क्यों मनाते हैं हम होली
वसंत ऋतु में सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण में आ जाता है और फल-फूलों की नई सृष्टि के साथ ऋतु 'अमृतप्राण' हो उठती है। इसलिए होली को 'मन्वंतरांभ' भी कहा गया है। यह 'नवान्नवेष्टि' यज्ञ भी है। फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा के दिन प्राचीन आर्यजन नए गेहूं व जौ की बालियों से अग्निहोत्र का प्रारंभ करते थे, जिसे कर्मकांड परंपरा में 'यवग्रहण' य
देहरादून। वसंत ऋतु में सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण में आ जाता है और फल-फूलों की नई सृष्टि के साथ ऋतु 'अमृतप्राण' हो उठती है। इसलिए होली को 'मन्वंतरांभ' भी कहा गया है। यह 'नवान्नवेष्टि' यज्ञ भी है। फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा के दिन प्राचीन आर्यजन नए गेहूं व जौ की बालियों से अग्निहोत्र का प्रारंभ करते थे, जिसे कर्मकांड परंपरा में 'यवग्रहण' यज्ञ का नाम दिया गया।
होली वसंत का यौवनकाल है और ग्रीष्म ऋतु के आगमन का सूचक भी। ऐसे में कौन भला इस उल्लास में डूबना नहीं चाहेगा। फिर भारतीय परंपरा में तो त्योहार चेतना के प्रतीक माने गए हैं। डॉ. संतोष खंडूड़ी के अनुसार त्योहार जीवन में आशा, आकांक्षा, उत्साह व उमंग का ही संचार नहीं करते, बल्कि मनोरंजन, उल्लास व आनंद देकर उसे सरस भी बनाते हैं। होली से अनेक कथाएं जुड़ी हैं। एक है प्रह्लाद और होलिका की कथा।
कवयित्री महादेवी वर्मा के अनुसार, 'प्रह्लाद का अर्थ 'परम आह्लाद' या 'परम आनंद' है। किसान के लिए नए अन्न से अधिक आनंददायी और क्या हो सकता है। अपनी फसल पाकर और मौसम की प्रतिकूलताओं से मुक्त होकर आत्मविभोर किसान नाचता है, गाता है और अग्निदेव को नवान्न की आहुति देता है। दूसरी कथा है ढूंडा नामक राक्षसी की, जो बच्चों को बहुत पीड़ा पहुंचाती थी। एक बार वह पकड़ी गई और लोगों ने क्त्रोध में आकर उसे जिंदा जला दिया। इसी घटना की स्मृति में होली जलाई जाती है।
बहरहाल कारण कुछ भी हो, लेकिन होली का उत्सव आते ही संपूर्ण देवभूमि राधा-कृष्ण के प्रणय गीतों से रोमांचित हो उठती है। अब भी रंगों की टोली प्रेयसी के द्वारे आ धमकती है तो वही गीत मुखरित हो उठता है, जो कृष्ण ने राधा के द्वार खड़े होकर उनसे कहा था, 'रसिया आयो तेरे द्वार खबर दीजौ'।
दशकुमारचरित' में होली का उल्लेख 'मदनोत्सव' के रूप में हुआ है। वसंत काम का सहचर है, सो वसंत ऋतु में मदनोत्सव मनाने की परंपरा चल पड़ी। यह ऐसा समय है जब लंबे शीत पतझड़ के पश्चात प्रकृति नई नवेली दुल्हन की भांति नवपल्लवों, नाना रंग के पुष्पों, लताओं से सज-धजकर तैयार होती है। इस माहौल में पत्ता-पत्ता हरा-भरा झूमता है, कली-कली मुस्कुराकर अभिवादन करती है। ऐसे मे मनुष्य ही उदास क्यों रहे।
होली पर विशेष-
शाम 6.56 से 7.53 बजे के मध्य होलिका दहन। प्रदोषव्यापिनी पूर्णिमा में होलिका दहन किए जाने का विधान है, लेकिन इसका मुहूर्त भद्रा रहित होना चाहिए। आचार्य डॉ. सुशांतराज के अनुसार इस बार 16 मार्च सुबह 10.02 बजे तक भद्रा रहेगी। इसके बाद 12.27 बजे तक होलिका पूजन का पूर्वाह्न् मुहूर्त है, जबकि अपराह्न् मुहूर्त दोपहर 1.56 बजे से 3.25 बजे तक रहेगा। होलिका दहन का समय शाम 6.56 से 7.53 बजे के मध्य है।