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यहां के मंदिरों का शिल्प जीवंत है

छत्तीसगढ़ स्थापत्य कला के अनेक उदाहरण अपने आंचल में समेटे हुए हैं। यहां के प्राचीन मंदिरों का सौंदर्य किसी भी दृष्टि से खजुराहो और कोणार्क से कम नहीं है। यहां के मंदिरों का शिल्प जीवंत है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लगभग 116 किलोमीटर उत्तर दिशा की ओर सकरी नामक

By Preeti jhaEdited By: Published: Thu, 17 Dec 2015 12:20 PM (IST)Updated: Thu, 17 Dec 2015 12:26 PM (IST)

छत्तीसगढ़ स्थापत्य कला के अनेक उदाहरण अपने आंचल में समेटे हुए हैं। यहां के प्राचीन मंदिरों का सौंदर्य किसी भी दृष्टि से खजुराहो और कोणार्क से कम नहीं है। यहां के मंदिरों का शिल्प जीवंत है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लगभग 116 किलोमीटर उत्तर दिशा की ओर सकरी नामक नदी के सुरम्य तट पर बसा कवर्धा नामक स्थल नैसर्गिक सुंदरता और प्राचीन सभ्यता को अपने भीतर समेटे हुए है। इस स्थान को कबीरधाम जिले का मुख्यालय होने का गौरव प्राप्त है। प्राचीन इतिहास की गौरवशाली परंपरा को प्रदर्शित करता हुआ कवर्धा रियासत का राजमहल आज भी अपनी भव्यता को संजोये हुए खड़ा है।

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धार्मिक और पुरातत्वीय महत्व का पर्यटन स्थल

कवर्धा से 18 किलोमीटर की दूरी पर सतपुड़ा पर्वत श्रेणियों के पूर्व की ओर स्थित मैकल पर्वत श्रृंखलाओं से घिरे सुरम्य वनों के मध्य स्थित भोरमदेव मंदिर समूह धार्मिक और पुरातत्वीय महत्व के पर्यटन स्थल के रूप में जाना जाता है। भोरमदेव का यह क्षेत्र फणी नागवंशी शासकों की राजधानी रही जिन्होंने यहां 9वीं शताब्दी ईस्वी से 14वीं सदी तक शासन किया। भोरमदेव मंदिर का निर्माण 11वीं शताब्दी में फणी नागवंशियों के छठे शासक गोपाल देव के शासन काल में लक्ष्मण देव नामक राजा ने करवाया था।

भगवान शिव के रूप भोरमदेव

भोरमदेव मंदिर का निर्माण एक सुंदर और विशाल सरोवर के किनारे किया गया है, जिसके चारों ओर फैली पर्वत श्रृंखलाएं और हरी-भरी घाटियां पर्यटकों का मन मोह लेती हैं। भोरमदेव मंदिर मूलत: एक शिव मंदिर है। ऐसा कहा जाता है कि शिव के ही एक अन्य रूप भोरमदेव गोंड समुदाय के उपास्य देव थे जिसके नाम से यह स्थल प्रसिद्ध हुआ। नागवंशी शासकों के समय यहां सभी धर्मो को समान महत्व प्राप्त था जिसका जीता जागता उदाहरण इस स्थल के समीप से प्राप्त शैव, वैष्णव, बौद्ध और जैन प्रतिमाएं हैं।

चंदेल शैली का स्थापत्य

भोरमदेव मंदिर की स्थापत्य शैली चंदेल शैली की है और निर्माण योजना की विषय वस्तु खजुराहो और सूर्य मंदिर के समान है जिसके कारण इसे ‘छत्तीसगढ़ का खजुराहो’ के नाम से भी जानते हैं। मंदिर की बाहरी दीवारों पर तीन समानांतर क्रम में विभिन्न प्रतिमाओं को उकेरा गया है जिनमें से प्रमुख रूप से शिव की विविध लीलाओं का प्रदर्शन है। विष्णु के अवतारों व देवी देवताओं की विभिन्न प्रतिमाओं के साथ गोवर्धन पर्वत उठाए श्रीकृष्ण का अंकन है। जैन तीर्थकरों की भी अंकन है। तृतीय स्तर पर नायिकाओं, नर्तकों, वादकों, योद्धाओं, मिथुनरत युगलों और काम कलाओं को प्रदर्शित करते नायक-नायिकाओं का भी अंकन बड़े कलात्मक ढंग से किया गया है, जिनके माध्यम से समाज में स्थापित गृहस्थ जीवन को अभिव्यक्त किया गया है। नृत्य करते हुए स्त्री पुरुषों को देखकर यह आभास होता है कि 11वीं-12वीं शताब्दी में भी इस क्षेत्र में नृत्यकला में लोग रुचि रखते थे। इनके अतिरिक्त पशुओं के भी कुछ अंकन देखने को मिलते हैं जिनमें प्रमुख रूप से गज और शार्दुल (सिंह) की प्रतिमाएं हैं। मंदिर के परिसर में विभिन्न देवी देवताओं की प्रतिमाएं, सती स्तंभ और शिलालेख संग्रहित किए गए हैं जो इस क्षेत्र की खुदाई से प्राप्त हुए थे। इसी के साथ मंदिरों के बाई ओर एक ईटों से निर्मित प्राचीन शिव मंदिर भी स्थित है जो कि भग्नावस्था में हैं। उक्त मंदिर को देखकर यह कहा जा सकता है कि उस काल में भी ईटों से निर्मित मंदिरों की परंपरा थी।

