स्वावलंबन
कहा जाता है कि आर्थिक आत्मनिर्भरता स्त्री मुक्ति की दिशा में सबसे बड़ा कदम है। मगर आर्थिक रूप से सक्षम स्त्रियों की स्थिति भी सुखद प्रतीत नहीं होती। स्त्रियां स्वयं भी मानसिक गुलामी से कहां मुक्त हो पाती हैं! कई तरह के पारिवारिक दबावों से जूझती एक आत्मनिर्भर स्त्री के सवाल खुद से..।
मेमसाब मुझे तीन हजार रुपये एडवांस चाहिए। तीन सौ रुपये महीना कटाएगी। मेरी सासू मां गांव से आई है, बीमार है। उसके इलाज के वास्ते चाहिए.., जानकी अपने चेहरे पर आए पसीने को आंचल से साफ करती बोली। सात साल से वह वैदेही के घर का काम कर रही थी। हमेशा उसके ऊपर कुछ न कुछ पैसा बकाया रहता। वह चार घरों में चौका-बर्तन करती थी। लेकिन उसके यहां रसोई का काम भी वही करती थी।
वैदेही ने उसके सांवले चेहरे पर एक उडती हुई नजर डाली। उसके चेहरे पर झुर्रियां उगनी शुरू हो गई थीं। सुबह पांच बजे से रात दस बजे तक लोगों के घरों में बर्तन धोती और झाडू-पोछा करती। इसके बाद भी हमेशा कर्ज में ही डूबी रहती। पैंतालीस की होगी जानकी, कोई संतान नहीं थी। पूरी जिंदगी शराबी पति के खानदान की आवश्यकताओं से जूझती रही। वैदेही ने गहरी सांस खींची, ठीक है, पैसे कल ले लेना। लेकिन अपने मरद से बोलो कि वह भी तो कुछ करे। क्या मेम साब आपको तो सब कुछ मालूम है। अगर वही ठीक होता तो फिर.., आगे के शब्द जानकी मुंह में ही दबा गई।
वैदेही ने गहरी सांस खींची। वह जानकी के अनकहे शब्दों का मर्म जानती थी। कितनी विवशता है, जब सब कुछ जानते हुए भी अनजान बनना पडता है। वह भी तो वैभव को कुछ नहीं बोल पाती। पिछली बार लिए गए कर्ज की चार किस्तें बाकी हैं कि नई आवश्यकता आ गई। उसे याद है, पिछली बार वैभव की बहन की शादी थी। उसे लगा था कि घर की इज्जत की बात है। आखिर वह उसकी भी तो ननद है। उसने चुपचाप कर्ज के लिए फॉर्म भर दिया था। पांच लाख रुपये बहुत होते हैं। जब ब्याज के साथ किस्तें कटने लगीं तो उसे अपनी आवश्यकताओं को समेटना पडा। वैभव ने उससे एक बार भी नहीं पूछा, वैदेही इतना लोन कैसे मैनेज करेगी। तो क्या वैभव ने उससे सिर्फ इसलिए विवाह किया था कि वह उसके परिवार की जरूरतों के लिए पैसा कमा कर देती रहे। वह पैंतीस की हो गई। सात वर्ष हो गए विवाह के..। आज भी उसकी कोख सूनी है। वैभव को अभी बच्चा नहीं चाहिए। कहता है, जरा सोचो वैदेही, दुनिया में कौन ऐसा विवाहित आदमी होगा, जिसे बच्चे नहीं चाहिए? पर क्या तुम चाहोगी कि जिन संघर्षो से हम गुजर े हैं, हमारा बच्चा भी उन्हीं से गुजरे?
