वीरानगी बचपन की
बहुत दर्द भरी होती है उस बेटी की कहानी, जिसकी मां न हो, लेकिन उससे भी ज्यादा दर्द वह बेटी झेलती है, जिसकी मां होकर भी उसके पास न हो। मां की छांह से अलग पली-बढ़ी बच्ची जीवन के किसी मोड़ पर अचानक अपनी मां से टकरा जाए तो उसकी मन:स्थिति क्या होती है, इसी को स्वर देती है यह कहानी।
तब मैं इस दफ्तर में नई-नई आई थी। राजबीर मेरे साथ वाली कुर्सी पर बैठता था। मैं सारा काम उसी से समझती थी, आरंभ में डरती-झिझकती हुई, फिर निडर होकर। धीरे-धीरे वह मुझे अच्छा लगने लगा, कुछ अपना-अपना सा।
एक दिन बोला, मीता, एक बात कहूं, बुरा तो नहीं मानोगी?
कहिए, आपकी बात का बुरा नहीं मानूंगी।
तुम्हारी आंखें मुझे बहुत अच्छी लगती हैं।
क्यों? मैंने पूछा
कभी तो इन आंखों से बडी नीरवता झलकती है और कभी इतनी गहराई होती है कि मैं उनकी थाह नहीं पा सकता।
उस दिन मैं राजबीर के सामने खुल कर हंसी थी। इतनी हंसी कि मेरी आंखें भर आई। मैंने उन ढलकते आंसुओं को पलकों के अंदर छिपाने का लाख यत्न किया, लेकिन पानी उल्टी दिशा में कैसे बहता। अपने स्वभाव के अनुसार वह मेरे गालों पर ढुलकने लगा। राजबीर मुझे हक्का-बक्का होकर देखता रहा और फिर बोला, सॉरी मीता, लगता है मैंने तेरा कोई घाव कुरेद दिया है।
उस दिन से राजबीर से मेरी दोस्ती बढती गई और यह पता नहीं कब प्यार में बदल गई..। पहली बार जब राजबीर ने मुझे बांहों में भरना चाहा तो मैं उसके सीने में सिर छुपा कर देर तक रोती रही थी। वह बार-बार कारण पूछता रहा, लेकिन मैं क्या कहती। मैंने मन के भीतर उफनते तूफान को आंसुओं में बहने दिया। राजबीर तो मां की पलकों के नीचे ममता भरी गोद में और मां के चुंबनों के नीचे पला था। वह क्या जाने मेरे मन की व्यथा को..।
बचपन में दादी सुबह स्कूल के लिए मुझे तैयार करतीं, मेरे बडे बालों की उलझी लटें सुलझाती अकसर बुड-बुड करतीं, कम्बख्त, अपनी मुसीबत को मेरे गले छोड कर किसी और के घर जा बसी।
चाची जब अपने बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करतीं तो उन पर वारी-वारी जातीं। जब वह जबरदस्ती अपने बच्चों को दूध से भरे गिलास पकडातीं तो मैं हसरत भरी आंखों से बच्चों को देखती रहती। स्कूल से वापस आती तो न कोई मेरा मुंह धोता, न कपडे बदलता, न स्कूल से मिला काम ही करवाता।
सांझ पडे घर के बाहर बनी दुकान पर बच्चे चाचा जी से जा लिपटते। चाचा जी गल्ले में से कुछ रेजगारी उनकी हथेली पर रख देते। बच्चे नाचते-कूदते सडक पार कर दुकान से अपनी पसंद की चीजें खरीद लाते। मैं सूनी-सूनी आंखों से देखती रहती।
दिल चाहता कि मैं भी खुशी से भाग कर अपने पापा से लिपट जाऊं, लेकिन वह अपने आप में मस्त, आंखें मीचे, हुक्का गुडगुडाते रहते। चाचा कभी-कभी शायद तरस खाकर मेरी हथेली पर पांच-दस पैसे रख देते।
हर तीज-त्योहार पर मेरी चारों बुआ अपने बच्चों को लेकर आ जातीं। घर में खूब हुडदंग होता। बच्चे धमाचौकडी मचाते। नए-नए कपडे पहनते, मिठाइयां खाते, लेकिन मुझे वे लोग अपने साथ न मिलाते या शायद मैं स्वयं ही अपने आप में सिकुडी रहती।
