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यज्ञ से अधिक फलदायी है 'श्राद्ध कर्म'

मृतक की आत्मा को सम्मान देना ही श्राद्ध कर्म कहलाता है। श्रद्धा व भक्ति पूर्वक श्रद्ध कर्म करने वालों से पितर प्रसन्न व संतुष्ट रहते हैं। शास्त्रों में श्रद्ध कर्म को यज्ञ से अधिक फलदायी माना गया है। यही कारण है कि किसी मांगलिक कार्यो में देवताओं से पहले पितरों की पूजा की जाती है। तर्पण पितृ रूपी जनार्दन की उपासना है। जनार्दन भगवान नारायण का व

By Edited By: Published: Wed, 02 Oct 2013 02:25 PM (IST)Updated: Wed, 02 Oct 2013 03:22 PM (IST)
यज्ञ से अधिक फलदायी है 'श्राद्ध कर्म'

मृतक की आत्मा को सम्मान देना ही श्राद्ध कर्म कहलाता है। श्राद्धा व भक्ति पूर्वक श्रद्ध कर्म करने वालों से पितर प्रसन्न व संतुष्ट रहते हैं। शास्त्रों में श्राद्ध कर्म को यज्ञ से अधिक फलदायी माना गया है।

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यही कारण है कि किसी मांगलिक कार्यो में देवताओं से पहले पितरों की पूजा की जाती है। तर्पण पितृ रूपी जनार्दन की उपासना है। जनार्दन भगवान नारायण का वह रूप है जो गदाधर विष्णु के रूप में प्राणियों की पीड़ा, कष्ट, चिंता, उत्तेजना, क्षोभ आदि का शमन करते हैं। तर्पण का अर्थ तृप्ति अथवा प्रसन्नता से है। आस्थारहित मन की चंचलता के कारण जो लोग तर्पण नहीं करते हैं उनके पितर पिवासित रहते हैं और शरीर से निकले पसीने को पीते रहते हैं।

शास्त्रों में तिल और कुश से पितरों को तर्पण करने का विधान है। यदि उसका भी अभाव हो तो केवल मंत्रों से भी तर्पण किया जा सकता है। तिल सहित तर्पण करने का निषेध रविवार, मंगलवार, शुक्त्रवार के दिन प्रतिपदा, षष्ठी, सप्तमी, एकादशी व त्रयोदशी इन पांच तिथियों के भरणी, मघा, कृत्तिका नक्षत्रों में तथा जन्म के दिन, विवाह के दिन तिल से तर्पण करने का निषेध धर्मशास्त्र के ग्रंथों में वर्णित है। घर में विवाह होने पर एक वर्ष, उपनयन संस्कार होने पर तीन माह तक, मुंडन संस्कार होने के तीन माह तक तिल से तर्पण नहीं करना चाहिए। शास्त्रों में यह भी कहा गया है कि पितृ पक्ष में गंगा नदी के तट पर या तीर्थ स्थलों में तिल से तर्पण का निषेध नहीं है। (लेखक - संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रोफेसर व सांख्ययोग तंत्रगम विभाग के पूर्व अध्यक्ष हैं)।

श्राद्ध वह प्रक्रिया है जिसमें तर्पण कर हम पितरों को तृप्त करते हैं। आज युवा पीढ़ी पाश्चात्यता के अंधानुकरण में श्रद्धकर्म से अनभिज्ञ हो रही है, उनके मन में संस्कारों की ऐसी माला पिरोएं जिसकी मनका में रीति रिवाजों का महत्व कूट-कूट कर भरा हो ताकि वह भी वक्त आने पर हमारा श्राद्ध करने से न चूकें। आज मेरा बच्चा शहर के बाहर है लेकिन मैं उसे हर साल उसके दादा जी के श्राद्ध दिवस पर फोन कर संदेश देती हूं कि वह अपने दादा जी के नाम पर किसी गरीब को भोजन करा दे या मंदिर में पुजारी को दान दे।

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