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क्यों देवताओं की तुलना में देवियों की उपासना अधिक होती रही है

शक्ति के रूप में उपासना का एक महत्त्वपूर्ण कारण है कि शक्ति देवी-रूपा या मातृ-स्वरूपा हैं। माता के अंदर वात्सल्य-भाव मौजूद होता है। करुणामयी भक्तों की विपत्ति सहन नहीं कर पाती हैं।

By Preeti jhaEdited By: Published: Mon, 27 Mar 2017 02:43 PM (IST)Updated: Mon, 27 Mar 2017 03:23 PM (IST)
क्यों देवताओं की तुलना में देवियों की उपासना अधिक होती रही है
क्यों देवताओं की तुलना में देवियों की उपासना अधिक होती रही है
देवियों की पूजा का विचार कहां से जन्मा, क्यों हमारे मानस में देवी पूजन इतना गाढ़ा रचा-बसा है? पौराणिक और शास्त्रीय संदर्भ। सनातन धर्म सदा से शक्ति का उपासक रहा है, अर्थात् देवताओं की तुलना में देवियों की उपासना अधिक होती रही है। देवताओं के नामों के उच्चारण में उनकी शक्ति का ही नाम पहले आता है। साधारण देवों की बात क्या करें, संसार के पालनकर्ता विष्णु और महेश के साथ भी यही बात है। विष्णु अथवा नारायण की पत्नी हैं लक्ष्मी, इसलिए हम लक्ष्मीनारायण उच्चारण करते हैंं। इसी प्रकार गौरीशंकर या भवानीशंकर संबोधित किया जाता है। विष्णु के अवतार राम और कृष्ण की बात करें, तो हम सीताराम, राधाकृष्ण संबोधित करते हैंं। 
तात्पर्य यह कि ईश्वर या देवता से उसकी शक्ति का महत्त्व अधिक है। इसीलिए एक कवि ने राधा को कृष्ण से ऊपर मानते हुए लिखा--
मेरी  भव  बाधा  हरौ  राधानागरी  सोय।     
जा तन की झांई पड़े राम हरित दुति होय।। 
अपनी भव बाधा दूर करने के लिए रसखान राधा से ही प्रार्थना करते हैं न कि कृष्ण से। उनका मानना  है कि राधा के प्रकाश के कारण ही कृष्ण का रंग हरा हो गया, अन्यथा वे काले रहते।
और तो और श्री राम के परम भक्त गोस्वामी तुलसीदास ने भी सीता का उल्लेख पहले और राम का बाद में किया। उनकी यह पंक्ति सर्वविदित है--
सियाराममय  सब  जग जानी।
करौं परनाम जोरि युग पानी।। 
कब शुरू हुई शक्तिपूजा 
शक्ति की पूजा कब शुरू हुई, यह नहीं कहा जा सकता है। ऐसा अनादिकाल से होता आ रहा है। कृष्णचरित्र के अनुसार, श्रीकृष्ण की दिनचर्या में दुर्गा की उपासना सम्मिलित थी। श्री राम ने भी रावण-वध के पूर्व शक्तिपूजा की थी। इसी को आधार बना कर महाकवि निराला ने अपनी अति प्रसिद्ध कविता 'राम की शक्तिपूजाÓ लिखी। 
वैदिक काल मेें भी शक्तिपूजा प्रचलित थी। वैदिक साहित्य में विशेषकर यजुर्वेद और अथर्ववेद में शक्तिपूजा का उल्लेख विशेष रूप से प्राप्त होता है। उपनिषदों में भी शक्तिपूजा की प्रधानता है। पुराणों में सर्वत्र शक्ति को महत्त्व मिला है। 
यह कथन सर्वविदित है कि शिव भी शिवा अर्थात पार्वती के बिना निर्जीव के समान हैं। आदिशंकराचार्य ने अपनी प्रसिद्ध कृति 'सौंदर्य लहरीÓ में स्पष्टï अंकित किया है कि शिव जब शक्ति से संपन्न होते हैं, तभी प्रभावशाली होते हैंं। 