फिर होश संभाला तो दादी बताती कि मेरे बापू कोई काम नहीं करते थे। मां इस बात को लेकर बापू से लडती थी। चार बेटियों के बाद मेरे बापू पैदा हुए थे। घर में बडे लाडले, दुकान पर दादा जी ही बैठते। वही सारा काम संभालते, उन्होंने बापू को कभी काम करने को नहीं कहा। दादा जी अचानक ही गुजर गए तो दुकान चाचा जी ने संभाल ली। मां बापू को काम करने को कहती तो घर में बडा झगडा होता। एक दिन लड-झगड कर मां मायके चली गई। उसके भाइयों ने उसे कहीं दूसरी जगह ब्याह दिया।
मेरी दादी बताती, तेरी मां को रोटी-कपडा सब कुछ तो मिल रहा था, पता नहीं उसे और क्या चाहिए था। फूल जैसी बेटी को छोड कर दूसरा खसम कर बैठी। जबसे तुम्हारी मां गई है तुम्हारे बापू ने तो मौन ही धारण कर लिया। उसका दिल टूट गया है।
मैं मां के बारे में सोचती। मेरी मां कैसी औरत होंगी। कठोर हृदय, स्वार्थी, मुझे रोता-बिलखता छोडकर यूं चली गई। बापू काम नहीं करता था, बस यही तो दुर्गुण था उसमें। इससे तो अच्छा था कि मां मर जाती तो मुझे दु:ख कम होता। मुझे दूसरों की दया पर छोड कर किसी और का घर बसा लिया। मेरे मन में मां के लिए कडवाहट ही कडवाहट भरी थी।
स्कूल में मैं हमेशा पीछे की सीट पर डरी-सहमी बैठती। दसवीं में पढने के दौरान मेरी एक अध्यापिका ने मुझे हिम्मत बंधाई। उसने मुझे समझाया, दूसरों की दया-रहम पर कभी न जीओ। हिम्मत करो, अच्छे अंक लेकर पास होओ। उस अध्यापिका से जो प्यार व साहस मिला, उसे मैं जीवन भर भुला नहीं सकती।
हायर सेकंडरी के बाद मैंने टाइपिंग और शॉर्टहैंड सीखा। नौकरी मिल गई तो प्राइवेट ग्रेजुएशन भी कर लिया।
अब मैं घर में सिर ऊंचा करके चलती थी। घर में मेरा सम्मान होने लगा था। नौकरी के दौरान राजबीर से मुलाकात हुई। राजबीर से मीठी-मीठी मुलाकातें, दिल-लुभावनी बातें, उसकी पागल कर देने वाली नजरें, इन सबने मुझे बदल दिया था। मेरे अंदर स्वाभिमान तथा आत्मबल जैसी भावनाएं जाग उठी थीं।
राजबीर ने शादी की बात चलाई तो मैंने कहा, एक ही शर्त पर विवाह होगा कि दहेज नहीं मांगोगे। राजबीर तो मान गया लेकिन उसके घर वालों को यह बात बडी कठिन लगी।
विवाह के बाद मेरा और राजबीर का आर्थिक संघर्ष आरंभ हो गया। यूं ही लंबा अरसा बीत गया। एक दिन राजबीर दफ्तर से लौटा तो उसके चेहरे पर अजीब-सी चमक थी, आज तुम्हारे मामा आए थे दफ्तर में।
मामा? कौन से मामा? मैं कुछ समझी नहीं। तुम्हारे दो सगे मामा। कहते थे कि तुम्हारी मां तुमसे मिलना चाहती है। एक बार मीता को मां से मिला दो।
आपने क्या कहा?
मैंने कहा, ठीक है मिला दूंगा।
मुझसे पूछे बिना आपने कैसे कह दिया? मैं घायल शेरनी की तरह गरज उठी।
राजबीर दंग होकर देखता रहा। उसने मेरा यह रूप नहीं देखा था।
तब वह मां कहां थी जब मुझ छोटी सी बच्ची को रोता-बिलखता छोड कर दूसरे के साथ चली गई? अब मुझसे मिलने की क्या जरूरत है उसे? तुम्हारे मामा बता रहे थे कि मां की दूसरे पति से कोई औलाद नहीं है और पैसा बहुत ज्यादा है। जमीन-जायदाद भी है। वह हमारे एक बच्चे को गोद लेकर हमसे संबंध कायम रखना चाहती है। मुझे राजबीर की आंखों की चमक का रहस्य समझ आ गया था। उसकी आंखों में मुझे मां का पैसा दिख रहा था।
मुझे नहीं चाहिए ऐसा पैसा। जिस मां ने अपनी बेटी को प्यार नहीं दिया, वह बेटी के बच्चे को प्यार कैसे दे सकती है?
