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अपने आसपास के प्राणी समाज की पूजा ही ईश्वर- पूजा है

अपने आसपास के प्राणी समाज की पूजा ही ईश्वर- पूजा है। हमारे सर्वप्रथम देवता हैं हमारे देशवासी। (एनी बेसेंट की किताब फ्यूचर ऑफ इंडिया से) स्वामीजी समाज में निकृष्ट माने गए लोगों में भी सर्वश्रेष्ठ ढूंढ़ लेते थे। उन्होंने कुछ दिन चोर उचक्कों की संगत की और बटमारों तक में भावी संतों

By Preeti jhaEdited By: Published: Mon, 11 Jan 2016 12:52 PM (IST)Updated: Mon, 11 Jan 2016 03:34 PM (IST)
अपने आसपास के प्राणी समाज की पूजा ही ईश्वर- पूजा है

अपने आसपास के प्राणी समाज की पूजा ही ईश्वर- पूजा है। हमारे सर्वप्रथम देवता हैं हमारे देशवासी।

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(एनी बेसेंट की किताब फ्यूचर ऑफ इंडिया से) स्वामीजी समाज में निकृष्ट माने गए लोगों में भी सर्वश्रेष्ठ

ढूंढ़ लेते थे। उन्होंने कुछ दिन चोर उचक्कों की संगत की और बटमारों तक में भावी संतों के दर्शन किए।

(रोमा रोलां की किताब विवेकानंद की जीवनी से)

स्वामीजी ने कहा है, शुद्ध-अशुद्ध भोजन पर सोच-विचार करने की बजाय हृदय में अदम्य उत्साह और कर्म चेष्टा की विपुलता होनी चाहिए। हमारा लक्ष्य इंद्रियों का निग्रह व मन को वश में लाना है। (रामधारी सिंह दिनकर की किताबसंस्कृति के चार अध्याय से) वे कहते थे कि अन्य धर्मों की व्यावहारिकता को आत्मसात किए बिना वेदांत के सिद्धांत जनता के लिए उपयोगी नहीं हो सकते। वेदांती मस्तिष्क और अन्य धर्मों के शरीर के

संयोग से खड़ा धर्म ही भारत की आशा है। (सिस्टर निवेदिता की किताब माईमास्टर ऐज आई सॉ हिम से)

कोलकाता में १८९८ में प्लेग फैल गया। विवेकानंद उसी समय हिमालय की यात्रा कर लौटे थे। उनका शरीर

थोड़ा कमजोर हो गया था। च्द मास्टर ऐज आई सॉ हिमज् में सिस्टर निवेदिता लिखती हैं कि प्रवचन के दौरान स्वामी विवेकानंद जो भी बात लोगों से कहते, पहले खुद पर लागू करते। अपने शरीर की परवाह न करते हुए उन्होंने खुद को रोगियों की सेवा-सुश्रूषा में लगा दिया। इस कार्य के लिए धन का अभाव न हो, इसलिए उन्होंने शिष्यों को आदेश दिया कि नए बन रहे मठ की जमीन बेच दो। हमें पेड़ के नीचे सोने ओर भिक्षा मांगकर पेट भरने के लिए तैयार रहना चहिए। वे खुद एक निर्धन बस्ती में जाकर रहने लगे।

उन्होंने छात्रों की टोलियां बना लीं और खुद घर-घर गए। स्वयं सफाई में लगकर लोगों के सामने एक उदाहरण पेश किया। इसी तरह स्वामी विवेकानंद ने समय-समय पर अपने कत्र्तव्यों के माध्यम से कई ऐसे उदाहरण

