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माना जाता है कि क्रोध लाल रंग, ईष्र्या हरे रंग, आनंद जीवंतता पीले रंग से जुड़े होते हैं

गुलाबी रंग को हम प्रेम से, नीले को विस्तार से, सफेद रंग को शांति से, केसरिया को त्याग से और जामुनी को हम ज्ञान से जोड़कर देखते हैं।

By Preeti jhaEdited By: Published: Wed, 08 Mar 2017 11:15 AM (IST)Updated: Wed, 08 Mar 2017 02:53 PM (IST)
माना जाता है कि क्रोध लाल रंग, ईष्र्या हरे रंग, आनंद जीवंतता पीले रंग से जुड़े होते हैं
माना जाता है कि क्रोध लाल रंग, ईष्र्या हरे रंग, आनंद जीवंतता पीले रंग से जुड़े होते हैं

 चैतन्य होकर हम अज्ञानता और नकारात्मकता के काले रंग को मिटा सकते हैं। इससे हमारे जीवन में आनंद और जीवंतता के पीत रंग के साथ-साथ और भी कई रंग भर जाते हैं। इस आनंद का उत्सव शरीर और मन के साथ-साथ चेतना भी मनाती है। होली (13 मार्च) पर श्री श्री रविशंकर का चिंतन... 

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 संसार रंग भरा है। प्रकृति की तरह ही रंगों का प्रभाव हमारी भावनाओं और संवेदनाओं पर भी पड़ता है। हमारी प्रत्येक भावना एक निश्चित रंग से सीधी जुड़ी होती है। जैसे माना जाता है कि क्रोध लाल रंग से, ईष्र्या हरे रंग से, आनंद और जीवंतता पीले रंग से जुड़े होते हैं। गुलाबी रंग को हम प्रेम से, नीले को विस्तार से, सफेद रंग को शांति से, केसरिया  को त्याग से और जामुनी को हम ज्ञान से जोड़कर देखते हैं। कुल मिलाकर, प्रत्येक मनुष्य रंगों का एक फ व्वारा प्रतीत होता है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार, राजा हिरण्यकशिपु प्रजा के बीच स्वयं को ईश्वर के रूप में स्थापित करना
चाहता था, जबकि उसका पुत्र प्रह्लाद विष्णु-भक्त था। अपने पुत्र के विचारों को बदलने का हिरण्यकशिपु ने हर
संभव प्रयास किया। बहन होलिका की गोद में बैठाकर उसे अग्निकुंड में भी जलाने का प्रयास किया, लेकिन
वह विफल रहा। प्रह्लाद की भक्ति में इतनी गहराई थी कि पिता का कोई भी अनुचित कार्य उसे अपने विचारों
से डिगा नहीं सका। दरअसल, प्रह्लाद ने चैतन्य होकर अज्ञानता के काले रंग को मिटाने में पूर्ण सफलता पा
ली थी। देखा जाए तो हिरण्यकशिपु स्थूलता का प्रतीक है और प्रह्लाद आनंद और श्रद्धा का प्रतीक है। चेतना
को भौतिकता तक सीमित नहीं किया जा सकता। हिरण्यकशिपु भौतिकता से सब कुछ प्राप्त करना चाहता
था। कोई भी जीव अपने विचारों की शक्ति से भौतिकता से परे हो सकता है। होलिका अतीत की प्रतीक है और
प्रह्लाद वर्तमान के आनंद का प्रतीक है। यह प्रह्लाद की भक्ति ही थी, जो उसे आनंद और जीवंत (पीत रंग)
बनाए रखती थी। आनंद और जीवंतता के होने से जीवन उत्सव बन जाता है। भावनाएं आपको अग्नि की तरह
जलाती हैं, पर यह रंगों की फु हार की तरह होनी चाहिए, तभी जीवन सार्थक होता है। अज्ञानता में भावनाएं
कष्टकारी होती हैं, लेकिन ज्ञान के साथ जुड़कर यही भावनाएं जीवन में रंग भर देती हैं। जीवन रंगों से भरा होना चाहिए। हम कई भूमिका निभाते हैं। ये भूमिकाएं और भावनाएं स्पष्ट होनी चाहिए, अन्यथा कष्ट निश्चित है। घर में यदि आप पिता का रोल निभा रहे हैं, तो अपने कार्यस्थल पर वैसा रोल नहीं निभा सकते। जब अलग-अलग भूमिकाओं का हम जीवन में घालमेल करने लगते हैं, तो फिर उलझने लगते हैं और गलतियां करने लग जाते हैं। जीवन में जो भी आप आनंद का अनुभव करते हैं, वह आपको स्वयं से ही प्राप्त होता है। आपको जो जकड़ कर बैठा है, जब आप उसे छोड़कर शांत बैठ जाते हैं, तो इसी समय से आपकी ध्यानावस्था शुरू हो जाती है। ध्यान में आपको गहरी नींद से भी ज्यादा विश्राम मिलता है, क्योंकि आप सभी इच्छाओं से परे होते हैं। यह मस्तिष्क को गहरी शीतलता देता है और आपके तंत्रिका-तंत्र को पुष्ट करता है।
उत्सव चेतना का स्वभाव है, जो उत्सव मौन से उत्पन्न होता है, वह वास्तविक है। यदि उत्सव के साथ पवित्रता
जोड़ दी जाए, तो वह पूर्ण हो जाता है। केवल शरीर और मन ही उत्सव नहीं मनाता है, बल्कि चेतना भी उत्सव
मनाती है। इसी स्थिति में जीवन रंगों से भर जाता है।

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