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सरप्राइज

खुशी के पल रिश्तों को जीवंत बनाते हैं। छोटी-छोटी अप्रत्याशित घटनाएं भी माहौल को सहज बनाने में मदद करती हैं। शायद इसलिए हम एक-दूसरे को सरप्राइ•ा करते रहते हैं। लेकिन कभी-कभी ये मजाक भारी भी पड़ जाते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि मजाक की भी सीमा तय होनी चाहिए।

By Edited By: Published: Wed, 01 May 2013 12:48 AM (IST)Updated: Wed, 01 May 2013 12:48 AM (IST)

घर के सामान को व्यवस्थित करते-कराते यशोदा की कमर दोहरी हो गई थी। विवाह के उत्साह में वह पिछले दो महीने से लगातार भागदौड कर रही थी। उत्तेजना और खुशी से पैर धरती पर नहीं टिकते। आखिर उसके इकलौते बेटे विपुल का विवाह जो था। हर मां की तरह उनका भी मन हिलोरें लेता, आशंकित होता। इतना बडा आयोजन ठीक से निबटेगा या नहीं? कहीं कोई कमी न रह जाए। कोई चूक न हो जाए। सब रिश्तेदार प्रसन्न रहें। ईश्वर कृपा करे कि शादी में आंधी-पानी न आए। सबसे बडी चिंता तो यही थी कि थानेदार साहब को गुस्सा न आ जाए और कोई बवाल न हो। सिर्फ यशोदा ही नहीं, मित्रों-रिश्तेदारों से लेकर सगे भाई-बहन भी यशोदा के पति मनोहर को इसी नाम से पुकारते थे।

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मनोहर जी ने ता-उम्र थाने में कदम नहीं रखा था। सारी जिंदगी स्वास्थ्य विभाग में बडे बाबू का पद संभाल कर अभी पिछले वर्ष ही रिटायर हुए हैं, लेकिनअनुशासन, क्रोध और कठोर वाणी ने कब उन्हें मनोहर से थानेदार की उपाधि दे दी, यह बात वह खुद भी न जान सके। अब तो वह स्वयं भी अपने इस नाम को स्वीकार कर चुके थे।

यशोदा उन्हीं के भय से सब कुछ जल्दी ठीक करना चाहती थी। थानेदार साहब को अव्यवस्था भी नहीं सुहाती। बिखरे हुए घर के कारण पिछले सप्ताह से उनका रक्तचाप बढा हुआ था। यशोदा यथासंभव घर समेट कर रखने का प्रयास करती, मगर शादी-ब्याह के घर में ऐसा कहां संभव था! बेटे-बहू को हनीमून के लिए विदा करते ही यशोदा घर को ठीक करने में जुटी थी। परंतु पूरे सप्ताह दो हेल्पर्स के बावजूद वह घर पूरी तरह से व्यवस्थित नहीं करवा पाई थी। थानेदार साहब का मूड उखडा-उखडा रहा।

इन्हीं नियम-कायदों के दायरे में पला-बढा विपुल समय से पहले समझदार हो गया था। पिता के कडे अनुशासन ने उसे जीवन में सफल बनाया। वह स्वयं भी मितभाषी, अपने काम से काम रखने वाला, सुव्यवस्थित, सफाई-पसंद युवक था। पुत्र के गंभीर स्वभाव, सजगता एवं नियम-पालन से उसे भी भय लगता। पिता का रंग-रूप तो उसे एकदम नहीं मिला, लेकिन स्वभाव थानेदार जैसा ही था।

यशोदा ने खूब देख-परख कर ही वर्मा जी की तीन बेटियों में से मझली को चुना। रूप-रंग में अप्सरा, वाणी में ऐसी मिठास कि पति को वह एक ही नजर में जंच गई। विपुल ने भी हामी भर दी।

यशोदा काम निपटा कर बिस्तर पर कमर सीधी कर ही रही थी कि डोरबेल बजी। दरवाजा खोला तो बेटे-बहू को द्वार पर देख कर आश्चर्य में डूब गई।

अरे तुम लोग? तुम तो दस दिन के लिए शिमला गए थे, एक ही हफ्ते में कैसे लौट आए? खैरियत तो है?