वैभव अपने घर का बडा बेटा था। उससे छोटी तीन बहनें थीं। वह ग्रेजुएशन में ही था, जब पिता की नौकरी चली गई। वर्षो से घाटे में चल रही मिल अचानक बंद हो गई। थोडा बहुत मुआवजा भी मिला था। उससे भला परिवार की गाडी कितने दिन चलती। पूरा परिवार ही असुरक्षित हो गया था। यह असुरक्षा वैभव के भीतर भी कहीं गहरे तक बैठी हुई थी। अच्छा-खासा कमाने के बावजूद वह आर्थिक तौर पर असुरक्षित महसूस करता है।
वैभव अपने को सुरक्षित करने के चक्कर में उसका निरंतर दोहन कर रहा था। वह पब्लिक सेक्टर में था। पैकेज बहुत अच्छा था, इसके बावजूद खर्च करने में हमेशा कंजूसी करता। पैसा बचाते रहने से उसे अजीब सुकून सा महसूस होता। वैदेही उसकी सनक से लाचार थी। जब कभी विरोध करना चाहा, वह झुंझला जाता, अरे यार, ये क्या बात-बेबात हमारा-तुम्हारा करती रहती हो? हमारे बीच कुछ बंटा है क्या..? इस प्रश्न का जवाब ही तो वैदेही को देना था। लेकिन प्रत्युत्तर में वैदेही चाह कर भी कुछ न बोल पाती। एक ऐसी हताशा उसके मन में धीरे-धीरे पैने नाखून धंसाने लगी थी, जिसकी टीस उसे सोते-जागते चौबीस घंटे महसूस होती थी। परंतु अफसोस कि इसकी कोई दवा वैदेही के पास नहीं थी। वह अब जीवन से उदास होने लगी थी। जब कभी आईने के सामने खडी होती तो लगता कि समय से पहले ही बूढी होने लगी है।
उसकी मां सीता देवी चाहती थीं कि उनकी बेटी स्वावलंबी बने। उन्हें कभी अपनी इच्छा पूरी करने का मौका नहीं मिला। उनके पति कमाते थे और कमाने का बोध उनके भीतर इतना गहरा था कि उन्होंने पत्नी को खर्च का अधिकार कभी नहीं दिया। जब कभी ऐसी इच्छा जहिर की, पति ने डपट दिया, तुम क्या जानो, पैसे कमाने के लिए कितनी मशक्कत करनी पडती है। तुम्हें तो सब आसानी से मिल रहा है न, इसलिए नए-नए खुराफात सूझते हैं तुम्हें।
सीता देवी को अपने लिए कुछ नहीं चाहिए था, लेकिन बच्चों की ख्वाहिशें तो पूरी करनी होती थीं। बच्चे तो सिर्फ उनके ही नहीं थे। लेकिन वह पति को यह बात नहीं समझा सकती थीं। एक दिन तो हद ही हो गई थी। वैदेही को तेज बुखार था और घर में इतने पैसे भी नहीं थे कि किसी डॉक्टर के पास ले जाया जा सके। उन दिनों मोबाइल नहीं था। शाम को पापा आए तो वैदेही की हालत देख कर सकते में आ गए। इसके बाद उनके व्यवहार में बदलाव आया और वे पत्नी को थोडा-बहुत पैसा देने लगे। लेकिन उन पैसों का हिसाब वह दारोगा की तरह लेते थे।
ऐसा भी नहीं था कि पापा बुरे थे। वह बस एक परंपरागत पति थे, जो चाहता था कि उसके घर में एक तिनका भी उसकी अनुमति के बिना इधर से उधर न हो। जब कभी भी उन्हें आभास होता कि ऐसा कुछ हुआ है तो गुस्से से आगबबूला हो जाते।
शायद मां की इसी विवशता ने बेटियों को नौकरी के लिए प्रोत्साहित किया, बेटी मन लगा कर पढो। मेरा जमाना दूसरा था। जैसे-तैसे कट गया। अब मैं नहीं चाहती कि तुम भी मेरी तरह जरा-जरा सी चीज के लिए पति के आगे हाथ फैलाओ और फिर उसकी झिडकियां सुनो।
बडी दीदी तो मां की यह अभिलाषा पूरी नहीं कर पाई। मगर वैदेही की मेहनत रंग लाई। वह एक प्रतिष्ठित स्कूल में टीचर थी। उसे अपने पैरों पर खडे देख मां के चेहरे पर हमेशा संतुष्टि सी दिखने लगी थी। कहतीं, अपने पैरों पर खडे होना बहुत जरूरी है। कम से कम तुम्हारी अपनी पहचान तो बनी।
नौकरी लगने से पापा भी खुश थे। लेकिन उनकी खुशी का कारण मां से भिन्न था। उन्हें लगता था कि बडी बेटी की शादी के लिए तीन वर्ष से चप्पलें घिस रहे हैं, फिर भी कोई सुयोग्य वर नहीं मिल सका। कम से कम छोटी बेटी को तो कोई पसंद कर ही लेगा, क्योंकि अब तो लडके भी कमाऊ पत्नी चाहते हैं। फिर सरकारी नौकरी हो तो पूछना ही क्या? पैकेज कितना अच्छा हो गया है अब सरकारी नौकरियों में..!
