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चैत्र नवरात्रि में इसलिए की जाती है शक्‍त‍ि की पूजा

18 मार्च रविवार से चैत्र नवरात्रि का प्रारंभ हो रहा है। इस उत्‍सव में देवी के शक्‍ति रूप की पूजा होती है। आइये जानें क्‍यों होती है नवरात्रि में शक्‍ति की आराधना।

By Molly SethEdited By: Published: Fri, 16 Mar 2018 09:52 AM (IST)Updated: Fri, 16 Mar 2018 04:47 PM (IST)
चैत्र नवरात्रि में इसलिए की जाती है शक्‍त‍ि की पूजा

ईश्‍वर के लिए भी वंदनीय

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प्रत्येक जीवात्मा के लिए आवश्यक है शक्ति। इसलिए आदिकाल से न सिर्फ मनुष्य, बल्कि ईश्वर भी आद्याशक्ति की उपासना करते रहे हैं। तभी तो देवी रूप में उषा की स्तुति ऋग्वेद में लगभग तीन सौ बार की गई है। भारत में शक्ति उपासना की परंपरा बहुत पुरानी है। माना जाता है कि जब सृष्टि आरंभ हुई, उस समय ब्रह्मा दैत्यों से भयभीत होकर भगवान विष्णु को जगाने लगे। इसके लिए उन्होंने शक्ति (दुर्गा) की स्तुति की। मधु कैटभ से युद्ध करते समय भी भगवान विष्णु ने भगवती की प्रार्थना की। इससे यह सिद्ध होता है कि आदिकाल से ही शक्ति की आवश्यकता प्रत्येक जीवात्मा को पड़ती है। भारत में शक्ति की उपासना तीन प्रकार से होती रही है। वैदिकी, पौराणिकी तथा तांत्रिकी। जगत की उत्पक्ति ही शक्ति (प्रकृति) द्वारा हुई है। जगत की सृष्टि, स्थिति एवं संहार क्रिया का कारण प्रकृति ही है। 

सृष्‍टि की कारक है शक्‍ति 

ऋग्वेद में शक्ति पूजा के रूप में सर्वप्रथम अदिति की स्तुति की बात कही गई है। इसके अनुसार, अदिति सर्वत्र हैं। यही स्रष्टा और सृष्टि भी हैं। यही अंतरिक्ष, माता-पिता और पुत्र भी हैं। विश्वदेव भी अदिति हैं। उपनिषद ग्रंथों में इसी शक्ति को अजा कहा गया है। रात्रि सूक्त में अदिति को ही शक्ति का रूप माना गया है, जो जगत की उत्पत्ति, पालन और फिर उसका संहार भी करती हैं। देवसूक्त में वे स्वयं कहती हैं कि मैं ही रुद्र, वसु, आदित्य तथा विश्व देवों के रूप में विचरण करती हूं। योगशास्त्र में वर्णित कुंडलिनी शक्ति भी यही आद्या शक्ति ही हैं, जिसे योगी गण उत्थान करके षड्चक्र भेदन करते हुए सदाशिव से मेल कराते हैं। 

मात्र रूप है शक्‍ति

स्‍त्री वेदों के अनुसार, सृष्टि संचालन में प्रकृति की ही प्रधानता है। कहा गया है कि सृष्टि की दो धाराएं स्त्री एवं पुरुष हैं। मूलाप्रकृति से स्त्री धारा का विशेष संबंध है। अत: यह कथन सर्वथा सत्य है कि इसलिए स्त्री को प्रकृति माना गया है। देवी भागवत के अनुसार, सभी देवियां तथा समस्त स्त्री जाति प्रकृति की अंशरूपिणी हैं। ब्रह्मशक्ति जब ब्रह्मोन्मुख होती है, तब प्रकृति कही जाती है और वही जब ब्रह्म से विमुख हो जाती है, तब विकृति हो जाती है। भारतीय परंपरा में प्रकृति पूजा का विधान है, न कि विकृति पूजा का। लोक में यह बात प्रत्यक्ष देखी जाती है कि संकट के समय इंसान माता को ही पुकारता है। माता कहकर वह आद्याशक्ति का ही स्मरण करता है। 

जन्‍म से मृत्‍यु तक शक्‍ति का महत्‍व

'आपदि मातैव शरणम' अर्थात विपत्ति में माता ही शरण देती हैं। यही कारण है कि भारत में सदा मातृ शक्ति की उपासना होती रही है। वाक व्यवहार में नाम स्मरण के समय शक्तिमान से पूर्व शक्ति का नाम लिया जाता है। सीताराम, राधेश्याम, लक्ष्मीनारायण, गौरीशंकर, श्रीगणेश आदि। अत: शक्ति के बिना शक्तिमान भी अपूर्ण है। परब्रह्म स्वरूपिणी जगत जननी दुर्गा विश्व की अंबा हैं। यही जगदंबा समस्त प्राणियों में मातृरूप से अवस्थित हैं। ये एक होते हुई भी भक्तों पर कृपा करने हेतु अनेक रूप धारण करती हैं। यही नारायणी रूप में श्री और लक्ष्मी हैं। भक्तों को शारारिक स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य, विद्या बुद्धि तथा आर्थिक संपत्ति प्रदान करने के लिए ही महाकाली, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती इन तीनों रूपों को धारण करती हैं। वैदिक पूजन परंपरा में सप्तमातृका, षोडशमातृका, चौंसठ योगिनियों की पूजा का विधान है। बच्चे का जन्म होने पर छठे दिन षष्ठी देवी की पूजा की जाता है। शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी तथा सिद्धिदात्री ये नौ रूप दुर्गा के ही हैं। नवरात्र के समय इन सभी रूपों की आराधना की जाती है। अदिति, उषा, इंद्राणी, इला, भारती, होला, सिनीवाली, श्रद्धा, पृश्नि की उपासना प्रत्येक मांगलिक कार्यो में सदा से होती आई है। उषा का अर्थ भले ही प्रभात हो, लेकिन देवी रूप में इनकी स्तुति ऋग्वेद में लगभग तीन सौ बार की गई है। ऋग्वेद में शची, इंद्राणी, वाक देवी तथा नदियों की स्तुति देवी रूप में की गई है। महामृत्युंजय मंत्र त्रयंबक तीन अंबाओं के बिना पूर्ण नहीं माना जाता है। गायत्री एवं सावित्री मंत्रों का संबंध शक्ति से ही है। 

जगदंबा का स्‍वरूप

मार्कण्डेयपुराण के अनुसार, 'स्‍त्रीय: समस्ता सकला जगत्सु' अर्थात संसार में समस्त स्‍त्रियां जगदंबा की अंश हैं। परमात्मा की संपूर्ण शक्ति ही जगदंबा है। मनु ने कहा है-यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता:। शक्तिस्वरूपिणी स्त्री की पूजा को प्रधान माना गया है। ईश्वर भी जब अवतार लेकर पृथ्वी पर आते हैं, तब वह शक्ति की उपासना करते हैं। राम की शक्ति पूजा, कृष्ण की अंबिका वन में दुर्गा पूजा, परशुराम का त्रिपुरा देवी की आराधना, उत्तरकालीन बौद्धों की तारा देवी की आराधना शक्ति की उपासना परंपरा की ओर इंगित करता है। संपूर्ण विश्व में जहां कहीं शक्ति का स्फुरण दिखता है, वहां जगदंबा की ही सत्ता है। शक्ति के बिना कोई भी प्राणी किसी भी कार्य को संपन्न नहीं कर सकता है। 

By: प्रो. गिरिजाशंकर शास्त्री 


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