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समय बदल गया है

कन्या भ्रूण हत्या सभ्य समाज के लिए सचमुच एक अभिशाप है। एक ओर हम बेटी को देवी मान कर उसकी पूजा करते हैं, दूसरी ओर कई स्थानों पर उसके जन्म पर शोक मनाया जाता है।

By Edited By: Published: Mon, 02 Sep 2013 11:45 AM (IST)Updated: Mon, 02 Sep 2013 11:45 AM (IST)
समय बदल गया है

कन्या भ्रूण हत्या सभ्य समाज के लिए सचमुच एक अभिशाप है। एक ओर हम बेटी को देवी मान कर उसकी पूजा करते हैं, दूसरी ओर कई स्थानों पर उसके जन्म पर शोक मनाया जाता है। लेकिन आज समय बदल गया है। आज की मां इतनी कमजोर  नहीं कि समाज के आगे घुटने टेक दे। अब वह अपने फैसले खुद  ले सकती है और अपनी बेटी को जन्म देकर उसे एक मजूबत  भविष्य दे सकती है।

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धाता की मेहर है मुझ पर। समझदार पति गिरीश और हमारी गुडिया सी बेटी सौम्या,  जिसकी चटर-पटर से घर में रौनक है। पिछले सात वर्ष से हम पति-पत्नी एक ही बैंक में हैं। यहीं मिले और फिर परिवार वालों की रजामंदी  से शादी हो गई। प्यारी सी बेटी हुई। अब हमारे जीवन में एक और खुशी  जुडने वाली है। सौम्या ने जबसे सुना है, उत्साहित है। कल गिरीश ने सुझाव दिया कि क्यों न हम आने वाले बच्चे का लिंग परीक्षण करवा लें और मैंने बिना सोचे-समझे हामी भी भर दी। अगले तीन-चार महीने बैंक में व्यस्तता बढने वाली है, मैं उससे पहले शिशु की सारी खरीदारी  करना चाहती हूं। अपनी ही खुशी  में डूबी मैं डॉ. रत्ना कोठारी के क्लिनिक पहुंच गई। डॉ. रत्ना  सौम्या  के समय से मेरी डॉक्टर हैं। गिरीश और उसके पति स्कूल के दिनों के साथी रहे हैं। डॉक्टर कुछ देर बाद आई तो क्षमा मांगते हुए बोलीं कि उनकी मां की तबीयत ठीक नहीं है, इस वजह से देरी हो गई। बोलीं, हम दो बहनें हैं और पिता के जाने के बाद से मां बारी-बारी हम दोनों के पास रहती हैं। अब उम्र ज्यादा  है तो मैं उन्हें अपने पास ज्यादा  रखती हूं।

..मुझे मालूम है कि गर्भस्थ शिशु की लिंग जांच कराना कानूनन अपराध है, लेकिन गिरीश ने दोस्ती का लाभ उठाते हुए पहले ही फोन पर बात कर ली थी। डॉक्टर ने बताया कि बच्चा स्वस्थ है, सही विकास हो रहा है, और हां, आपके घर एक गुडिया आने वाली है.., उन्होंने यह बात आखिर  में कही।

शाम को मैंने गिरीश को यह बात बताई तो उनके चेहेर के भाव बदल गए। रात में सौम्या  के सो जाने के बाद गिरीश मेरे पास आकर बोले, इस बार तुम अबॉर्शन  करवा लो..।

मैंने शायद कुछ गलत  सुना, मुंह से निकला, क्या? तुमने क्या कहा?

गिरीश ने अपनी बात दोहरा दी तो मैंने पूछा, लेकिन क्यों?

इसलिए कि एक बेटी पहले से है। हमें अब बेटा चाहिए, क्योंकि बच्चे दो ही होने हैं।

मुझे अचंभित  देख गिरीश बोले, शुचि, अब चार-पांच बच्चे तो होते नहीं। हमें दो बच्चे चाहिए और दोनों बेटियां हो गई तो बुढापे में देखभाल कौन करेगा?

