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प्रकृति की गोद में मां चंडी का मंदिर

पुरानी परंपराओं व जीवन शैली से लगता है कि किश्तवाड़ व इससे संलग्न भूखंडों में देवी शक्ति का प्रभाव हमेशा से ही रहा है। असाल गांव में स्थित माता सरथल का सिद्ध पीठ हो या पाडर की दुर्गम पहाड़ियों के बीच बसा मां रणचंडी का मंदिर।

By Preeti jhaEdited By: Published: Tue, 28 Jul 2015 05:08 PM (IST)Updated: Tue, 28 Jul 2015 05:16 PM (IST)

किश्तवाड़ । पुरानी परंपराओं व जीवन शैली से लगता है कि किश्तवाड़ व इससे संलग्न भूखंडों में देवी शक्ति का प्रभाव हमेशा से ही रहा है। असाल गांव में स्थित माता सरथल का सिद्ध पीठ हो या पाडर की दुर्गम पहाड़ियों के बीच बसा मां रणचंडी का मंदिर।

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इनकी इतिहास व लोकप्रियता जनमानस में इनके प्रति श्रद्धा और आस्था को व्यक्त करता है। वार्षिक मचैल यात्रा सका ही एक जीता जागता उदाहरण है।

मचैल किश्तवाड़ से 95 व गुलाबगढ़ से तीस किलोमीटर दूरी पर भूर्ज व भोट नाला के बीच में स्थित अत्यंत खूबसूरत गांव है। दुर्गम पहाड़ियों के बीच प्रकृति की गोद में बसे इस गांव के मध्य भाग में प्रसिद्ध मचैल माता का मंदिर काठ का बना हुआ है। इस मंदिर के मुख्य भाग के बीचोबीच समुद्र मंथन का आकर्षक व कलात्मक दृश्य अंकित है। मंदिर के बाहरी भाग के पौराणिक देवी देवताओं की कई मूर्तियां लकड़ी की पटिकाओं पर बनी हुई है। मंदिर के भीतर गर्भगृह में मां चंडी एक पिंडी के रूप में विराजमान हैं।

इस पिंडी के साथ ही दो मूर्तियां प्रतिष्ठापित की गई है। इनमें से एक मूर्ति चांदी की है। इस मूर्ति के बारे में कहा जाता है कि इसे बहुत समय पहले जंस्कार (लद्दाख) के बौद्ध मतावलंबी भोटों ने मंदिर में चढ़ाया था। इसलिए इस मूर्ति की भोट मूर्ति भी कहते हैं। इन मूर्तियों पर कई प्रकार के आभूषण सजे हैं। मंदिर के सामने खुला मैदान है, यहां यात्री खड़े हो सकते हैं।

मां ने दिलाई कई सेना नायकों को विजय : इस देवी पीठ की कई किमवदंतिया हैं। कहा जाता है जब भी किसी शासक ने मचैल के रास्ते से होकर जंस्कार क्षेत्र पर चढ़ाई की तो अपनी विजय के लिए माता से प्रार्थना की और मन्नत मांगी। सेना नायकों और योद्धाओं की इष्ट देवी होने के कारण ही इस देवी का नाम रणचंडी पड़ा। जोरावर सिंह, वजीर लखपत जैसे सेना नायकों ने जब जंस्कार पर चढ़ाई की तो इसी मार्ग से गुजरते हुए मां से प्रार्थना की और विजय हासिल की थी। 1947 में जब जंसकार क्षेत्र पाकिस्तान के कब्जे में आया, तो भारतीय सेना के कर्नल हुकुम सिंह ने माता मंदिर में मन्नत मांगी और जब वह जीत कर आए तो मंदिर में यज्ञ का आयोजन कराने के साथ ही धातु की मूर्ति प्रतिष्ठापित की। दूसरी मूर्ति कर्नल यादव द्वारा चढ़ाई गई थी।

1981 में शुरू हुई मचैल यात्रा : ठाकुर कुलवीर सिंह जो पाडर क्षेत्र में पुलिस अधिकारी के रूप में तैनात होने पर उनका मचैल आना हुआ। जहां उन्हें माता की शक्ति का अहसास हुआ। उसके बाद वह माता की भक्ति में लग गए। उन्होंने सन 1981 में मचैल यात्रा का शुभारंभ कराया। पहले यह यात्र छोटे से समूह तक ही सीमित रही। लेकिन किश्तवाड़ और गुलाबगढ़ का मार्ग खुलने के बाद यात्रियों की संख्या बढ़ती गई। बढ़ते बढ़ते यह संख्या हजारों तक पहुंच गई और यह स्थानीय यात्र न रहकर पंजाब, दिल्ली, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश से आए श्रद्धालुओं की भी यात्र बन गई है।

चुनरियों से सजा होता है त्रिशूल : मचैल यात्रा भाद्रपद संक्रांति से चार पांच दिन बाद अठारह अगस्त के चिनौत गांव से प्रांरभ होती है। यात्र की छड़ी के रूप में चुनरियों से सजा एक त्रिशुल होता है।


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