उपनिषदों में राष्ट्र कल्याण: समस्त चराचर को एक समान दृष्टि से देखना ही उपनिषदों का संदेश है
उपनिषदों का उत्कृष्ट चिंतन मनुष्य मात्र के लिए अनुकरणीय रहा है। उपनिषदों की विचारधारा में संपूर्ण विश्व के कल्याण की भावना निहित है। इनके रचनाकार ऋषियों की दृष्टि में अपना पराया जैसा कोई भेद नहीं है। समस्त चराचर को एक समान दृष्टि से देखना ही उपनिषदों का संदेश है...
उपनिषद भारतीय प्राचीन वांगमय के अध्यात्म के रहस्यों से परिपूर्ण ग्रंथ हैं। ऋषियों के सान्निध्य में बैठकर ग्रहण किए जाने वाले रहस्यमयी आध्यात्मिक तत्वों में मनुष्य के जीवन हेतु संपूर्ण कल्याणकारी सामग्री उपनिषदों में विद्यमान है। ऋषि शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक शक्तियों से परिष्कृत विभूति माने जाते हैं। ऋषियों के चिंतन में आध्यात्मिकता के साथ-साथ स्वावलंबन, स्वाभिमान एवं स्वाधीनता के सूत्रों का भी दिग्दर्शन होता है। उपनिषदों के रचनाकार ऋषियों का कहना था कि आत्मिक उन्नति के संवर्धन के बिना स्वावलंबन, स्वाभिमान की कल्पना करना व्यर्थ है। प्रत्येक व्यक्ति में ईश्वर प्रदत्त शक्तियों का भंडार है, परंतु वह सभी शक्तियां अज्ञान के कारण दबी रहती हैं।
अस्तित्व की पहचान
कठोपनिषद में ऋषि मनुष्य को संबोधित करते हुए कहते हैं, 'उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत' अर्थात सर्वप्रथम अज्ञान, प्रमाद रूपी नींद से उठो और अपनी आत्मिक शक्तियों को जाग्रत करते हुए श्रेष्ठ विद्वानों का संसर्ग प्राप्त करो। शारीरिक और मानसिक रूप से सजग एवं सक्रिय व्यक्ति ही सर्वप्रथम अपने अस्तित्व को पहचान पाने में समर्थ होता है। व्यक्तियों से मिलकर ही राष्ट्र बनता है, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति का जागरूक, सक्रिय एवं पुरुषार्थी होना अनिवार्य है।
श्रेष्ठ समाज के निर्माण हेतु प्रत्येक व्यक्ति का यह दायित्व बनता है कि वह सर्वप्रथम अज्ञान, अविद्या, आलस्य, प्रमाद रूपी दलदल से बाहर आए और अपनी आत्मिक शक्तियों को अनुभूत करके श्रेष्ठ समाज और राष्ट्र हेतु अपना योगदान दें। अपने नैतिक मूल्यों एवं कर्तव्यों से प्रत्येक व्यक्ति को अवगत होना अनिवार्य है, इसलिए कठोपनिषद के ऋषि इस वाक्य में कहते हैैं कि श्रेष्ठ विद्वान व्यक्तियों की संगति करो और उनके मार्गदर्शन में राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों को जानो।
स्वयं का परीक्षण
तैत्तिरीय उपनिषद मे ऋषि कहते हैं, 'स्वाध्यायात मा प्रमद:।' इसका अर्थ है कि अपने जीवन में स्वाध्याय से कभी भी प्रमाद मत करो। स्वाध्याय शब्द की दार्शनिक व्याख्या करते हुए कहा गया है कि स्वयं को प्रतिदिन पढऩा, यह आकलन करना कि मेरा जीवन कहीं पशुतुल्य तो नहीं। अंत:करण में आत्मिक शक्तियों का विकास हो रहा है या मेरा व्यक्तित्व पतन के गर्त की ओर जा रहा है।
