सहारा
कन्या भ्रूण हत्या हमारे समाज की ज्वलंत समस्या है। तमाम प्रयासों के बावजूद इसे रोका नहीं जा पा रहा। गर्भस्थ शिशु का लिंग परीक्षण भले ही ़कानूनी तौर पर प्रतिबंधित हो, मगर पैसों की ख़्ातिर यह काम अभी भी चोरी-छिपे हो रहा है। अबॉर्शन पर ़कानूनी रोक के बावजूद स्त्री की जान की ़कीमत पर कई बार ऐसा किया जाता है।
जीप की आवाज रात की नीरवता को चीरती आगे बढ रही थी। बिलासपुर शहर की सीमा के बाद जंगल आरंभ हो गया था। रात के बारह बजे रहे थे। प्रदीप ने गाडी रुकवाई। अब तक ड्राइवर के बगल में बैठा प्रदीप पीछे सीट पर चला गया, जहां उसके पैरों के पास नीरा का पार्थिव शरीर रखा गया था। न जाने क्यों प्रदीप के दिल में अब तक भी एक आस थी कि शायद नीरा जिंदा हो। उसका मन मानने को तैयार ही नहीं था कि चौबीस घंटे पहले जिस हमसफर के साथ उसने हंसते-हंसते झसदा से बिलासपुर तक का सफर तय किया था, वह अब उसकी जिंदगी में नहीं है। आंखों के आंसू सूख चुके थे। उसे याद आने लगी मां की चुभती बातें तो अकसर नीरा को सुनने को मिलती थीं, इस गुनाह के लिए कि उसने बेटी जनी थी।
इस बार तो मैंने बच्ची को अपना लिया, पर कान खोल कर सुन लो, अगली बार बेटा ही होना चाहिए, वरना यहां तुम्हारी कोई जगह नहीं.., मां ने धमकी दी थी।
नीरा ने भी गुस्से में जवाब दे दिया, वैसे मां, यह मुझसे ज्यादा आपके बेटे पर निर्भर करता है कि बेटा होगा या बेटी, क्योंकि लिंग निर्धारण के लिए पुरुष के क्रोमोसोम्स ही जिम्मेदार होते हैं। मेडिकल साइंस में यही कहा गया है।
बडी आई ज्ञान-विज्ञान की बातें बताने वाली, मां बिफर पडतीं.. याद रखो, इस घर की इज्जत चाहती हो तो वंश बढाने वाला ही चाहिए। वाद-विवाद में मां को पछाडना बहुत कठिन था, चाहे वह गलत ही क्यों न हों।
ढाई साल बीतते-बीतते जब मां को पता चला कि नीरा के पैर भारी हैं तो उन्होंने टोने-टोटके का भी सहारा लिया। शहर के जाने-माने ज्योतिषी ने कुछ भभूत दिया और पूत की संभावना सौ प्रतिशत सुनिश्चित कर दी। इसके एवज में मोटी रकम भी वसूली। मगर विधि का विधान कुछ और ही था। इस बार भी लडकी हुई। अब मां के साथ-साथ संयुक्त परिवार के अन्य सदस्यों ने भी जहर उगलना शुरू कर दिया। चाचा-चाची भी चाहते थे कि प्रदीप की दूसरी शादी करा दी जाए, पर प्रदीप ने घर छोडने की धमकी दी। इस पूरे घटनाक्रम में प्रदीप का व्यवहार नीरा के लिए अपनत्व भरा और संवेदनशील रहता। बल्कि इन तमाम घटनाओं के बाद वह और भी संवेदनशील हो गया था और उसे ज्यादा चाहने लगा था। उसके प्यार की ऊष्मा से नीरा अपने सास-ससुर के शब्दों के तीक्ष्ण बाणों को बिना किसी दर्द के झेल जाती। मां अकसर कहतीं, जाने किस बुरी घडी में ऐसी बहू घर ले आई..। पढी-लिखी नीरा कई बार प्रतिरोध करती, कभी उसका गुस्सा भी फूट पडता, पर प्रदीप उसे आंखों के इशारे से चुप करा देता। मां के कडे दबाव में नीरा ने अपने तीसरे बच्चे को जन्म दिया। किस्मत कुछ यूं मेहरबान थी कि इस बार भी बेटी ही हुई। अब तो पानी सर से निकल चुका था। महीने भर के भीतर ही ससुर ने नीरा को घर से निकाल दिया और मायके भेज दिया। यह सब उस समय हुआ, जब प्रदीप ऑफिस के काम से किसी दूसरे शहर में गया था। लौट कर आया तो उसने नीरा को नहीं देखा। एक पल में ही उसे सारा माजरा समझ में आ गया। दूसरे दिन उसने भी फैसला सुना दिया कि अगर घर के लोग नहीं चाहते कि नीरा यहां रहे तो वह भी यहां नहीं रहेगा और हां, नीरा को तो किसी भी कीमत पर तलाक नहीं देगा। प्रदीप के घर छोडने की धमकी पर गुस्साए पिता ने घोषणा कर दी कि वह उसे अपनी संपत्ति से बेदखल करते हैं और सचमुच उन्होंने अपनी संपत्ति भतीजे के नाम कर दी। इससे प्रदीप का मन पूरी तरह टूट गया। वह निराश हो गया।
नए शहर में नीरा को अपनी जगह बनाने में कोई परेशानी नहीं हुई। वर्षो से दबा उसका हुनर स्वतंत्रता की उडान भरने लगा था। बच्चों के लालन-पालन में उसकी अपनी कमाई कुछ कम पडती थी, लिहाजा नीरा ने एक स्कूल में नौकरी शुरू कर दी। धीरे-धीरे तीनों लडकियां बडी हो रही थीं। ..जैसे-जैसे समय बीत रहा था, प्रदीप खुद को अकेला सा महसूस करने लगा था। पिछले कुछ दिनों से उसके दिल में अजीब सी उधेडबुन चल रही थी। वह उदासीनता महसूस कर रहा था।
