख समाज को 22 भागों में बांटकर 22 पीठ स्थापित किए, जिन्हें 'मंजियां' कहा गया। महिला धर्म प्रचारकों के लिए पृथक से 'पीढि़यों' की स्थापना हुई। गुरु जी ने समाज सुधार की ओर भी विशेष ध्यान दिया। भेदभाव, छुआछूत, जाति-पाति को समाप्त करने के उद्देश्य से गोइंदवाल साहिब में सांझी बावली का निर्माण कराया गया। उन्होंने एक पंगत में बैठकर 'लंगर छकने' की प्रथा भी चलाई। मुगल बादशाह अकबर जब गुरु दर्शन हेतु गोइंदवाल साहिब आया, तो उसने भी पंगत में बैठ कर लंगर छका (चखा)। गुरु जी ने सती प्रथा को समाप्त करने में भी विशेष भूमिका निभाई। गुरु जी के दामाद चौथे गुरु श्री रामदास जी ने उनकी आज्ञा से ही 'अमृतसर' सरोवर एवं नगर की स्थापना की। गुरु साहिबान की बानी (वाणी) को संकलित करने का स्वप्न भी उन्होंने ही देखा था, जिसे बाद में उनके नाती पांचवें गुरु अर्जन देव जी ने 'गुरु ग्रंथ साहिब' का संपादन करके पूरा किया। 'गुरु ग्रंथ साहिब' में तीसरे गुरु के 869 सबद, श्लोक व छंद 18 रागों में दर्ज हैं। 'आनंदु साहिब' उनकी उत्कृष्ट वाणी है। समाज सुधारक, महान प्रबंधक एवं तेजस्वी व्यक्तित्व श्री गुरु अमरदास जी 95 वर्ष की आयु में 1574 ई. में गोइंदवाल साहिब में ज्योति जोत समा गए।


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