चरण-स्पर्श के बाद हंसते हुए विशाखा गले लग गई, मां हमें आपकी इतनी याद आई कि वहां रुका नहीं गया। बस तत्काल में टिकट किया और आ गए।

विशाखा की आवाज में बच्चों जैसा उल्लास और आंखों में शरारत थी। विपुल दोनों को वहीं छोड सोफे पर पसर चुका था। विशाखा ने दुलार से सासू मां की आंखों में झांका तो उसे वहां सन्नाटा मिला। मुहूर्त देख कर घर से बाहर कदम निकालने वाले पति की प्रतिक्रिया का उसे अंदाजा था।

तब तक मनोहर की नींद उचट चुकी थी। वह भी ड्राइंगरूम में आ चुके थे। इस अप्रत्याशित आगमन का कौतूहल उनके चेहरे पर स्पष्ट था।

पुत्रवधू का स्वर उनके कानों में पडा तो बिना उसकी ओर दृष्टि उठाए वह तुरंत बेटे की ओर मुखाति ब हुए, विपुल यह सब क्या है? आधी रात को ऐसे अचानक.. बिना बताए कैसे आ गए तुम लोग?

बेटा बिना जवाब दिए बाथरूम की ओर बढ चुका था। अस्पष्ट स्वर में नवब्याहता की ओर उंगली उठा कर बुदबुदाया, पापा, इसी ने जिद की थी। अब प्रश्न सीधे नववधू की ओर उछाला गया, क्यों विशाखा! क्या वहां कोई परेशानी थी? विशाखा के चेहरे का रंग कुछ फीका सा पड गया लेकिन वह अपने स्वर की उत्तेजना को बरकरार रखते हुए बोली, पापा, हम तो बस सरप्राइज देने के लिए पहले आ गए।

सरप्राइज! पूछना तो चाहिए था न पहले? उनके चेहरे पर नाराजगी साफ दिख रही थी।

यशोदा ने विषय बदला और माहौल सामान्य होने लगा। आधी रात को नींद खुल जाने से मनोहर जी गुस्सा हो रहे थे। विपुल को ऐसी ही प्रतिक्रिया की उम्मीद थी, मगर नई-नवेली बहू विशाखा कुछ असमंजस में दिखी। उसे तो अपने सास-ससुर से लाड-प्यार और समय से पूर्व हनीमून से लौट आने पर कुछ अतिरिक्त स्वागत की आशा थी। उसी ने पति से जिद की थी कि मां घर में अकेली हैं। शादी के बाद भी तो कई काम होते हैं, अकेले करना उनके लिए मुश्किल हो रहा होगा। जल्दी चले जाएंगे तो वह खुश होंगी।

हां, लेकिन तुम अनोखी लडकी हो जो पति को छोड कर तुम्हें सास के पास जाने की जल्दी है। देखिए, अब हम साथ हैं, घूमने तो फिर कभी भी जा सकते हैं, मगर मां को भी तो हमारी जरूरत है। मैं उनका हाथ बंटाना चाहती हूं, विशाखा ने साफ-साफ बोला।

किसी तरह विशाखा ने पति को आश्वस्त कर लिया। विपुल को भी पत्नी की इस भावना से कहीं भीतर खुशी ही हुई थी। सच मानें तो खुशी तो यशोदा को भी बहुत हुई। आजकल कौन सास-ससुर के बारे में इतना सोचता है! लेकिन पति के गुस्से से वह भी डरती थीं। उन्हें तो पति के इस स्वभाव की आदत है, लेकिन थानेदार ससुर का यह स्वभाव नई बहू के लिए नितांत नया था। कुशाग्र और समझदार विशाखा ने एक महीने में ही ससुर के इस स्वभाव को समझ लिया। सास-बहू की साझी समझदारी से घर सुव्यवस्थित ढंग से चलने लगा। विशाखा ने समझ लिया कि पिता-पुत्र दोनों ही बेहद अनुशासन-प्रिय हैं और उन्हें व्यवस्था में कोई बदलाव ज्यादा पसंद नहीं है, लेकिन अपने सहज हास्य-बोध से वह माहौल को जीवंत बनाए रखती।