सोचने लगा था कि बेटियां ससुराल चली जाएंगी तो बुढापे में वे दोनों अकेले कैसे रहेंगे। नीरा अब दोबारा गर्भवती नहीं होना चाहती थी, लेकिन प्रदीप की खुशियों के आगे उसे फिर झुकना पडा। इस बार एक नामी स्त्री विशेषज्ञ की देख-रेख में प्रेग्नेंसी शुरू हुई। कानूनी प्रतिबंध के बावजूद बारह हफ्तों के बाद ही डॉक्टर ने बता दिया कि उसके गर्भ में कन्या पल रही है। प्रदीप अब चौथी बेटी नहीं चाहता था। उसने अबॉर्शन की सलाह दी। नीरा बहुत परेशान थी, लेकिन वह अपने पति के चेहरे पर निराशा के भाव नहीं देख सकती थी। उसे भी लगता था कि भविष्य में तीनों बेटियों का करियर बनाना और उनकी शादी करना मुश्किल हो सकता है। दोनों ने मिलकर अबॉर्शन कराने का निर्णय लिया। बेटियों से कहा कि वे एक ऑफिशियल मीटिंग में जा रहे हैं, जिसमें थोडी देरी हो सकती है।
नीरा को एडमिट कराने के बाद प्रदीप बाहर बैठा। जैसे-जैसे समय आगे बढ रहा था, मन में चिंता घर बनाती जा रही थी। क्या उन्होंने सही निर्णय लिया है? अपनी स्थितियों के बारे में सोचता तो उसे अपना फैसला सही लगता। नीरा के बारे में सोचने पर अपराध-बोध से ग्रस्त हो जाता। दिल कह रहा था कि बस इस बार सब ठीक हो जाए, वह किस्मत के फैसले को मान लेगा।
उसके माथे से पसीना बहने लगा था। दो घंटे हो गए। नर्स लगातार अंदर-बाहर कर रही थीं, फिर कुछ एक्सपर्ट डॉक्टरों की टीम पहुंची। प्रदीप का माथा ठनक गया कि कुछ गडबड है। एकाएक उसे दरवाजे की कोर से खून की पतली धार सी दिखी तो वह बेकाबू हो गया। उसने सीनियर डॉक्टर को निकलते देखा और लगभग झिंझोडते हुए उनसे सारा माजरा पूछा। तब तक चीफ डॉक्टर आ चुकी थीं। उन्होंने प्रदीप के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, हमने बहुत कोशिश की, मगर अत्यधिक रक्तस्राव के कारण हम नीरा को नहीं बचा सके..। हमें कई यूनिट ब्लड चढाना पडा, मगर सब बेकार हो गया..।
प्रदीप को मानो काठ मार गया हो। आंखों से आंसू तक न निकले। उसे अपनी गलती की सजा मिल चुकी थी। अस्पताल की ओर से डेडबॉडी को घर ले जाने के लिए एंबुलेंस की व्यवस्था की गई थी। चादर से ढका नीरा का पार्थिव शरीर गाडी में लादा गया..।
साहब बाईपास से निकल जाएं क्या?
ड्राइवर ने पूछा तो वह विचारों से बाहर निकला। उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ड्राइवर ने एंबुलेंस बाईपास की ओर मोड दी थी।
सुबह सात बजते-बजते वह घर पहुंच गया। तीनों बेटियां एक साथ बाहर आई, लेकिन मां को इस तरह देख बिना सवाल किए वे फफक पडीं। बडी बेटी शीनू अब थोडी समझदार हो चुकी थी। उसे समझ आ गया था कि मां प्रेग्नेंट हैं। माता-पिता के बीच लगातार हो रही बातों से यह भी पता लग चुका था कि मीटिंग बहाना है। दरअसल वे एक और बेटी को घर में नहीं लाना चाहते।
नीना का पार्थिव शरीर पहुंचा तो धीरे-धीरे मुहल्ले वालों का जमावडा शुरू हो गया। आग की तरह बात कालोनी में फैल गई कि नीरा शर्मा नहीं रहीं। प्रदीप शीनू के कंधे पर सर रखकर फफक पडा और उसे सारी बातें बता दीं। घर से बेदखल करने के बाद पहली बार मां, चाचा, चाची भी उसके घर आए। मां के मन का अपराध-बोध उन्हें प्रदीप से आंखें नहीं मिलाने दे रहा था। उन्हें लग रहा था कि प्रदीप के निर्णय के पीछे कहीं न कहीं उनकी दकियानूसी सोच जिम्मेदार थी। अंतिम संस्कार के बाद मां ने गांव की जमीन प्रदीप की बेटियों के नाम करने की घोषणा की। लेकिन नीरा की बेटियां किसी सहारे की मोहताज न थीं। पढाई के साथ-साथ वे ट्यूशन करती थीं और अपने पिता का हाथ बंटाती थीं।
प्रदीप के मन में कभी-कभी सवाल उठता कि वंश आगे बढाना क्या केवल बेटों का काम है? बेटियों को बेटों की तरह पाला जाए तो वे भी उतनी ही जिम्मेदार हो सकती हैं। प्रदीप सोचने लगा, काश उस समय उसके दिल में यह बात आई होती, वह बेटे की चाह में पागल न हुआ होता तो आज उसका घर भी भरा-पूरा होता।
कविता विकास