नौकरी के चार साल बाद उसकी शादी हुई। पिता ने उसका एक पैसा भी घर के खर्च में इस्तेमाल नहीं किया। लेकिन वह भी कहां अपनी मर्जी से पैसे खर्च कर सकी। शुरू के डेढ साल की कमाई बडी दीदी की शादी में खर्च की। बाद में ढाई साल की तनख्वाह उसके विवाह में खर्च हो गई। सच तो यह था कि पिता ने ही उसके पैसों का इस्तेमाल किया। हालांकि वैदेही के मन में इसे लेकर कोई क्षोभ नहीं था, बल्कि संतोष ही था कि वह परिवार के काम आ सकी।
इस मुद्दे पर तो मां भी पिता के पक्ष में ही खडी थीं। कहती थीं, बेटी पैदा होती है तो मां-बाप की सबसे बडी चिंता उसके लिए सुयोग्य वर की तलाश होती है। हमें भी हमेशा तुम्हारी चिंता रही। तुम नौकरी में न होतीं तो भी तुम्हारी दीदी का विवाह तो होता। मगर शायद हम इतने खुले हाथ से खर्च न कर पाते, जो तुम्हारे सहयोग से संभव हो सका। आखिर व्यक्ति नौकरी क्यों करता है? घर-परिवार के लिए ही न! यह भी अच्छा हुआ कि तुम्हारी नौकरी अच्छी है, तभी तो सभी के दिल में सुकून है।
शुरुआत में यही सोच वैभव के परिवार के लिए भी थी उसकी। उसे लगता था कि वह घर के लिए ही तो कमा रही है। धीरे-धीरे उसका भ्रम टूट गया। उसे लगने लगा कि उसे सिर्फ इस्तेमाल किया जा रहा है। भावनात्मक रूप से किसी को उससे कोई लगाव नहीं है। मगर वह चुपचाप इस हलाहल को पीने के लिए अभिशप्त थी।
नौकरी की विवशता ऐसी थी कि वह कभी वैभव के साथ नहीं रह सकी। सरकारी टीचर थी और नियुक्तियां कई बार बहुत ग्रामीण क्षेत्रों में होतीं। दो अलग-अलग जगहों पर रहते-रहते वे दिल से भी अलग होते गए। शुरू में उसने अपने ट्रांस्फर की बहुत कोशिश की, मगर सफल नहीं हो सकी। यूं तो 90 किलोमीटर की दूरी बहुत ज्यादा नहीं होती, लेकिन रोज उस दूरी को तय करना मुनासिब भी नहीं होता। कुछ महीने उसने साथ रहने की कोशिश की। मगर उसका अनुभव थका देने वाला रहा। फिर उसने स्कूल के पास ही घर ले लिया। शनिवार-रविवार को वैभव उससे मिलने आ जाता। कॉलेज की वार्षिक छुट्टियां वह जरूर वैभव के साथ बिताती थी।
