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आत्मबल का जागरण करती है सनातन परंपरा, जिससे व्यक्ति बनता है स्वावलंबी

अमृत चिंतन सामाजिक आर्थिक और भावनात्मक रूप से सशक्त होना विशेषकर आध्यात्मिक रूप से सशक्त होना ही स्वावलंबन है। जो आंतरिक रूप से सशक्त नहीं है जिसका स्वयं पर विश्वास नहीं है वह व्यक्ति कभी स्वावलंबी नहीं हो सकता...

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Mon, 04 Jul 2022 06:08 PM (IST)Updated: Mon, 04 Jul 2022 06:08 PM (IST)
जीवन को किसी दूसरे के सुख का साधन नहीं बनाना चाहिए।

मनोज कुमार द्विवेदी। 'स्वावलंबन' दो शब्दों से मिलकर बना है- 'स्व' एवं 'अवलंबन'। 'स्व' का अर्थ है -स्वयं का एवं 'अवलंबन' का अर्थ है - आश्रय। इस प्रकार स्वावलंबन का अर्थ हुआ अपना आश्रय या सहारा स्वयं बनना। स्व का अवलंबन। स्व का आश्रय। स्वयं का सहारा। इसको ऐसे भी कहा गया है कि अपने आत्मबल को जाग्रत करना ही 'स्वावलंबन' कहलाता है। स्वावलंबन के दो आधार हैं, प्रथम-आत्मनिश्चय और दूसरा-आत्मनिर्भरता। स्वावलंबी व्यक्ति के सामने असंभव कार्य इसलिए भी संभव दिखने लगता है, क्योंकि वह आत्मनिश्चय कर चुका होता है। वह पीछे नहीं हटता। वह पूर्णतया आत्मनिर्भर होता है। स्व पर निर्भर होता है। इसी से वह ऐसे कार्य कर डालता है, जो लोगों को अचंभे में डाल देते हैं।

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स्वावलंबन ही जीवन है और परावलंबन मृत्यु। स्वावलंबन पुण्य है और परावलंबन पाप। छोटे-छोटे कार्यों के लिए दूसरों पर आश्रित रहना 'परावलंबन' कहलाता है। परावलंबी व्यक्ति सामथ्र्यहीन होता है। शरीर का बल होने के बाद भी वह कार्य नहीं करता। वह दूसरों पर निर्भर है। जिसमें अपने पैरों पर खड़े होने का सामथ्र्य नहीं, वह दूसरों का कंधा पकड़कर कब तक चल सकेगा।

विश्व का इतिहास ऐसे महापुरुषों के उदाहरणों से भरा पड़ा है, जिन्होंने स्वावलंबन का सहारा लिया और अपने संकल्प की शक्ति से सिद्धि प्राप्त की है। महाकवि तुलसी दास, संत कबीरदास, छत्रपति शिवाजी, स्वामी विवेकानंद आदि अनेक ऐसे महापुरुष हुए हैं, जो सच्चे अर्थों में स्वावलंबी थे और इसी कारण लोक कल्याण में उनका योगदान हमेशा याद किया जाता रहा है। हमारे उपनिषदों में कहा गया है कि ईश्वर उसी की सहायता करता है, जो अपनी सहायता स्वयं करता है। ईश्वर आलसियों की मदद नहीं करता। जो उद्यम करेगा, वही ईश्वरीय सहायता का हकदार होता है।

आत्मा को समझने का जो शास्त्र है, उसे अध्यात्म कहते हैं। यह एकमात्र शास्त्र ऐसा है, जो मनुष्य को किसी भी स्थिति में आनंद में कैसे रहें, यह सिखाता है। अध्यात्म का अर्थ है अपने भीतर के चेतन तत्व को जानना, मानना और दर्शन करना अर्थात अपने आपके बारे में जानना या आत्मप्रज्ञ होना।

गीता के आठवें अध्याय में अपने स्वरूप अर्थात जीवात्मा को अध्यात्म कहा गया है- परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।

हमारे उपनिषद आध्यात्मिकता तथा दार्शनिकता से परिपूर्ण ग्रंथ हैं। ये चिंतनशील ऋषियों द्वारा ब्रह्म के विषय में वर्णित ज्ञान के भंडार हैं और भारतीय आध्यात्मिक संस्कृति की अमूल्य धरोहर हैं। समस्त भारतीय दार्शनिक चिंतन का मूल उपनिषद ही हैं। उपनिषद चिंतनशील ऋषियों की ज्ञान चर्चाओं का सार हैं। मानव जीवन के उत्थान के समस्त उपाय उपनिषदों में वर्णित हैं।

ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छांदोग्य, श्वेताश्वतर, बृहदारण्यक इन 11 प्रामाणिक उपनिषदों में स्वर्णिम मानव जीवन मूल्यों का वर्णन उपलब्ध है। भगवान शंकराचार्य ने इनका ही भाष्य किया था। इसका कारण यह है कि उपनिषद जीवन-मूल्यों की बात प्रमुखता से करते हैं, जो हमें स्वावलंबी बनने के लिए प्रेरित करते हैं।

