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जानें कब है गोवत्स द्वादशी 2018 आैर इसका महत्व एवम् पूजन विधि

भाद्रपद में मनाया जाने वाला पर्व गोवत्स द्वादशी जिसे वन द्वादशी भी कहा जाता है इस वर्ष 7 सितंबर को मनाया जायेगा। पंडित दीपक पांडे से जानें इसकी पूजन विधि आैर महत्व।

By Molly SethEdited By: Published: Thu, 06 Sep 2018 03:56 PM (IST)Updated: Fri, 07 Sep 2018 10:44 AM (IST)
जानें कब है गोवत्स द्वादशी 2018 आैर इसका महत्व एवम् पूजन विधि
जानें कब है गोवत्स द्वादशी 2018 आैर इसका महत्व एवम् पूजन विधि

क्या है गोवत्स द्वादशी

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भाद्रपद मास में कृष्ण पक्ष की द्वादशी को गोवत्स द्वादशी के नाम से जाना जाता है। इसे आैर भी कर्इ नामों से जाना जाता है जैसे वन द्वादशी, वत्स द्वादशी, आैर बछ बारस आदि। इस साल महिलाओं के द्वारा गाय और बछड़े के पूजन का यह त्यौहार इस वर्ष 7 सितंबर 2018 को मनाया जाएगा। यह त्यौहार संतान की कामना आैर उसकी सुरक्षा के लिए किया जाता है। इसमें गाय - बछड़ा आैर बाघ - बाघिन की मूर्तियां बना कर उनकी पूजा की जाती है। साथ ही साथ महिलायें असली गाय और बछड़े की पूजा भी करती हैं।  गोवत्स द्वादशी के व्रत में गाय का दूध - दही, गेहूं और चावल नहीं खाने का विधान है। इनके स्थान पर इस दिन अंकुरित मोठ, मूंग, तथा चने आदि को भोजन में उपयोग किया जाता है और इन्हीं से बना प्रसाद चढ़ाया जाता है। इस दिन द्विदलीय अन्न का प्रयोग किया जाता है। साथ ही चाकू द्वारा काटा गया कोई भी पदार्थ भी खाना वर्जित होता है। व्रत के दिन शाम को बछड़े वाली गाय की पूजा कर कथा सुनी जाती है फिर प्रसाद ग्रहण किया जाता है। 

वत्स द्वादशी पूजा विधि 

व्रत के दिन सुबह स्नान आदि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करें। दूध देने वाली गाय को बछडे़ सहित स्नान करायें, फिर उनको नया वस्त्र चढ़ाते हुए पुष्प अर्पित करें आैर तिलक करें। कुछ जगह पर लोग गाये सींगों को सजाते हैं आैर तांबे के पात्र में इत्र, अक्षत, तिल, जल तथा फूलों को मिलाकर गौ का प्रक्षालन करते हैं। इस दिन पूजा के बाद गाय को उड़द से बना भोजन करायें। पूजन करने के बाद वत्स द्वादशी की कथा सुनें। गोधूलि में सारा दिन व्रत करके गौमाता की आरती करें। उसके बाद भोजन ग्रहण करें। जो लोग इस पर्व को वन द्वादशी के रूप में मनाते हैं वे पूजा के लिए प्रात:काल स्नान करके लकड़ी के पाटे पर भीगी मिट्टी से सात गाय, सात बछड़े, एक तालाब और सात ढक्कन वाले कलश बनायें। इसके बाद पूजा की थाली में भीगे हुए चने-मोठ, खीरा, केला, हल्दी, हरी दूर्वा, चीनी, दही, कुछ पैसे आैर चांदी का सिक्का रखें। अब एक लोटे में पानी लेकर उसमें थोड़ा कच्चा दूध मिला लें। माथे पर हल्दी का टीका लगा कर व्रत की कहानी सुनें।कथा के बाद कुल्हड़ीयों में पानी भरकर पाटे पर चढ़ा दें आैर खीरा, केला, चीनी व पैसे भी चढ़ा दें। इसके बाद एक परात को पटरे के नीचे रख कर तालाब में सात बार लोटे में कच्चा दूध मिला जल चढ़ायें। गाय तथा बछड़ो को हल्दी से टीका लगायें। परात का जल, चांदी का सिक्का व दूब हाथ में लेकर चढ़ायें। इस पटरे को धूप में रख दें आैर जब उसकी मिट्टी को सुख तो उसे किसी नदी या तालाब में विसर्जित कर दें आैर पटरे का सामान मालिन आदि को देदें। 

 

कर्इ कथायें हैं प्रचलित 

इस व्रत में सुनार्इ आैर पढ़ी जाने वाली अनेक कथायें प्रचलित हैं, पर प्रत्येक कथा जन कल्याण के लिए बलि देने से जुड़ी है। जिसमें किसी बालक आैर बछड़े की बलि दी जाती है। इसके बाद व्रत करने वाली महिला आैर उसके परिवारीजनों की पूजा सम्पन्न होने के बाद जिनकी बलि दी गर्इ होती है वे जीवित हो कर वापस आ जाते हैं। 


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