एकाग्रता: लक्ष्य प्राप्ति के लिए जरूरी है हम जिस कार्य को करें हर पल उसी के विषय में सोचें
ध्येय वस्तु का ध्यान करते-करते मन उसमें ही विलीन हो जाता है। इससे साधक हर पल ध्यानमय रहता है। ध्यान हर स्थिति में चलता रहता है। यह अमन की अवस्था ही ध्यान है। ऐसा करने पर साधक अपने आत्मा में परमात्मा के दर्शन करता है।
वास्तव में ध्यान मन की लहरों को शांत करना है। अर्थात मन को विचारों से खाली करना है और यह ध्यान मन की एकाग्रता से प्रारंभ होता है। प्राय: हम अपने कार्यों के प्रति एकाग्र नहीं होते हैं। हम स्नान कर रहे होते हैं तो भोजन या फिर अन्य विषय के बारे में सोचते हैं। जब भोजन कर रहे होते हैं तो हमारे भीतर अन्य दूसरे विचार आते रहते हैं। कहने का मतलब है कि हम एक कार्य कर रहे होते हैं, परंतु सोचते हैं अन्य कार्यों के प्रति। इससे मन की एकाग्रता क्षीण होती है। कार्य सिद्धि या लक्ष्य प्राप्ति के लिए जरूरी है कि हम जिस कार्य को करें हर पल उसी के विषय में सोचें। धीरे-धीरे हम इसके अभ्यस्त हो जाएंगे। फिर हम बड़ी आसानी से अपने आत्मा के भीतर प्रवेश कर सकेंगे।
सुखपूर्वक हम किसी भी आसन में बैठकर किसी भी चीज या बिंदु पर ध्यान लगाने का अभ्यास कर सकते हैं। ध्यान करते समय हमारे मन में बहुत सारे विचार उत्पन्न हो जाते हैं। उन विचारों को हमें दबाना या रोकना नहीं है, बस साक्षी भाव से उन विचारों को देखना भर है। इन्हीं विचारों तथा इच्छाओं को द्रष्टाभाव से देखने का चमत्कार ही ध्यान है। हम यह महसूस करें कि ये विचार मन के अंदर नहीं, बल्कि बाहर ही गुजर रहे हैं। हम यह भी महसूस करें कि इन विचारों की स्मृतियों से हमारा कोई लेना देना नहीं है। इस प्रकार से धीरे-धीरे हम निर्विचार होते जाएंगे। फिर हम किसी भी प्रकार के ध्यान डूब सकते हैं।
इस प्रकार ध्येय वस्तु का ध्यान करते-करते मन उसमें ही विलीन हो जाता है। इससे साधक हर पल ध्यानमय रहता है। ध्यान हर स्थिति में चलता रहता है। यह अमन की अवस्था ही ध्यान है। ऐसा करने पर साधक अपने आत्मा में परमात्मा के दर्शन करता है। इससे साधक को महसूस होने लगता है कि भगवान हर पल उसके साथ हैं। ऐसा होने पर साधक के मन से कर्तापन का भाव समाप्त हो जाता है। इससे उसके अंदर अहम् का भाव नहीं रह जाता। अहम् से मुक्ति जीवन को सार्थक बनाने की राह खोल देती है।
- अवधविहारी शुक्ल