आत्मिक रूप से स्वयं का परीक्षण करने वाला मनुष्य ही अपने जीवन में आत्मगौरव का संचार करने में समर्थ बनता है। इसलिए ऋषि के कहने का तात्पर्य यह है कि सर्वप्रथम एक मनुष्य को पूर्ण रूप से अपने जीवन के उत्थान हेतु आत्मचिंतन करना चाहिए, जिससे मानसिक पटल एवं हमारे जीवन में सात्विक वृत्तियों का समावेश हो सके। ऐसे उज्ज्वल चरित्र से संपन्न मनुष्य ही समाज एवं राष्ट्र की उन्नति में अपना योगदान दे सकता है।
मनस्विता की शक्ति
ऋषियों का उद्देश्य अध्यात्म के माध्यम से श्रेष्ठ स्वाभिमानी एवं स्वावलंबी स्नातक (गुरुकुल में पूर्ण दीक्षित) तैयार करना होता था, जो जिस कार्य का संकल्प लें, उसे शीघ्र ही पूर्णता की ओर ले जाएं। मुंडकोपनिषद में कहा गया है कि -'सुदृढ़ मनस तत्व से युक्त, एकाग्र चित्त, आत्मशक्ति से परिपूर्ण मनुष्य जिस जिस पदार्थ की कामना करता है, वही पदार्थ उसको प्राप्त होता जाता है। कठिन से कठिन परिस्थिति में वह विजयश्री का आलिंगन करता है।' उपनिषद का यह स्वर्णिम चिंतन आज के संदर्भ में बहुत उपयोगी है। राष्ट्रीय स्वाभिमान एवं राष्ट्र धर्म की रक्षा हेतु ऐसे प्रखर व्यक्तित्व से युक्त युवाओं की परम आवश्यकता है।
त्याग एवं समर्पण
किसी भी परिवार, समाज एवं सुदृढ़ राष्ट्र की धुरी त्याग और समर्पण माने गए हैं। विकट परिस्थितियों में भी अपने राष्ट्र गौरव हेतु सर्वस्व आहूत करने की भावना जहां होती है, उस राष्ट्र में आनंद, सुख व समृद्धि का संचार होता है। ईशावास्योपनिषद में त्यागमय जीवन जीने की प्रेरणा देते हुए कहा गया है कि, 'हे मनुष्य, तुम त्यागपूर्वक संसार में रहते हुए पदार्थों का भोग करो।'
त्याग एवं समर्पण में ही राष्ट्र की उन्नति एवं कल्याण समावेशित है। समाज के उत्थान एवं स्वाभिमान की सुदृढ़ता हेतु उपनिषद् के ऋषि द्वारा दिया गया त्याग का आदर्श आज के संदर्भ में बहुत महत्वपूर्ण है। मैं और मेरा की भावना आपसी सौहार्द में बाधक है।
राष्ट्र का कल्याण
उपनिषद में ऋषि समाज के हित एवं राष्ट्र धर्म को सर्वोच्च रखते हुए कहते हैं कि, 'इदं राष्ट्राय इदं न मम।' अर्थात हमारे द्वारा अर्जित समस्त भौतिक एवं आध्यात्मिक संपदा राष्ट्र के मंगल एवं कल्याण हेतु है। मनुष्य के मानस पटल पर जब अत्यधिक लोभ, मोह एवं अज्ञान की स्थिति हावी हो जाती है तो ऐसी तामसिक अवस्था स्वयं मनुष्य, समाज व राष्ट्र की समृद्धि में बाधक बन जाती है। इसलिए ईशावास्योपनिषद के ऋषि सचेत करते हुए कहते हैं कि किसी के धन-दौलत का लोभ-लालच मत करो।
आध्यात्मिक व भौतिक उन्नति
उपनिषद में ऋषियों ने मनुष्य तथा समाज की आध्यात्मिक उन्नति के साथ-साथ भौतिक विज्ञान की उन्नति का भी संदेश दिया है। इस विषय में अपने चिंतन को प्रस्तुत करते हुए वह कहते हैं कि, 'अविद्या अर्थात भौतिक विज्ञान से जीवन की कठिनाइयों को पार कर, अध्यात्म विज्ञान के माध्यम से मनुष्य परम आनंद को प्राप्त करता है।'
