यह पूरा ब्रह्मांड खूबसूरत है तो इसका निर्माता कैसा होगा
कबीर कहते हैं कि गुरु के घर का दरवाजा है मुक्तता, यानी गुरु कभी भी शिष्य को बांधता नहीं है। शिष्य को भी वह उसके स्वभाव में रहने देता है।
निधियां रखता है। गुरु के पास जाने से हमें विषाद से मुक्ति मिलती है। विषाद प्रसाद में बदल जाता है। गुरु से हमें विद्या प्राप्त होती है। तीसरे, विवेक में वृद्धि होती है। विश्वास मजबूत होता है। पांचवीं प्राप्ति, विकास होता है। गुरु से छठा दान मिलता है विश्राम का। सातवां, भीतरी वैराग्य की वृद्धि होती है। गुरुदर्शन से विस्मय बढ़ता है। आखिरी निधि है कि गुरु के प्रसाद से विचार शून्यता आती है।
आप कहेंगे कि क्या गुरु के पास जाना जरूरी है, क्या गुरु वैसे ही नहीं दे सकता? मैं कहता हूं कि जाना ही परंपरा है। स्वयं राम गए। गुरु तो दाता है, लेकिन कुछ हमारी तरफ से कदम उठने चाहिए। एक शेर है- हमको है आरजू कि वो नकाब उठाएं खुद...उनको है इंतजार कि तकाजा करे कोई। गुरु खुद को लुटा देगा, मगर वह चाहता है कि कोई तकाजा करे, तकाजा यानी ब्रह्म-जिज्ञासा। राम ब्रह्म होते हुए भी गए तो अल्पकाल में समस्त विद्याएं प्राप्त हुईं। गुरुगृह जाने का मतलब है कि उनकी जागी हुई आत्मा के साथ चैतसिक संबंध जोड़ना। जब कभी मन में विषाद हो, तब इधरउधर जाने के बजाए गुरुगृह जाइए। वहां से कोई प्रसाद पाए बिना नहीं लौटा। विषाद प्रसाद में न बदले, ऐसा हो ही नहीं सकता। गुरु विद्या प्रदान करता है। संतों की अनुभूति है कि हम जैसे संसार के लोग जो मायाग्रस्त हैं, उनको विद्या की जरूरत है। माया के दो प्रकार हैं- विद्या और अविद्या। गुरु के पास जाने से फायदा यह होता है कि उस विद्या की प्राप्ति हो जाती है, जिसके कारण माया का प्रपंच हमारे
लिए दुखद नहीं रहता।
विद्या का सीधा-सा अर्थ है समझ। गुरु के पास जाने से विवेक में वृद्धि होती है। जाते समय हम कुछ और होते हैं, मगर लौटते समय हम कुछ और हो जाते हैं। गुरु के पास जाने से विश्वास बढ़ता है। गुरु का कोई एक वाक्य भी भरोसा मजबूत कर देता है। हम गिरते-गिरते संभल जाते हैं। गुरु के पास जाने से हमारा विकास होता है। धर्म विकास हो, अर्थ विकास हो, काम विकास हो या मोक्ष विकास। गुरु के घर से छठा दान मिलता है विश्राम का। विकास के बाद विश्राम न मिले तो ऐसा विकास किसी काम का नहीं होता। सातवां है, गुरु के साथ चैतसिक
सामीप्य पाने से वैराग्य बढ़ता है। बाहर से सब कुछ वैसा ही रहेगा, मगर अंदर से असंगता बढ़ती जाएगी। भरी महफिल में भी भीतरी वैराग्य बहुत आनंद देने लगता है।
आगे का सूत्र है- बार बार गुरु दर्शन से विस्मय बढ़ता है। जो नहीं देखा, उसकी खोज शुरू हो जाती है। विस्मय का एक अर्थ है- ब्रह्म जिज्ञासा। यह पूरा ब्रह्मांड खूबसूरत है तो इसका निर्माता कैसा होगा। आखिरी सूत्र है कि
गुरु के प्रसाद से हम विचारशून्य होने लगते हैं। हमारा अनुभव होता है कि हम लाख सोच कर गए कि क्या-क्या कहना है, मगर गुरु के पास जाने पर कुछ नहीं बोल पाते। विचार शून्यता बहुत बड़ी उपलब्धि है। योग साधना में इसे निर्विकल्प समाधि माना जाता है। आदमी अकारण सोचता रहता है। विचार जहां करना हो, सिर्फ वहीं करना चाहिए।
गुरु और शिष्य अथवा तो कोई बुद्ध पुरुष और कोई साधक बस दो मोमबत्ती की तरह हैं। एक जल चुकी है और एक अभी जलाई नहीं गई है। बस इतना-सा ही अंतर है। और ध्यान रखें कि जो जल चुकी है, वो प्रकाश तो दे रही है मगर कुछ कम भी हुई होगी। जो अभी जली ही नहीं है, वह पूरी की पूरी होगी। उसमें अभी तमाम संभावनाएं मौजूद होंगी। कबीर कहते हैं कि गुरु के घर का दरवाजा है मुक्तता, यानी गुरु कभी भी शिष्य को बांधता नहीं है। शिष्य को भी वह उसके स्वभाव में रहने देता है।