सनातन धर्म में मानव जीवन के लिए जो कुछ भी इष्ट, कल्याणकारी, शुभ व आदर्श है, उसे जीवन मूल्य माना गया है, जिनसे मानव जीवन का संपूर्ण विकास हो। उपनिषदों के चिंतन में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष -चार पुरुषार्थों में समस्त मानव जीवन मूल्य समावेशित हैं। हमारे ऋषियों का कहना था कि जिन उत्कृष्ट सद्गुणों से मानव जीवन सम्यक प्रकार से अलंकृत होता है, वे आचरणीय सूत्र ही मानवीय मूल्य हैं। पवित्र आचरण, श्रेष्ठ ज्ञान, सत्य, तप, दान, त्याग की भावना, लोभ से निवृत्ति, क्षमा, धैर्य, शम और दम आदि अनेक उत्तम जीवन मूल्य हैं, जो मनुष्य के जीवन को आनंदमय बनाते हैं।

ईश उपनिषद के प्रथम मंत्र में त्याग के आदर्श को जीवन मूल्य के रूप में स्थापित करते हुए कहा गया है- तेन त्यक्तेन भुंजीथा: मा गृधा कस्यस्विधनम् अर्थात जीवन में प्राप्त समस्त भोग सामग्री को त्याग की भावना के साथ प्रयोग करो, क्योंकि समस्त भोग्य पदार्थों का स्वामी ईश्वर है। उसी का इस पर अधिकार है। भौतिक पदार्थों को प्राप्त करने की लालसा में किसी दूसरे के धन पर लोभ की दृष्टि मत रखो। जब हम स्वावलंबी होते हैं तो हममें अतिशय संग्रह की भावना का विकास नहीं होता। हममें त्याग की उसी भावना का विकास होता है, जिसे इस मंत्र में कहा गया है। भौतिक पदार्थों के संग्रह, उपभोग तथा धन से कभी भी मनुष्य को तृप्ति नहीं मिल सकती।

निरंतर पुरुषार्थ से युक्त गतिमय जीवन के माध्यम से स्वावलंबन का आदर्श प्रस्तुत करते हुए इशोपनिषद में कहा गया है-कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा:। इस मंत्र में उत्कृष्ट जीवन मूल्य के साथ-साथ मनुष्य को स्वावलंबी बनाने का भी उपदेश प्रस्तुत किया गया है। अकर्मण्य, प्रमादी, गति रहित मनुष्य स्वावलंबन के पथ पर कदापि अग्रसर नहीं हो सकता। जो व्यक्ति जीवन समर में अपने सांसारिक कर्मों का निरंतर संपादन करता है, वही स्वयं तथा राष्ट्र को स्वावलंबन की ओर ले जा सकता है। अपने कर्तव्यों को निरंतरता से करने का विवेक ही स्वावलंबन है। अपनी शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक शक्तियों के माध्यम से श्रेष्ठ कर्मों में निष्ठा ही आध्यात्मिक स्वावलंबन प्रदान करती है।

कठोपनिषद में प्रेरणात्मक शैली में उद्घोष किया गया है-उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत अर्थात् उठो जागो अपनी मानसिक और आत्मिक शक्तियों के संग्रह हेतु श्रेष्ठ विद्वानों का संसर्ग करो और ब्रह्म विद्या के मार्ग का आश्रय लो। कठोपनिषद के इसी अमर वाक्य को अपने जीवन में आत्मसात करके स्वामी विवेकानंद ने संपूर्ण भारत वर्ष की सोई हुई युवा शक्ति में आध्यात्मिक स्वावलंबन एवं स्वाभिमान की भावना को जाग्रत किया था।

उपनिषदों में वर्णित ये सभी चिरंतन मूल्य मानव जीवन को स्थायित्व प्रदान कर लोक कल्याण एवं विश्व बंधुत्व की भावना का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

शारीरिक स्वाधीनता, मानसिक स्वाधीनता और आत्मिक स्वावलंबन का उपनिषद ही मूल मंत्र है। उपनिषद के इन उत्कृष्ट आचरणीय मूल्यों का अनुसरण करके परिवार तथा समाज के वातावरण को श्रेष्ठ बनाया जा सकता है। शास्त्रों में कहा गया है :

त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्।

ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्॥

अर्थात् अगर कहीं कुल का हित हो रहा हो तो एक व्यक्ति के हित का परित्याग कर देना चाहिए और अगर गांव का भला हो रहा हो तो कुल का हित परित्याग देना चाहिए। अगर नगर का, जिले का भला हो रहा हो तो गांव का हित त्याग देना चाहिए। लेकिन अगर व्यक्ति स्वावलंबी बन रहा हो, राष्ट्र स्वावलंबी हो, समाज स्वावलंबी हो, आत्मनिर्माण हो रहा हो तो इसके लिए अगर हमें पूरी पृथ्वी के हित का परित्याग करना पड़े तो हमें ऐसा त्याग करना चाहिए क्योंकि समाज का, राष्ट्र का और व्यक्ति का स्वावलंबी होना बहुत जरूरी है।

जर्मन विचारक इमैनुएल कांट ने बहुत गहन बात कही है कि चाहे जो भी कार्य करो, उसे इस तरीके से करो कि आपके अंदर जो मनुष्य तत्व है, वह साध्य बना रहे। वह साधन न हो। अर्थात् जीवन को किसी दूसरे के सुख का साधन नहीं बनाना चाहिए।

'मैं जब उपनिषदों को पढ़ता हूं तो आंखों से आंसू बहने लगते हैं। इनका चिंतन जीवन में तेजस्विता का संचार करता है। उठो और इनके चिंतन मनन से अपने बंधनों को काट डालो।'

-स्वामी विवेकानंद

[आध्यात्मिक विषयों के अध्येता]


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