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यह व्यावहारिक जगत तुम्हारा कर्मक्षेत्र है

तुम्हारे जीवन रूपी बहाव को, सामाजिकता, रीति-रिवाज और परंपराओं ने अनेक बांध लगा रखे हैं, जिस कारण तुम्हारे में अस्वाभाविकता का विकास हो चुका है। तुम्हारे मन के साथ अनेक नवीन संस्कार जुड़ चुके हैं।

By Edited By: Published: Thu, 10 Jan 2013 11:18 AM (IST)Updated: Thu, 10 Jan 2013 11:18 AM (IST)

तुम्हारे जीवन रूपी बहाव को, सामाजिकता, रीति-रिवाज और परंपराओं ने अनेक बांध लगा रखे हैं, जिस कारण तुम्हारे में अस्वाभाविकता का विकास हो चुका है। तुम्हारे मन के साथ अनेक नवीन संस्कार जुड़ चुके हैं। तुमने अभी तक अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं, जिनका प्रभाव तुम्हारे मन पर, तुम्हारे तन पर पड़ा है। इन सारी अस्वाभाविकताओं की सारी कुंठाओं को पहले समाप्त करना होगा। इसलिए पहले तुम मन को मन के संचार को, रक्त के संचार को, शरीर के तापमान को, विचारों के प्रवाह को एक रास्ता दो। अगर ऐसा नहीं करोगे तो साधना में, तुम्हारा तन और मन दोनों स्वाभाविक रूप में न आकर, तुम्हें तुम्हारे प्रतिकूल ले जाने का प्रयास करेंगे और तुम चाह कर भी साधना नहीं कर पाओगे।

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यही कारण है कि आम आदमी को साधना में सफलता नहीं मिलती। वह परिश्रम तो करता है पर मन और तन उसे अपनी गुलामी से मुक्त नहीं करते। आम आदमी का अतीत भी तुम्हारी तरह खट्टा और मीठा होता है। दोनों तरह की अनुभूतियां जब जाग जाती हैं तो तुम्हें तुम्हारे से काफी दूर कर देती है। यह खासतौर पर साधना में ज्यादा होता है। जब वह साधना में उतरने का प्रयास करता है या फिर जब वह एकाग्रता के पथ पर पैर रखता है तब तुम साधना पथ के पथिक बनो। मन को ज्यादा खुला रखो, क्योंकि जो कुछ भी तुमने अभी तक स्पर्श किया है, देखा है, स्वाद लिया है और अनुभव किया है। वे सब की सब अनुभूतियां इनके साथ हैं। तन का ख्याल और मन का ख्याल और मन को ध्यान में रखकर साधना में उतरने का मकसद है कि पहले तुम शारीरिक और मानसिक क्रियाओं से जरूर गुजरें। तुम संसार में रह रहे हो। तुम्हें इसका अनुभव है। यह व्यावहारिक जगत तुम्हारा कर्मक्षेत्र है और इसमें रहकर तुम अंर्तयात्रा करना चाहते हो। जिसे आध्यात्मिक जगत कहते हैं। तुमको इन दोनों जगत में तारतम्य स्थापित करने के लिए, अपने शरीर को और इस संसार को महत्वपूर्ण स्थान देना पड़ेगा क्योंकि इस संसार में रहकर ही तुम इस शरीर के द्वारा प्रयोग कर सकते हो।

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