मड़वा महल या दूल्हादेव मंदिर

भोरमदेव मंदिर से एक किलोमीटर की दूरी पर चौरा ग्राम के निकट एक अन्य शिव मंदिर स्थित है जिसे मड़वा महल या दूल्हादेव मंदिर के नाम से जाना जाता है। उक्त मंदिर का निर्माण 1349 ईसवी में फणीनागवंशी शासक रामचंद्र देव ने करवाया था। उक्त मंदिर का निर्माण उन्होंने अपने विवाह के उपलक्ष्य में करवाया था। हैहयवंशी राजकुमारी अंबिका देवी उनका विवाह संपन्न हुआ था। मड़वा का अर्थ मंडप से होता है जो कि विवाह के उपलक्ष्य में बनाया जाता है। उस मंदिर को मड़वा या दुल्हादेव मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। मंदिर की बाहरी दीवारों पर 54 मिथुन मूर्तियों का अंकन अत्यंत कलात्मकता से किया गया है जो कि आंतरिक प्रेम और सुंदरता को प्रदर्शित करती हंै। इसके माध्यम से समाज में स्थापित गृहस्थ जीवन की अंतरंगता को प्रदर्शित करने का प्रयत्न किया गया है।

छेरकी महल

भोरमदेव मंदिर के दक्षिण पश्चिम दिशा में एक किलोमीटर की दूरी पर एक अन्य शिव मंदिर स्थित है जिसे छेरकी महल के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर का निर्माण भी फणीनागवंशी शासनकाल में 14वीं शताब्दी में हुआ। ऐसा कहा जाता है कि उक्त मंदिर बकरी चराने वाले चरवाहों को समर्पित कर बनवाया गया था। स्थानीय बोली में बकरी को छेरी कहा जाता है। मंदिर का निर्माण ईटों के द्वारा हुआ है। मंदिर के द्वार को छोड़कर अन्य सभी दीवारें अलंकरण विहीन हैं। इस मंदिर के समीप बकरियों के शरीर से आने वाली गंध निरंतर आती रहती है। पुरातत्व विभाग द्वारा इस मंदिर को भी संरक्षित स्मारकों के रूप में घोषित किया गया है।

भोरमदेव छत्तीसगढ़ का महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल है। जनजातीय संस्कृति, स्थापत्य कला और प्राकृतिक सुंदरता से युक्त भोरमदेव देशी-विदेशी पर्यटकों के लिए आकर्षण केंद्र है। प्रत्येक वर्ष यहां मार्च के महीने में राज्य सरकार द्वारा भोरमदेव उत्सव का आयोजन अत्यन्त भव्य रूप से किया जाता है जिसमें कला व संस्कृति के अद्भुत दर्शन होते हैं।

कैसे पहुंचे

सड़क मार्ग से भोरमदेव रायपुर से 134 किमी. और बिलासपुर से 150 किमी, भिलाई से 150 किमी और जबलपुर से 150 किमी दूर है। यहां निजी वाहन, बस या टैक्सी द्वारा जाया जा सकता है।

निकटतम रेलवे स्टेशन: रायपुर 134 किमी, बिलासपुर 150 किमी और जबलपुर 150 किमी दूर।

निकटतम हवाईअड्डा:रायपुर 134 किमी जो दिल्ली, मुंबई, नागपुर, भुवनेश्र्वर, कोलकाता, रांची, विशाखापट्नम व चेन्नई से सीधी रेलसेवाओं से जुड़ा है।

कहां ठहरें

कवर्धा में विश्रामगृह और निजी होटल हैं। भोरमदेव में भी पर्यटन मंडल का विश्रामगृह और निजी रिसॉर्ट हैं।


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