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35 वर्ष की अवधि में ही लगभग डेढ़ लाख कन्याएं देवी-देवताओं को समर्पित की गईं

भारत में सबसे पहले देवदासी प्रथा के अंतर्गत धर्म के नाम पर औरतों के यौन शोषण को संस्थागत रूप दिया गया था। प्राय: देवदासियों की नियुक्ति मासिक अथवा वार्षिक वेतन पर की जाती थी।

By Preeti jhaEdited By: Published: Thu, 09 Jun 2016 05:21 PM (IST)Updated: Fri, 10 Jun 2016 11:00 AM (IST)
35 वर्ष की अवधि में ही लगभग डेढ़ लाख कन्याएं देवी-देवताओं को समर्पित की गईं

कर्नाटक के बेलगाम जिले के सौदती स्थित येल्लमा देवी के मंदिर में हर वर्ष माघ पुर्णिमा के दिन किशोरियों को देवदासियां बनाया जाता है। मुगलकाल में, जबकि राजाओं ने महसूस किया कि इतनी संख्या में देवदासियों का पालन-पोषण करना उनके वश में नहीं है, तो देवदासियां सार्वजनिक संपत्ति बन गईं।

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आलम यह है वर्तमान में कर्नाटक के 10 और आंध्र प्रदेश के 14 जिलों में यह प्रथा अब भी बदस्तूर जारी है। देवदासी शब्द का प्रथम उल्लेख कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' में मिलता है। मत्स्य पुराण, विष्णु पुराण एवं अन्य हिन्दू धार्मिक ग्रंथों में भी इस शब्द का उल्लेख मिलता है।

भारत में सबसे पहले देवदासी प्रथा के अंतर्गत धर्म के नाम पर औरतों के यौन शोषण को संस्थागत रूप दिया गया था। प्राय: देवदासियों की नियुक्ति मासिक अथवा वार्षिक वेतन पर की जाती थी। मध्ययुग में देवदासी प्रथा और भी परवान चढ़ी।

स्वतंत्रता के बाद 35 वर्ष की अवधि में ही लगभग डेढ़ लाख कन्याएं देवी-देवताओं को समर्पित की गईं। यह कुप्रथा पूरी तरह समाप्त नहीं है। अभी भी यह कई रूपों में जारी है। कर्नाटक सरकार ने 1982 में और आंध्र प्रदेश सरकार ने 1988 में इस प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया था, लेकिन मंदिरों में देवदासियों का गुजारा बहुत पहले से ही मुश्किल हो गया था।

1990 में किये गए एक सर्वेक्षण के अनुसार 45.9 फीसदी देवदासियां महानगरों में वेश्यावृत्ति में संलग्न मिलीं, बाकी ग्रामीण क्षेत्रों में खेतिहर मजदूरी और दिहाड़ी पर काम करती पाई गईं थी। धर्म के नाम पर हज़ारों वर्षों से लोगों का तरह-तरह से शोषण होता रहा है। तरह-तरह की ऐसी प्रथायें चलती रहीं, जो अमानवीय थीं। इक्कीसवीं सदी और 'पोस्ट मॉडर्निज़्म' के इस दौर में भई धर्म के प्रभाव में कोई कमी नहीं आई है।

प्रसिद्ध इतिहासकार विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े के महत्त्वपूर्ण ग्रंथ 'भारतीय विवाह संस्था का इतिहास', देवराज चानना की पुस्तक 'स्लेवरी इन एंशियंट इंडिया', एस. एन. सिन्हा और एन. के. बसु की पुस्तक 'हिस्ट्री ऑफ प्रॉस्टिट्यूशन इन इंडिया', एफ ए मार्गलीन की पुस्तक 'वाइव्ज़ ऑफ द किंग गॉड, रिचुअल्स ऑफ देवदासी', मोतीचंद्रा की 'स्टडीज इन द कल्ट ऑफ मदर गॉडेस इन एंशियंट इंडिया', बी. डी. सात्सोकर की 'हिस्ट्री ऑफ देवदासी सिस्टम' में इस कुप्रथा पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। जेम्स जे. फ्रेजर के ग्रंथ 'द गोल्डन बो' में भी इस प्रथा का विस्तृत ऐतिहासिक विश्लेषण मिलता है।

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