 इतिहास इस बात का साक्षी है कि सदा शक्ति का ही बोलबाला रहा है। मार्कंडेय पुराण पर आधारित प्रसिद्ध पुस्तक 'दुर्गासप्तशतीÓ में यह स्पष्टï उल्लेख है कि जिस सिंहवाहिनी दुर्गा ने राक्षसों का वध किया, वे ब्रह्मा, विष्णु और महेश के शरीरों से निकली शक्ति से ही निर्मित हुई थीं। इसलिए यदि राक्षसों पर विजय प्राप्त की गई, तो शक्ति ने ही, ब्रह्मा, विष्णु, महेश या अन्य देवताओं ने नहीं। 
ब्रह्मï से श्रेष्ठ शक्ति
नवरात्र के अवसर पर दुर्गासप्तशती का पाठ असंख्य लोग करते हैं। सामान्य दिनों में भी कई लोग इसका पाठ कर मनोवांछित फल प्राप्त करते हैं। ब्रह्म को सर्वोपरि माना जाता है, लेकिन शक्ति ब्रह्म से भी श्रेष्ठतर है। शक्ति की उपासना के संबंध में विश्व-प्रसिद्ध पीतांबरा पीठ दतिया के संस्थापक श्री स्वामी जी ने एक श्रद्धालु के प्रश्न के उत्तर में जो कहा उसका तात्पर्य है- 'ब्रह्म तटस्थ है। वह सृष्टिï के निर्माण-पालन या संहार का कारण नहीं है। यह सब ब्रह्म की शक्ति द्वारा ही संपन्न होता है। इसीलिए हमें इस शक्ति को माता-स्वरूप मान कर उसकी उपासना करनी चाहिए, तभी हम अपने अभिष्टï को प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकार सारा विश्व ही शक्ति मय है।
शक्ति के महत्त्व के कारण ही भारतवर्ष में अनेक शक्तिपीठ हैं। शक्तिपीठों की संख्या के संबंध में भिन्न-भिन्न मत हैं, लेकिन 'तंत्रचूड़ामणिÓ ग्रंथ के अनुसार ऐसे इक्यावन पीठ हैं। इनमें कुछ प्रमुख के नाम हैं--ज्वालामुखी, कामाख्या, त्रिपुरसुंदरी, वाराही, काली, अम्बिका, भ्रामरी, ललिता आदि।
इक्यावन शक्तिपीठ
कथा है कि दक्ष के यज्ञ-कुण्ड में शिवप्रिया सती ने अपनी आहुति दे दी। इसे देखकर शिव विक्षिप्त हो आए, तो सती को अपने कंधे पर लाद लिया और अंतरिक्ष में चक्कर काटना शुरू कर दिया। सड़ते हुए शव को, देवताओं के अनुरोध पर विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से टुकड़े-टुकड़े कर दिए। जहां-जहां ये टुकड़े गिरे, वहां-वहां एक शक्तिपीठ का निमार्ण हो गया। 
ऐसी इक्यावन शक्तिपीठों के अलावा, कुछ ऐसी भी शक्तिपीठें हैं, जो सती के अंगों के कारण नहीं बनीं। उस स्थान पर श्रद्धालु युगों से देवी की पूजा करते आ रहे हैं। इसलिए वह स्थान ऊर्जा-पूरित हो आया और उसे शक्तिपीठ की संज्ञा मिल गई। ऐसे स्थान में हिमाचल की चिंत्यपूर्णी, नैनीताल की नैना देवी, प्रसिद्ध तीर्थस्थान वैष्णो देवी, उत्तर प्रदेश की विंध्यवासिनी आदि के नाम लिए जा सकते हैं। इसलिए कई स्थानों पर शक्तिपीठों की संख्या एक सौ आठ बताई जाती है। 
मातृ-स्वरूपा शक्ति
शक्ति के रूप में उपासना का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि शक्ति देवी-रूपा या मातृ-स्वरूपा हैं। माता के अंदर वात्सल्य-भाव मौजूद होता है। वे करुणामयी हैं। भक्तों की विपत्ति-आपत्ति सहन नहीं कर पाती हैं। इसलिए ऐसा माना जाता है कि इनसे की गई प्रार्थना तत्काल और निश्चित फल देती है। ऐसी सर्वशक्तिमयी माता के रहते किसी और की आराधना-पूजा क्यों की जाए? यही विश्वास हमें शक्ति साधना की ओर प्रेरित करता है।  
डॉ. भगवतीशरण मिश्र

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