दिन भर खटने वाली यशोदा अब सुबह आराम से चाय पीती नजर आतीं। मनोहर जी भी यदा-कदा मुसकराते दिखते। एक दिन विपुल ने बातों-बातों में विशाखा को बताया कि पापा का बर्थडे आने वाला है। चूंकि घर में जन्मदिन मनाने का रिवाज नहीं है, इसलिए पार्टी का खयाल भी बेमानी है। विशाखा के लिए यह बात कुछ नई थी। उसने पूछा, फिर आप लोग पापा का बर्थ डे कैसे मनाते हैं?

पता नहीं, हो सकता है मां मंदिर जाती हों। लेकिन हमें कभी पता भी नहीं चला कि बर्थडे कब आया और कब चला गया, विपुल ने कहा। विशाखा के घर में बर्थडे का मतलब था हंगामेदार पार्टी, नाच-गाना, मौज-मस्ती। उसने एक दुस्साहस कर ही दिया। अपनी बहनों और माता-पिता से मिलकर गुपचुप भव्य पार्टी का आयोजन रचा। इस योजना से विपुल और यशोदा भी अनभिज्ञ रहे।

जन्मदिन की शाम समधी के आग्रह पर मनोहर जी परिवार सहित उनके घर पहुंचे तो अपने कई पुराने दोस्तों को वहां पाकर आश्चर्य से भर गए। फिर क्या था, ना-ना करते हुए भी उन्हें केक काटना पडा। सबने खूब धमाल मचाया। किसी रूठे हुए छोटे बच्चे की तरह मनोहर जी बडबडाते रहे और वर्मा परिवार अतिथियों के साथ आनंद मनाता रहा। यह सब कुछ यशोदा को बहुत अनोखा लगा। विपुल भी सहज नहीं था।

घर लौटते हुए तीनों डरे हुए थे। विपुल बार-बार पिता का मुंह देखता तो उसे किसी तूफान की आशंका नजर आती। विशाखा भी ससुर की खरी-खोटी सुनने के लिए तैयार थी। लेकिन स्वभाव के विपरीत मनोहर जी ने सिर्फ इतना ही कहते हुए अपनी बात खत्म कर दी कि यह सब दोबारा नहीं होना चाहिए क्योंकि उन्हें आडंबर पसंद नहीं है। लेकिन यह कहते हुए उनके चेहरे पर क्रोध नहीं, संकोच भरी मुस्कान थी।

विशाखा ने राहत की सांस ली। उसका स्वभाव ही ऐसा था कि उसे बिना बात भी हंसी आती रहती। बिना गुनगुनाए वह किचन में काम नहीं कर पाती। उसे दिन भर सास से गप्पें लडाने में मजा आता। आखिर कब तक घर की गंभीरता कायम रहती। सास यशोदा से लेकर विपुल तक हास्य-विनोद का हिस्सा बनने लगे और बरसों से जमी बर्फ पिघलने लगी। कभी-कभार थानेदार साहब के चेहरे पर मुस्कराहट का भाव दिख जाता। आनंद किसे नहीं भाता है! जीवन में पहली बार करवाचौथ पर यशोदा को सरप्राइज मिला। मनोहर जी बहू के साथ-साथ पत्नी के लिए भी साडी ले आए। हालांकि पीले रंग की साडी के साथ लाल रंग का ब्लाउज देखकर उन्हें पति के अनाडीपन पर गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन जिंदगी का यह पहला उपहार उनकी आंखें भी नम कर गया। न जाने कब से उनके मन में जमी इच्छा कि पति कोई गिफ्ट दें, आज पूरी हो सकी थी।