क्या गारंटी है कि बेटा देखभाल करेगा? मैंने भी प्रश्न दागा।

देखो शुचि, बेटियों को पढाओ-लिखाओ, शादी पर दहेज दो। हम रईस तो हैं नहीं। दोनों कमाते हैं, फिर भी कितना बचा पाते हैं? दहेज की डिमांड देखो, कितनी बढ गई है। दहेज उत्पीडन, दहेज हत्या जैसी खबरें  देखकर तो मन तडप उठता है..।

गिरीश मुझे समझाने का प्रयास कर रहे थे। मैं सोच भी नहीं सकती थी कि वह ऐसा प्रस्ताव रखेंगे! उन्होंने मुझे कभी अपने से कम नहीं समझा। सौम्या को भी बहुत प्यार करते हैं। फिर इस तरह कैसे सोच सकते हैं!

अगली बार भी बेटी हुई तो? मैंने पूछा। गिरीश के चेहरे पर कठोर भाव घिर आया जो मेरे लिए नया था। अगली बार क्या होगा, यह अभी से क्यों सोचें। मैं रत्ना  भाभी से बात करता हूं, शायद काम बन जाए..। आदेश न देते हुए भी अपेक्षा की जा रही थी कि उनकी बात बिना प्रतिवाद के मान ली जाए। पहले पता होता तो जांच न करवाती।

बिस्तर पर जाते ही मुझे दादी की याद आने लगी। मेरे दोनों छोटे भाइयों से भरपूर प्यार होते हुए भी मुझसे खास लगाव था उनका। गोदी में बिठा कर अपने हाथों से खाना खिलातीं। मेरी फ्रॉक तो क्या, शमीजों  तक पर बेल-बूटे काढ देतीं। मेरी गुडिया के लिए तरह-तरह के कपडे-गहने  बनातीं। मैं दसवीं में पढती थी, जब समाज विज्ञान की पुस्तक में पढा था कि प्राचीन समय में भारत के कुछ इलाकों में कन्या का जन्म होते ही उसे मार दिया जाता था। उसके मूल में थी एक परंपरा जिसके अनुसार विवाह के समय कन्या के पिता को वर के पिता के चरणों में अपनी पगडी रख कर कन्या को स्वीकार करने की विनती करनी होती थी। इससे बचने के लिए मूल कारण को ही खत्म कर दिया जाता था। कन्या का जन्म होते ही उसे मार दिया जाता। राजस्थान, हरियाणा में ऐसे कई गांव हैं जो दावा करते हैं कि वहां वर्षो से बारात नहीं आई। आश्चर्य यह है कि यह प्रथा उच्च वर्णो व समृद्ध वर्गो में अधिक थी। उनकी समस्या दहेज की नहीं, सम्मान की थी। उच्च वर्ण का व्यक्ति दूसरे के सामने कैसे झुके? उन्हें स्त्री मां और पत्नी के रूप में तो स्वीकार्य थी, लेकिन बेटी के रूप में नहीं। मुझे समझ नहीं आता था कि भला कोई मां अपनी बच्ची को कैसे मार सकती है? बेटा हो या बेटी, प्रसव पीडा तो एक सी होती है! मैंने सोचा कि हम भी तो राजस्थान के हैं, जरूर  दादी मां को मालूम होगा। मैंने उन्हीं से पूछने का निश्चय किया। दादी ने पहले तो टालने की कोशिश की। फिर बोलीं, पहले होता होगा वहां ऐसा, अब नहीं होता। तुम पढाई करो, इधर-उधर ध्यान न दो। मुझे संदेह हुआ कि वह मुझसे कुछ छिपा रही हैं। मैंने भी जिद ठान ली तो आखिर दादी को मानना पडा। मेरे सामने दिल दहलाने वाला तथ्य था, राजस्थान के एक छोटे से माधोपुर में ब्याह कर आई थी मैं.., पूरे गांव में धाक थी मेरी ससुराल की। हवेली, नौकर-चाकर सब कुछ था। सारी स्त्रियां हवेली के पिछले हिस्से में रहती थीं। वहीं से कपडा-गहना खरीदा जाता, दवा-दारू और प्रसव होता। मेरे ससुर फक्र से कहते कि उनके यहां लडकी नहीं है, इसलिए उनका सिर नहीं झुकेगा। लडकी क्यों नहीं है? यह बात कोई नहीं पूछता था। सब जानते थे कि जो दाई जच्चगी  के लिए आती थी, उसके साथ अनुबंध था कि कन्या नहीं होनी चाहिए, हो तो उसे मार दिया जाएगा। चारपाई के पाए तले रखा और दाब दिया। तुम्हारे पिता के जन्म के बाद एक के बाद एक मेरी तीन बेटियां हुई थीं..। उन हवेलियों के पिछले कमरों में न जाने ऐसी कितनी नन्हीं जानों की चीखें हैं। दूसरी कन्या के जन्म पर इतनी उदारता की गई कि धाय ने उसे कोने में ले जाकर मारा। तीसरी बार भी कन्या हुई तो मैंने धाय से मिन्नत की कि सिर्फ रात भर उसे मेरे पास छोड दे। मुझे याद है वह रात..। बच्ची मुझे देखती तो लगता कि जीवन की भीख मांग रही हो। बहुत शौक था मुझे बेटी पालने का। देर रात मेरी आंख लग गई। सुबह नींद खुली तो धाय ने बताया कि बिटिया तो रात में ही मर गई थी। क्रोध और आंसुओं को पी लिया मैंने..। धाय को क्या कहती! बुजुर्गो की आज्ञा का उल्लंघन मेरे लिए भी असंभव था! यह प्रथा मेरे ही घर में नहीं थी, हर जगह यही हो रहा था..।