वैदेही अपनी दीदी के वैवाहिक जीवन के बारे में सोचती, जिनका जीवन खुशहाल था। जीजाजी परंपरावादी सोच वाले नहीं थे। उनके परिवार में भी सभी लोग शिक्षित थे और वहां स्त्री को भी पुरुष के बराबर ही स्थान दिया जाता था। जीजा जी फिलोसॉफी के प्रोफेसर थे। दूसरी ओर वैभव में पुरुष अहं कूट-कूट कर भरा था। वह हमेशा अपने गुरूर में डूबा रहता। एक बार वैदेही के माता-पिता उससे मिलने पहुंचे तो उसने दो-एक दिन छुट्टी लेकर उन्हें किसी धार्मिक स्थल में घुमाने का निर्णय लिया। वैभव से साथ चलने को कहा तो उसने व्यस्तता का बहाना बना कर मना कर दिया। फिर चिढ कर जवाब दिया, देखो मुझे तो छुट्टी नहीं मिल पाएगी और तुम वैदेही समय-असमय कुछ भी नहीं देखतीं। बिना सोचे-समझे मनमानी करती हो। मैं कुछ कहूंगा तो तुम्हें बुरा लगेगा। वैदेही का उत्साह फीका पड गया था। मां ने रास्ते में कई बार टोका, क्या बात है वैदेही? तुम्हारी 8तबीयत तो ठीक है?
वैदेही चाहती थी कि अपनी पीडा मां को बताए, लेकिन इससे मां दुखी ही होती। मां को तो यही लगता था कि उनकी दोनों बेटियां अपने-अपने परिवार के साथ खुश हैं। छुट्टी से लौट कर आई तो वैभव का फोन आ गया। इधर-उधर की बातें करने के बाद सीधे खर्च की बात छेड दी, टिकट किसने करवाया था वैदेही? ट्रिप का खर्च किसने उठाया? वह जवाब दे रही थी कि दूसरी ओर से चीखने की आवाज आई, यार तुम तो हद करती हो? इतनी जगह तुम घूम कर आ गई? सारा अपनी जेब से खर्च करके आई हो? अरे तुम्हारे पापा को पेंशन मिलती है, उन्हें बेटी से पैसा खर्च करवाते शर्म भी नहीं आई? लेकिन उन्हें तो बडी बेटी पर ही सारा पैसा लगाना है, यहां तो मैं हूं ही तुम्हारा सारा खर्च उठाने को..।
वैदेही ने फोन रख दिया था। उसकी आंखें गुस्से और दुख में गीली हो गई। वैभव ने स्वार्थ की सभी सीमाएं पार कर ली थीं। उसे क्या ऐसे ही पूरा जीवन बिताना पडेगा? यह कैसा स्वावलंबन है, जिसमें पति की इजाजत के खिलाफ सांस भी लेने की मनाही है। मगर अब वह ऐसा नहीं होने देगी। उसे नए सिरे से अपने और वैभव के बारे में सोचना पडेगा, क्योंकि वह जितना सिमटती जाएगी, वैभव उसके प्रति उतना ही आक्रामक होता जाएगा।
वैदेही सोचने लगी, उसकी मां के जीवन में और उसके अपने जीवन में क्या फर्क है? यहां तक कि जानकी और उसकी स्थिति में भी खास फर्क नहीं है। सभी कहीं न कहीं पुरुष सत्ता के आगे लाचार हैं। लडकियों की परवरिश इस तरह की जाती है कि वे पति के बिना जीवन की कल्पना नहीं कर पातीं। पति के रूप में उन्हें एक सामाजिक ढाल मिलती है। मगर यही सोच तो स्त्री को मानसिक रूप से पुरुष पर आश्रित बनाती है। जब तक स्त्री मानसिक गुलामी से मुक्त नहीं होगी, तब तक आर्थिक आत्मनिर्भरता का भी कोई अर्थ नहीं है।
गोविंद उपाध्याय