फिर जब विपुल-विशाखा की पहली संतान कान्हा का जन्म हुआ तो सरप्राइज देना एक खेल जैसा हो गया घर में। विपुल कई बार पत्नी को परेशान कर चुका था। कभी दो दिन के लिए बाहर जाने को कह कर जाता और शाम को ही लौट कर विशाखा को चकित कर देता। कभी पत्नी की चाय में नमक डालकर उसे परेशान करता। दो-तीन सालों में ही घर सचमुच घर जैसा लगने लगा। कभी इसी घर में यशोदा कैदी सी छटपटाती थी, मगर विशाखा ने घर में उल्लास और उमंग के बीज बोकर नया वातावरण रच दिया। साल भर का कान्हा घर भर का खिलौना बन गया था। अकसर सास-ससुर और पति मिलकर विशाखा के साथ मजाक करते, नन्हा कान्हा ताली बजा कर हंसता तो विशाखा निहाल हो जाती। एक दिन शाम को ही मनोहर जी ने भूत की मनगढंत कहानी सुना कर सबको डरा दिया था। विशाखा तो डर ही गई और काफी देर तक सहमी रही। संयोग से उसी समय उसकी छोटी बहिन तान्या आ गई। विशाखा को उसके साथ बाजार जाना पडा। विपुल ऑफिस के काम से चार दिन के लिए दिल्ली गया था, इसलिए सभी लोग बेफिक्र होकर गपशप में लीन थे। एकाएक विपुल आ गया। मनोहर जी ने चटपट प्लान बनाया कि विपुल अपने कमरे में जाकर चुपचाप लेट जाएगा और विशाखा बाजार से लौटेगी तो कोई उसे यह नहीं बताएगा कि विपुल लौट आया है। उसे सरप्राइज देंगे। विशाखा बाजार से लौटी और सास-ससुर के साथ खाना खाया। फिर रसोई समेटी, बच्चे को दादी के पास लिटाया और रोज की तरह अपने कमरे में जाने के लिए सीढियां चढने लगी। यशोदा ने अपने कमरे से ही पूछा, विशाखा, अकेले कमरे में डर लग रहा हो तो मेरे कमरे में सो जाओ।

डर कैसा मां, हमेशा तो अकेले सोती हूं, विशाखा भी रोज की तरह उत्तर देकर गुनगुनाती हुई ऊपर चली गई।

पांच मिनट भी नहीं बीते कि भूत-भूत चिल्लाती हुए वह नीचे की ओर भागी। जल्दी में साडी में उसका पैर उलझा और लुढकती हुई वह कई सीढियां नीचे गिर गई। अरे भाई मैं हूं, मैं विपुल, तुम तो डर गई..।

मनोहर जी भी भागे, बहू क्या हो गया? तीनों जब तक पहुंचते विशाखा बेहोश हो चुकी थी। विपुल पसीने-पसीने हो गया। मनोहर जी ग्लानि में डूब गए। मजाक-मजाक में वे लोग क्या कर बैठे। तुरंत डॉक्टर को बुलाया गया। विशाखा को होश तो आ गया, लेकिन पैर नहीं उठ रहा था। वह दर्द से कराह रही थी। शर्मिदा पति ने नजरें चुराते हुए सॉरी कहा। विशाखा दर्द में भी मुस्करा दी। दूसरे दिन पैर में प्लास्टर चढा दिया गया। डेढ महीने तक आराम हो गया। इस घटना के बाद मनोहर जी अपने पुराने तेवर में लौट आए। घर आते ही ऐलान किया, खबरदार आज से अगर किसी ने यहां सरप्राइज देने के बारे में सोचा तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा। इस बार उनके इस फतवे से सब सहमत थे।

शोभा मेहरोत्रा


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