उपनिषद में कहा गया है कि भौतिक विज्ञान हेय नहीं, बल्कि मनुष्य के विकास में सहायक है। जब हम स्थूल दृष्टि से देखते हैं तो अध्यात्म विज्ञान और भौतिक विज्ञान में शत्रुता प्रतीत होती है, परंतु दोनों विद्याओं को साथ लेकर चलने में ही समाज का कल्याण है। जहां आध्यात्मिक ज्ञान तथा भौतिक विज्ञान का समन्वय तथा विकास होता है, वहां हर प्रकार की खुशहाली आती है। आज वैज्ञानिकता के युग में उपनिषदों का ऐसा उत्कृष्ट चिंतन मनुष्य मात्र के लिए अनुकरणीय है।
समता व एकता का संदेश
उपनिषदों की विचारधारा में संपूर्ण विश्व के कल्याण की भावना निहित है। ऋषियों की दृष्टि में अपना पराया कोई नहीं। उन्होंने संपूर्ण ब्रह्मांड को एक घोंसले के समान कहा है। समस्त चराचर को एक समान दृष्टि से देखना ही उपनिषदों का संदेश है। वह संपूर्ण वस्तुओं, क्रियाकलापों में उपासक ईश्वर को व्यापक रूप में देखता है।
उपनिषद मानव को सर्वत्र आत्मतत्व की अनुभूति के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हुए कहते हैं, 'जब मनुष्य का अज्ञान, मोह, शोक नष्ट हो जाता है, तब वह सभी भूतों (जीवों व वस्तुओं) के अंदर उस आत्मतत्व को देखता है। ऐसी अवस्था में मानव की समस्त घृणा, पाप, द्वेष की भावना समाप्त हो जाती है। संपूर्ण भूमंडल मनुष्य को अपना परिवार लगने लगता है।' समता और एकता का यह दिव्य संदेश समाज तथा राष्ट्र को कल्याण के मार्ग पर अग्रसर करने की प्रेरणा देता है।
संयम और तप का महत्व
संयम एवं तपोबल की शिक्षा देते हुए बृहदारण्यक उपनिषद कहता है कि, 'इंद्रियों पर विजय एवं जीवन में तप के अनुष्ठान से मृत्यु पर भी विजय प्राप्त की जा सकती है। जीवन में आने वाली हर प्रकार की भौतिक बाधा को इनके माध्यम से दूर किया जा सकता है। संयम, तपोबल द्वारा ही राष्ट्र के जनमानस में ओज व पराक्रम का संचार होता है।'
इसी प्रकार छांदोग्य उपनिषद में अर्थ की शुचिता, आहार की शुचिता एवं आचरण की पवित्रता का संदेश उपनिषदकालीन राजा अश्वपति के उदात्त चरित्र के माध्यम से दिया गया है। उपनिषदों का यह शाश्वत चिंतन अति प्राचीन होते हुए भी आज भी स्वाभिमान, आत्मगौरव एवं यशस्वी जीवन जीने की निरंतर प्रेरणा प्रदान करता है।
उपनिषदों के इस दिव्य चिंतन से ही आज के समाज तथा राष्ट्र में आनंद, शांति और समृद्धि का संचार हो सकता है। उपनिषदों का उत्कृष्ट चिंतन जीवन में मानसिक एवं आत्मिक शांति की प्राप्ति करवाने में पूर्ण रूप से समर्थ है। इनके स्वर्णिम ज्ञान रूपी अमृत में ही मनुष्य की पारिवारिक, सामाजिक उन्नति का मूल मंत्र निहित है।
आचार्य दीप चन्द भारद्वाज, आध्यात्मिक चिंतक एवं लेखक