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मदद करें, घमंड नहीं

संसार में बहुत दुख हैं, इसलिए सहायता करना हमारे लिए सर्वश्रेष्ठ कार्य है, परंतु सहायता का घमंड मत रखें, क्योंकि दूसरों की सहायता करने का अर्थ है अपनी सहायता करना..। आज स्वामी विवेकानंद की पुण्यतिथि पर उनका चिंतन..

By Edited By: Published: Wed, 04 Jul 2012 03:46 PM (IST)Updated: Wed, 04 Jul 2012 03:46 PM (IST)
मदद करें, घमंड नहीं

दूसरों के प्रति हमारे कर्तव्य का अर्थ है- दूसरों की सहायता करना। संसार का भला करना। अब प्रश्न उठता है कि हम संसार का भला क्यों करें? वास्तव में ऊपर से तो हम संसार का उपकार करते हैं, परंतु असल में हम अपना ही उपकार करते हैं। हमें सदैव संसार का उपकार करने की चेष्टा करनी चाहिए और कार्य करने का यही हमारा सर्वोच्च उद्देश्य होना चाहिए। यह संसार इसलिए नहीं बना कि तुम आकर इसकी सहायता करो, बल्कि सच यह है कि संसार में बहुत दुख-कष्ट हैं, इसलिए लोगों की सहायता करना हमारे लिए सर्वश्रेष्ठ कार्य है।

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यदि हम सदैव यह ध्यान रखें कि दूसरों की सहायता करना एक सौभाग्य है, तो परोपकार करने की इच्छा एक सर्वोत्तम प्रेरणा शक्ति बन जाती है। एक दाता के ऊंचे आसन पर खड़े होकर और अपने हाथ में दो पैसे लेकर यह मत कहो, ऐ भिखारी, ले, मैं तुझे यह देता हूं। तुम स्वयं इस बात के लिए कृतज्ञ होओ कि इस संसार में तुम्हें अपनी दयालुता का प्रयोग करने और इस प्रकार पूर्ण होने का अवसर प्राप्त हुआ। धन्य पाने वाला नहीं, देने वाला होता है। सभी भलाई के कार्य हमें शुद्ध और पूर्ण बनाने में सहायता करते हैं।

संसार की सहायता करने की खोखली बातों को हमें मन से निकाल देना चाहिए। यह संसार न तो तुम्हारी सहायता का भूखा है और न मेरी। परंतु फिर भी हमें निरंतर कार्य करते रहना चाहिए, परोपकार करते रहना चाहिए। क्यों? इसलिए कि इससे हमारा ही भला है। यही एक साधन है, जिससे हम पूर्ण बन सकते हैं। यदि हमने किसी गरीब को कुछ दिया, तो वास्तव में हम पर उसका आभार है, क्योंकि उसने हमें इस बात का अवसर दिया कि हम अपनी दया की भावना उस पर काम में ला सके। यह सोचना निरी भूल है कि हमने संसार का भला किया। इस विचार से दुख उत्पन्न होता है। हम किसी की सहायता करने के बाद सोचते हैं कि वह हमें इसके बदले में धन्यवाद दे, पर वह धन्यवाद नहीं देता, तो हमें दुख होता है।

हम जो कुछ भी करें, उसके बदले में आशा क्यों रखें? बल्कि उल्टे हमें उसी के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए, जिसकी हम सहायता करते हैं, उसे साक्षात नारायण मानना चाहिए। मनुष्य की सहायता द्वारा ईश्वर की उपासना करना क्या हमारा परम सौभाग्य नहीं है? यदि हम वास्तव में अनासक्त हैं, तो हमें यह प्रत्याशाजनक कष्ट क्यों होना चाहिए? अनासक्त होने पर तो हम प्रसन्नतापूर्वक संसार में भलाई कर सकते हैं। अनासक्त किए हुए कार्य से कभी भी दुख अथवा अशांति नहीं आएगी।

यदि हम यह जान लें कि आसक्तिरहित होकर किस प्रकार कर्म करना चाहिए, तभी हम दुराग्रह और मतांधता से परे हो सकते हैं। जब हमें यह ज्ञान हो जाएगा कि संसार कुत्ते की टेढ़ी दुम की तरह है, जो कभी भी सीधा नहीं हो सकती, तब हम दुराग्रही नहीं होंगे। यदि संसार में यह दुराग्रह, यह क्रुरता न होती, तो अब तक यह बहुत उन्नति कर लेता। यह सोचना भूल है कि धर्र्माधता द्वारा मानवजाति की उन्नति हो सकती है। बल्कि यह तो हमें पीछे हटाने वाली शक्ति है। इससे घृणा और क्रोध उत्पन्न होता है और मनुष्य एक दूसरे से लड़ने लगते हैं और सहानुभूतिशून्य हो जाते हैं। तब हम सोचते हैं कि जो कुछ हमारे पास है अथवा जो कुछ हम करते हैं, वही संसार में सर्वश्रेष्ठ है और जो हम नहीं करते वह गलत है।?अतएव जब कभी दुराग्रह का भाव आए, तो यह याद करो कि संसार कुत्ते की टेढ़ी पूंछ है, जो सीधी नहीं हो सकती। तुम्हें अपने आपको संसार के बारे में चिंतित बना लेने की आवश्यकता नहीं- तुम्हारी सहायता के बिना भी यह चलता रहेगा। जब तुम दुराग्रह और मतांधता से परे हो जाओगे, तभी अच्छी तरह कार्य कर सकोगे। जो ठंडे मस्तिष्क वाला और शांत है, जो उत्तम ढंग से विचार करके कार्य करता है, जिसके स्नायु सहज ही उत्तेजित नहीं होते तथा जो अत्यंत प्रेम और सहानुभूति संपन्न है, केवल वही व्यक्ति संसार में परोपकार कर सकता है और इस तरह उससे अपना भी कल्याण कर सकता है।

यह संसार चरित्रगठन की एक विशाल व्यायामशाला है। इसमें हम सभी को अभ्यासरूप में कसरत करनी पड़ती है, जिससे हम आध्यात्मिक बल से बलवान बनें। हममें किसी भी प्रकार का दुराग्रह नहीं होना चाहिए, क्योंकि दुराग्रह प्रेम का विरोधी है। हम जितने ही शांतचित्त होंगे और हमारे स्नायु जितने शांत रहेंगे हम उतने ही अधिक प्रेमसंपन्न होंगे और हमारा कार्य भी उतना ही अधिक श्रेष्ठ होगा।

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