पेश किए, जिसे सामान्य जन भी अपनाकर स्वयं को विवेकानंद के समान बना सकते हैं।

सीखने की सीख

च्एक बार एक नवयुवक ने विवेकानंद से

गीता समझाने को कहा। उन्होंने उससे

पूछा- च्क्या आपने कभी फुटबॉल खेला

है? जाइए घंटे भर खेल-कूद लीजिए।

गीता समझने का वास्तविक क्षेत्र फुटबॉल

का मैदान है।ज् यह अंश है रामधारी सिंह

दिनकर की किताब च्संस्कृति के चार

अध्यायज् से। स्वामी विवेकानंद

मानसिक के साथ-साथ

शारीरिक विकास भी जरूरी

मानते थे। युवा नरेंद्रनाथ

(विवेकानंद के बचपन

का नाम) का शरीर काफी

विशाल था और मांसपेशियां भरी-पू

री थीं। कुश्ती, बॉक्सिंग, दौड़, स्वीमिंग,

घुड़दौड़ में वे दक्ष थे। इन सब के अलावा,

वे संगीत के भी प्रेमी थे। तबला बजाने

में उस्ताद थे। स्वामीजी मानते थे कि

किसी भी कला या चीज को जाने बिना

उसे नकारने की बजाय उसे सीखने की

कोशिश करनी चाहिए। कुछ नया सीखने

की चाह जीवन भर बनी रहनी चाहिए।

सीखने से न केवल हमारे पूर्वाग्रह टूटते

हैं, बल्कि वह आगे के जीवन में भी

फायदेमंद साबित होता है। वे हमेशा कहा

करते थे कि भारत का कल्याण शक्ति की

साधना में है। जन-जन में जो साहस और

विवेकछुपा है, हमें उसे बाहर लाना होगा।

शक्ति और पौरुष के समन्वय से ही भारत

में नई मानवता का निर्माण हो सकेगा।

जिज्ञासु प्रवृत्ति जरूरी

अक्सर हम दोनों पक्षों को जाने-बिना अपनी

एक धारणा बना लेते हैं। किसी साहित्य,

फिल्म, किसी प्रथा या किसी व्यक्ति के बारे

में जाने बिना ही उसके सही और गलत

होने का आकलन कर लेते हैं। विवेकानंद

जब युवा थे, तो उस समय हिंदू धर्म को

श्रेष्ठ मानने का चलन था और दूसरे धर्मों

की निंदा की जा रही थी। इतिहासकार रोमा

रोलां की किताब च्विवेकानंद की जीवनीज्

के अनुसार, स्वामीजी जिज्ञासु प्रवृत्ति के

थे। उन्होंने निंदकों के सुर में सुर मिलाने

की बजाय खुद प्रमाण खोजने की कोशिश

की। उन्होंने अंग्रेज दार्शनिक हर्बर्ट स्पेंसर

और जॉन स्टुअर्ट की फिलॉसफी का गहन

अध्ययन किया। इससे उन्होंने निष्कर्ष

निकाला कि यूरोपीय सभ्यता निरंतर खोज

और अनुसंधान में लगी रहती है, जो किसी

भी कथन को प्रमाण न मानकर प्रत्येक

विषय का विश्लेषण स्वयं करना चाहती है।

वह सत्य की खोज में सिर्फ विवेक और

बुद्धि का ही सहारा लेती है। इसके अलावा,

उन्होंने संस्कृत के प्रमुख ग्रंथों और इस्लाम

का भी बारीकी से अध्ययन किया। भारत

और समग्र विश्व की समस्याओं पर विचार

किया। इसके आधार पर उन्होंने व्यावहारिक

सिद्धांत और समाधान निकाले। उन्होंने

बताया कि यदि हमें अपने देश और धर्म को

विकसित करना है, तो निंदा करने की बजाय

जिज्ञासु प्रवृत्ति का होना अत्यंत आवश्यक है।

पांच मिनट की एकाग्रता

कभी-कभार सामान्य जन के मन में यह

प्रश्न उठता है कि क्या आध्यात्मिक आनंद

पाने के लिए संन्यास जरूरी है? रोमा रोलां

के अनुसार, स्वामी विवेकानंद स्वयं संन्यासी

थे, लेकिन गृहस्थों के प्रति उनमें अत्यधिक

प्रेम था। उनका विचार था कि एक गृहस्थ

भी उच्चकोटि के विचार और एक संन्यासी

भी निम्न विचार रख सकता है। वे कहते थे,

च्मैं संन्यासी और गृहस्थ में कोई भेद नहीं

करता हूं। जिनमें भी मुझे हृदय की विशालता

और चरित्र की पवित्रता के दर्शन होते हैं,

मेरा मस्तक उसी के सामने झुक जाता है।

रोज की दिनचर्या से आप यदि पांच या एक

मिनट भी समय निकालकर चित्त एकाग्र

कर सकें, तो वही पर्याप्त है। बाकी समय

विद्याध्ययन और सामान्य हि


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