गुस्से में मेरा चेहरा तमतमाने लगा था। मीता तुम समझती क्यों नहीं। मां की ममता तो नहीं मरी, राजबीर मुझे समझाने की कोशिशें करता रहा।
मैं उस दिन बापू के पास गई और उन्हें पूरी बात बताई। उन्होंने आंखें खोल कर मेरी ओर देखा। यूं लगा जैसे आंखों की कोरों में पानी भर आया था। उन्होंने एक बार विवाह के बाद मुझे विदा करते समय मेरे सिर पर प्यार से हाथ फेरा था और एक आज का दिन था जब वह मेरे सिर पर हाथ रख रहे थे। रुंधे गले से बोले, मीता तुम्हारी मां का कोई दोष नहीं था। तुम उससे अवश्य मिलो। पहली बार मुझे अपने पिता बेचारे और असहाय लगे। मन की आग को हुक्के की आग से सुलगा कर रखते। बापू ने मेरे साथ कभी दो बोल प्यार के नहीं बोले थे। दिल में हूक-सी उठी कि मैं बापू को गले लगा कर प्यार करूं, वह मेरे साथ बहुत-सी बातें करे, अपनी व्यथा सुनाए। लेकिन वह तो हुक्के की गुडगुडाहट में अपने मन के कोलाहल को छिपा रहे थे।
राजबीर को जब मैंने मां से मिलने की स्वीकृति दी तो उसे जैसे मुझ पर विश्वास नहीं हुआ। मैं मां के बारे में कल्पना करने लगी, कैसी होगी वह? कैसे मिलेगी मुझसे और क्या बातें करेगी? मन ही मन मैं मां से लडती। रो-रोकर उनसे शिकायतें करती और फिर बच्ची बन कर उनकी गोद में लेट जाती। गिले-शिकवे रो-रो कर सुनाती। कभी छोटी बच्ची बन कर उनकी गोद में सिमट जाती।
जिस दिन राजबीर ने बताया कि मां से मिलने मामा के घर जाना है तो घर में अजीब सा तनाव हो गया। मन किसी काम में नहीं लग रहा था। सिर चकरा रहा था। हाथों में कंपकंपी सी थी। दिल की धडकन बढ गई है। रात में नींद बार-बार उचटती रही।
मामा के घर पहुंचे तो बाहर वाले कमरे में कई लोग बैठे थे। फिर मुझे मामा-मामी से मिलाया गया। उस आदमी से भी, जिससे मां ने शादी कर ली थी। वह काफी ऊंचे कद का और तगडा था। उसने पिता के हक से मेरे सिर पर हाथ फेरा और बोला, बेटी, अब तो तुम ही हमारे लिए सब कुछ हो।
मामा मुझे अंदर के कमरे में ले गए। वहां मां एक कोने में दुबकी सिकुडी सी बैठी थी। मैं कुछ देर उन्हें अपलक देखती रही। दादी ठीक ही कहती थी-मेरी सूरत मां से मिलती थी। मुझे देख कर मां ने मुझे बांहों में भर लिया। वह देर तक सुबक-सुबक कर रोती रही, फिर बोली, मेरी बच्ची, मेरी मीता.., वह रोती रही और न जाने क्या-क्या बुदबुदाती रही।
पता नहीं कितना समय बीत गया। जब उसके आंसू रुके तो मैं इतना ही पूछ सकी, आपने मुझे छोड क्यों दिया था?
वह बोली, तुम्हारी दादी और बुआ मुझे हमेशा तंग करती थीं, ताने देती थीं, क्योंकि तुम्हारे पिता कोई काम नहीं करते थे। मैं अपने बच्ची की खातिर सबके हाथ जोडती। तुम्हारे चाचा-चाची की मोहताज हो गई थी। बदले में सब मुझे खरी-खोटी सुनाते। तुम्हारी दादी भी अपने बेटे को कुछ न कह पाती, लेकिन उनका क्रोध मुझ पर ही उतरता..मैं क्या करती। मायके लौट गई। फिर मेरे परिवार वालों ने दूसरी शादी कर दी।
मैं चुपचाप सुनती रही। फिर न जाने मुझे क्या हुआ। मैं उठी, बच्चों को साथ लिया और बाहर आ गई। तब से मन अजीब स्थिति से गुजर रहा है। जितना जकडन से निकलने का यत्न करती हूं, उतना ही गहरे दु:ख में धंसती जाती हूं। मन स्थिर नहीं हो रहा। कभी मां की ओर झुकता है, उसकी बातें सही लगती हैं तो कभी मुझे बचपन की वीरानगी और उदासी याद आने लगती है। बिन मां की बच्ची की पीडा हावी होने लगती है। निर्णय लेना मुश्किल हो गया है मेरे लिए..।
राजिन्दर कौर