दादी का गला भर आया.., रुक कर बोलीं, समय बदल गया है गुडिया रानी। तुम अच्छे वक्त पर हुई हो। जीने का हक मिला तुम्हें। तुमसे मैंने भी मन की साध पूरी की, कहते हुए दादी ने प्यार से मेरा माथा चूम लिया था।

..करवटें बदलते हुए दादी के बारे में सोच रही हूं। हां, यह सच है कि समय बदला है। दादी के समय स्त्रियां हवेलियों में बंद रहते हुए उम्र निकाल देती थीं। मेरी मां पढी-लिखी हैं। नौकरी नहीं की, लेकिन हर सामाजिक आयोजन, ऑफिशियल पार्टीज में पिता के संग जाती हैं। बुजुर्गो  के सामने सिर ढकती हैं, मगर दुनिया-जहान की खबर रखती हैं। मां के बाद अब मैं बैंक में नौकरी करती हूं। अच्छा पद है, अच्छा वेतन। घर में हर मामले में मेरी राय की अहमियत है। पूंजी निवेश, आर्थिक योजनाएं जो पहले केवल पुरुष के अधिकार-क्षेत्र में थीं, उनमें मेरी भी भागीदारी है। हमारी बेटी सौम्या अभी से स्पेस में जाने का ख्वाब  देख रही है। उसके आदर्श कल्पना चावला व सुनीता विलियम्स हैं।

दादी इसलिए खुश थीं कि मेरे रूप में उन्हें कन्या के अस्तित्व को बचाने का मौका मिला। उन्हें यही बात बडी लगती थी। मगर अब तो कानून की अनदेखी करते हुए कन्या को गर्भ में ही मार देने की घटनाएं हो रही हैं। अब तो हम बेटी को जन्म ही नहीं लेने देते।

सोनोग्राफी  का आविष्कार गर्भस्थ शिशु के विकास को देखने के लिए हुआ था। कभी इसका ऐसा उपयोग भी होगा, यह तो कभी किसी ने न सोचा होगा।

दोषी कौन है? मेरे दादा, जिन्होंने तीन-तीन बेटियों की हत्या करवाई! गिरीश, जिन्होंने एक बेटी स्वीकार की, लेकिन दूसरी बेटी नहीं चाहते! समाज, जिसने ऐसी परंपरा बनाई, जिसमें लडकी को दोयम दर्जे पर रखा गया!

पहले पांच-सात बच्चों में एक-दो बेटे होते या भाई-भतीजे होते..। अब एकल परिवार हैं। जब समय इतना बदला है तो इस सोच को भी बदलना होगा कि बेटा ही बुढापे का सहारा है। लडकियां स्वावलंबी हैं तो क्या वे माता-पिता की देखभाल नहीं कर सकतीं? डॉ. रत्ना भी तो मां की सेवा कर रही हैं!

..सुबह तक मैंने संकल्प कर लिया। मैं बेटी को जन्म दूंगी। गिरीश को अपना नजरिया बदलना होगा। समाज को भी बदलना होगा, क्योंकि जीवित रहने के लिए उसके सामने यही शर्त है। जो समाज समय के साथ खुद को नहीं ढाल पाता, वह सडने लगता है और फिर नष्ट हो जाता है..।

उषा वधवा


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